Tuesday, May 31, 2016

: Gorgeous ladies in politics :अंगूरलता में और भी कुछ ख़ास है


हाल ही में संपन्न असम विधानसभा के चुनावों में भाजपा की एक आकर्षक उम्मीदवार चुन कर आई।  अगर व्हाट्सएप्प पर चलने वाले संदेशों और फोटो को लोकप्रियता का पैमाना माना जाए तो वे फिलहाल पार्टी प्रमुख नरेंद्र मोदी से भी आगे चल रही है।
चुनाव नतीजों के बाद से ही सोशल मीडिया पर उनके कुछ पुराने फोटोग्राफ्स की सुनामी आगई थी। इसमें अंगूरलता [ यह उन का नाम है ] का कोई दोष नहीं है।सिवाय इस बात के कि वे कुदरती तौर पर आकर्षक दिखती है।
एंड टेलीविज़न पर चल रहे धारवाहिक " भाभीजी घर पर है " के लम्पट पतियों की तरह पूरा देश इस समय अंगूरलता डेका को निहारने में व्यस्त है। आप गौर कीजिये इतनी तवज्जो साइना नेहवाल या टीना डाबी को नहीं दी जाती क्योंकि उनकी छवि आपके अवचेतन को झनझनाती नहीं है। टेनिस की दूर तक की जानकारी न रखने वाला शख्स भी  मारिया शरापोवा को पहचानता है . दरअसल यह परेशानी सर्वभौम और सर्वकालिक है।
sexual objectification इस प्रवृति को नाम दिया जा सकता है। संभव है अधिकाँश पुरुष उस लोलुपता से  पीड़ित न हो परन्तु सिर्फ मजे के लिए फोटो फॉरवर्ड करने के पाप से बरी नहीं हो सकते। गूगल सर्च बताती है कि अंगूरलता को ' सेक्सी , क्यूट , फटाका , बम , आदि नामो से सर्च किया गया। यहां भाजपा का आई टी सेल भी अपने को दोषमुक्त नहीं मान सकता। विकिपीडिया पर अंगूरलता के बारे में कोई काम की जानकारी नहीं है। उनकी पारिवारिक प्रष्टभूमि , उनकी शैक्षणिक योग्यता , उनका मॉडलिंग और फ़िल्मी सफर इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं  है . भाजपा अपनी विधायक के लिए इतना तो कर ही सकती थी।
असम के अखबारों की साइट पर जरूर अंगूरलता के बारे में उल्लेखनीय तथ्य मौजूद है। उन्होंने आठ साल तक सम्पूर्ण असम में भटक कर थिएटर किया है और उन्हें प्रतिभाशाली रंगकर्मी भी माना  जाता है . चार फिल्में उनके नाम दर्ज है।  चूँकि वे क्षेत्रिय फिल्मों और रंगमंच पर ही सक्रिय रही लिहाजा हिंदी दर्शकों में अपनी पहचान नहीं बना पाई।
सोशल मीडिया में यूँ ट्रोलिंग का शिकार होने वाली अंगूरलता पहली  महिला नहीं है। अगर आपकी याददाश्त दुरुस्त है तो अलास्का की भूतपूर्व गवर्नर और 2008 में अमेरिका के उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार सेरा पॉलिन को याद कीजिये। उस दौर में सेरा पर बनी सेक्स पैरोडी आज तक इंटरनेट  घूम रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और sexual objectification पर लम्बी बहस जरुरी है।


Thursday, May 26, 2016

Let's make a Movie :चलो एक फिल्म बनाते है

  फिल्म मेकिंग हमेशा से ही दुरूह माना  जाता रहा है।  यह वाकई में है भी। साधारण सी स्टार कास्ट को लेकर बनने वाली हरेक फिल्म को सबसे पहले जिस दुविधा से दो - चार होना पड़ता है वह है - फाइनेंस।आमतौर पर फिल्मों के लिए फाइनेंस बड़े पूंजीपति ही जुटाते है। यह व्यवस्था भारत से लेकर अमेरिका तक प्रचलित है। विगत कुछ वर्षों में फिल्मों के लिए धन जुटाने का एक और तरीका अस्तित्व में आया है। यह है क्राउड फंडिंग ( crowd funding ) जन सहयोग से फिल्मों के लिए पूंजी एकत्र करना। इंटरनेट के विस्तार ने इस माध्यम को आकार लेने में विशेष योगदान दिया है। हजारों लोगों तक अपनी बात प्रभावशाली ढंग से पहुंचाने के लिए आप किसी और माध्यम पर इतना  निर्भर नहीं रह सकते।
                     
                   
 
crowd funding में प्रायः किसी एक स्थापित वेबसाइट की मदद ली जाती है।  इस वेबसाइट का विश्वसनीय  होना निसंदेह जरुरी होता है। इस वेबसाइट के माध्यम से फिल्म निर्माता अपना आईडिया आम लोगों के साथ शेयर करता है। फिल्म की कहानी के बारे में बात की जाती है , कहाँ शूट  होगी, स्टारकास्ट , फिल्म निर्माण में लगने वाला  समय , जो लोग इन्वेस्ट कर रहे है उसके रिटर्न और सुरक्षा से सम्बंधित सभी पहलुओं को पारदर्शी तरीके से प्रस्तुत किया जाता है।  चूँकि यह तरीका अभी अपने शैशव में है परन्तु इसके बावजूद भी अमेरिका , ब्रिटेन और यूरोपीयन देशों ने    crowd funding को चालबाजों से बचाने के लिए नीति नियम लागू कर दिए है। दिलचस्प तथ्य यह है कि सबसे पहले क्राउड फंडिंग का उपयोग 1997 में ब्रिटिश बैंड marillion ने किया था और 60000 डॉलर जुटाए । इस बैंड  ने इस रकम का उपयोग करते हुए चार  लोकप्रिय  रॉक अलबम जारी किये थे।
क्राउड फंडिंग से बनने वाली पहली फिल्म का श्रेय लेखक निर्देशक मार्क टेंपो को दिया  जाता है जिन्होंने अपनी अधूरी फिल्म war correspondent (1999 ) को 25 निवेशकों से उगाहे 125000 डॉलर से पूर्ण किया था।
                        भारत में क्राउड फंडिंग का सबसे सुन्दर उदाहरण मौजूद है फिल्म '' मंथन ''(1976 ) .. इस फिल्म को गुजरात मिल्क मार्केटिंग फेडरशन  ( अमूल ) को दूध सप्लाई करने वाले 5 लाख ग्रामीणों ( प्रत्येक से 2 \-मात्र ) के सहयोग से बनाया गया था।  स्मिता पाटिल , गिरीश कर्नार्ड , नसीरुद्दीन शाह द्वारा अभिनीत और श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित यह फिल्म 1970 में आरम्भ हुई श्वेत क्रांति  ( white revolution ) के महत्व  को दर्शाने के लिए बनाई गई थी। इस फिल्म का थीम सांग ' मारो  गाम कठियावाड़ , जां दूध की नदिया बहे , आज तक अमूल के विज्ञापन में उपयोग किया जाता है।
                         
     देश में बहुत से नवोदित और योग्य फिल्मकार इस माध्यम का सहारा लेकर अपनी प्रतिभा सिद्ध कर रहे है परन्तु वह बात नजर नहीं आरही जो इन दिनों हॉलीवुड में दिखने लगी है।  2015 में स्वतंत्र फिल्मकारों ने   क्राउड फंडिंग द्वारा 5 अरब डॉलर का निवेश हासिल किया है।यद्धपि भारत में भी इस विधा का उपयोग होने लगा है और रजत कपूर , ओनिर जैसे प्रयोगधर्मी अपनी सफलता के परचम फहरा चुके है परन्तु समानांतर सिनेमा जैसी सफलता अभी दूर है।   बॉलीवुड के लिए क्राउड फंडिंग का  रास्ता अभी लंबा प्रतित हो रहा है।
                       

Monday, May 23, 2016

The Bridges Of Madison County( 1995 ) : चार दिन की प्रेम कहानी

प्रेम किसी भी समय , किसी भी परिस्थिति , उम्र के किसी भी पड़ाव पर घटित हो सकता है।  कुछ इस तरह के बिन्दुओ पर रोबर्ट जेम्स वेल्लर ने 1992 में एक उपन्यास लिखा '' ब्रिजेस ऑफ़ मैडिसन काउंटी '' इटली में जन्मी और विवाह के बाद अमेरिका के आयोवा राज्य में जीवन बिता रही पारिवारिक  महिला का प्रेम एक घुमन्तु फोटोग्राफर से होता  है जो महज चार दिनों के लिए मेडिसन काउंटी आया हुआ है।  संयोग से उसी दिन नायिका ( मेरिल स्ट्रिप ) के पति उनके दो किशोर बच्चों को लेकर एक कार्निवाल में हिस्सा लेने निकलते है। नायक ( क्लिंट ईस्टवूड ) रास्ता पूछते हुए नायिका के फार्म हाउस पहुँचते है। नायिका उन्हें रास्ता बताने के लिए उनके साथ उस ब्रिज तक जाती है जिसके फोटो लेने के लिए नेशनल जियोग्राफिक ने नायक को अधिकृत किया है।  रास्ते में नायक बताता है कि वह एक बार इटली के एक गाँव में ठहरा था।  संयोग से  यह गाँव नायिका की जन्म भूमि थी।  यही से दोनों के बीच प्रेम अंकुरण लेने लगता है।

                                       
 दो घंटे से अधिक लम्बाई की यह फिल्म महज चार दिन के प्रणय की कहानी इतने सुन्दर ढंग से व्यक्त करती है कि दर्शक बंधा सा  रहता है। कई द्रश्य भावनाओ को इस तीव्रता से छूते है कि बरबस ही आँखे गीली हो जाती है। फिल्म यह सन्देश भी दे जाती है कि भले ही नायक -नायिका मिल न पाये परन्तु सच्चे प्रेम का अंत नहीं होता। दर्शक हफ़्तों तक इस प्रेम कहानी के खुमार डूबा रहता है।
                                    इस फिल्म को विख्यात फिल्म निर्माता स्टीवन स्पीलबर्ग की कंपनी एम्ब्लिन एंटरटेनमेंट ने प्रोडूस किया था।  पहले स्वयं स्पीलबर्ग इसे निर्देशित करने वाले थे परन्तु कुछ व्यक्तिगत कारणों से नहीं कर पाये। तब फिल्म के नायक क्लिंट ईस्ट वुड आगे आये और उन्होंने इसका निर्देशन भी किया। मात्र बयालीस दिन में उन्होंने फिल्मांकन पूरा कर लिया था।  फिल्म को कहानी के क्रम में ही शूट किया गया था ताकि नायिका के भावुक दृश्यों में तालमेल बना रहे।
                                                1995 में रिलीज़ हुई इस फिल्म की लागत 22 मिलियन डॉलर थी जिसने महज दस हफ़्तों में 182 मिलियन का कारोबार किया था। नायिका मेरिल स्ट्रिप को इस फिल्म की वजह से  उस वर्ष का अकादमी नामांकन भी मिला था।  यही नहीं नायक क्लिंट ईस्टवूड , जिनकी इमेज वेस्टर्न ( काऊ बॉय की थी  ) को भी इस फिल्म ने बदल  दिया था।
 यह फिल्म ख़त्म होने के बाद भी दर्शक के दिमाग में चलती रहती है। 

Friday, May 20, 2016

The Pursuit Of Happyness ( 2006 ) :ख़ुशी की तलाश

ख़ुशी क्या है ? इस सवाल को तलाशने निकले तो हर शख्श अपनी परिभाषा और उम्मीदे लिए मिलेगा . एक पल को अपने आस पास नजर दौडाए तो हरेक इसी की  बाते करता नजर आएगा जबकि अधिकांश के लिए ख़ुशी सर पर रखी टोपी की  तरह है जिसे लोग बेतहाशा ईधर उधर तलाश रहे है . कुछ के लिए इसकी तलाश जीवन को चलायमान रखने का महज बहाना भर है . कुछ के लिए ख़ुशी जीवन की  सार्थकता और कुछ के लिए भाग्य का एक कतरा भर ......अमरिकी स्वतंत्रता के घोषणा पत्र (Declaration of Independence )में  थॉमस जेफ़र्सन ने एक पंक्ति जोड़ी थी कि ....  


“हमें जीने और खुशियों को तलाशने का अधिकार एवं आजादी है “ शायद वे कहना चाहते थे कि मुकम्मल ख़ुशी हमें भले ही न मिल पाए परन्तु उसके लिए प्रयास करने का हमें पूरा अधिकार है . दुसरे शब्दों में ख़ुशी कोई मुकाम नहीं है यह अंतहीन कोशिशों का सफ़र है .
बहरहाल , में बात कर रहा हु 2006 में निर्मित और विल स्मिथ द्वारा अभिनीत फिल्म the pursuit of happiness की .

फिल्म क्रिस गार्डनर के दुर्भाग्यों और विकटतम गरीबी के अनुभवों की  सच्ची घटना पर आधारित है कि किस तरह एक अफ्रीकन अमेरिकन आदमी को उसके पिता बाल्यकाल में ही त्याग देते है और वह तय करता है कि वह अपने पुत्र के जीवन में हर पल मौजूद रहेगा . दुर्भाग्य क्रिस गार्डनर का पीछा कभी नहीं छोड़ता . अभाव और गरीबी के चलते उसकी पत्नी भी उसे छोड़ देती है परन्तु क्रिस अपना संतुलन नहीं खोता . पांच वर्ष के बेटे को अकेले  पालते हुए गरीबी के चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता तलाशता रहता है . उसे हर बार निराशा हाथ लगती है परन्तु वह घुटने नहीं टेकता . हर असफलता उसके व्यवहार और वाणी को तराशती जाती है और अंत में वह अपनी मंजिल पा लेता है . 117 मिनट की फिल्म सिर्फ निराशा और नेराश्य की  बात नहीं करती वरन मनुष्य की जिजीविषा को परत दर परत उघाडती चलती है . जिन लोगों को लगता है कि उनके लिए संभावना के सारे रास्ते बंद हो गए है उन लोगों के लिए क्रिस की जीवन यात्रा प्रेरणा का काम कर सकती है . यही नहीं , प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने मनोभावों को नियंत्रण में रखते हुए व्यक्तित्व को केसे एकजुट रखा जाय – सबक इस फिल्म की जान है . पिता पुत्र रिश्तों पर भी यह एक बेहतर फिल्म है .

इस फिल्म को देखना जीवन में सफल और असफल दोनों ही तरह के लोगों के लिए यादगार उपहार है .  

Tuesday, May 17, 2016

Castaway (2000 ) : रुक जाना नहीं तू कही हार के !!

आपके सर पर छत है , सोने के लिए मनपसंद  बिस्तर है , कोई है जो आपको प्यार करता है , आपके पास करने को इतना काम है कि वक्त कम पड़ता है , आपके भोजन का समय निश्चित है – कल्पना किजिये यह सब आपसे छीन लिया जाए तो आप जी सकेगे ? यहाँ निर्देशक रोबर्ट ज़ेमेकिक (Robert Zemeckis) हमें एक किरदार से मिलाते है चक नोलैंड (tom hank) फ़ेडेक्स में काम करता है और उसकी दिनचर्या घडी कि सुइयों से बंधी हुई है . निजी जिन्दगी से भी ज्यादा तवज्जो वह अपने काम को देता है यही वजह है कि क्रिसमस की डिनर पार्टी में अपनी सुन्दर मंगेतर केली  (Helen Hunt) से यह कहते हुए बिदा लेकर निकलता है कि शीघ्र लोटकर आऊंगा . उसका यह शीघ्र चार साल लम्बा होता है .

फ़ेडेक्स के छोटे से विमान में समुद्र पर से उड़ते हुए चालक अपना नियंत्रण खो बेठता है और विमान समुद्र में समा जाता है . अकेला बचा चक किसी तरह किनारे लगता है . जीवित बचने की उसकी ख़ुशी तब काफूर होती जब उसे पता चलता है कि वह इस द्वीप पर इकलोता प्राणी है और यह द्वीप पूरी दुनिया से कटा हुआ है . कामकाजी चक के सामने अब सबसे बड़ा काम है इस निर्जन द्वीप पर अपने लिए भोजन पानी और छत तलाशना . उसका काम के प्रति समर्पण यहाँ उसकी मदद करता है . उसके जीवन से भागदौड ख़त्म हो चुकी है और उसकी जगह शांति पसर चुकी है .
क्या आप कल्पना कर सकते है कि चार वर्षों तक आपसे कोई बात करने वाला न हो तो आप केसे जियेंगे ? निश्चित रूप से आप पागल हो जायेंगे . बातचीत सामाजिक  स्वीकार्यता की जरुरत को पूरा करती है . चक को अपना साथी मिलता है ‘ विल्सन ‘ . विल्सन एक वॉलीबॉल है जो चक के साथ समुद्र में बहकर किनारे लगा था . चक विल्सन से बात करते हुए दिन बिताता है . castaway साइलेंट फिल्मों के दौर के बाद  पहली हॉलीवुड फिल्म है जिसमे आधे घंटे तक कोई संवाद नहीं है . संवाद कि जगह गहरी ख़ामोशी लिए हल्का संगीत है . यह संगीत एलन सिल्वेस्ती ने तैयार किया था . चक कि बेबसी और उसकी उम्मीदों को व्यक्त करता साउंडट्रैक दर्शक को भयंकर परन्तु  सुंदर समुद्र और द्वीप की नीरवता का अहसास करा देता है.

कुछ समय के बाद चक के बदन पर कपड़ों के नाम पर एक टुकड़ा भर बचता है परन्तु अपनी दुनिया में वापस लोटने की जीजिविषा उसे कई नाकाम कोशिशों के बावजूद पस्त नहीं कर पाती .जिन्दा रहने के लिए वह आग जलाता और हाथ के बने भाले से मछलियाँ पकड़ता है .  
फिल्म सिर्फ चक की कहानी नहीं कहती वरन प्रतीकात्मक रूप से जीवन दर्शन समझाती चली जाती है . आखिरकार चक लकड़ी के गट्ठों से नाव बनाने में सफल होता है और सिर्फ अपनी उम्मीद और केली की यादों के सहारे द्वीप से निकल जाता है . कई दिनों तक चलने के बावजूद उसे किनारा नहीं मिलता और  तूफ़ान में उसका मित्र विल्सन भी समुद्र में बह जाता है . विल्सन की जुदाई के वक्त चक का आर्तनाद कठोर दर्शक को भी पिघाल  देता है . अंततः चक को मदद मिलती है और उसे बचा लिया जाता है .
 अपनी दुनिया में पहुँच कर चक पाता है कि वह पूरी तरह बदल गई है . उसकी कंपनी अब नए तरीकों से काम करने लगी है . केली ने दो साल तक उसका इन्तजार किया और फिर शादी कर ली . चक को लगता है कि वह एक द्वीप से निकल कर दुसरे द्वीप पर आगया है .

फिल्म का अंत बहुत ही प्रतीकात्मक और आशावादी है . जिन्दगी की तमाम रुकावटों के बावजूद उसका चलते रहना जरुरी है . इसी में मनुष्य कि सार्थकता है . CASTAWAY ऐसी फिल्म है जो ख़त्म होने के बाद भी दर्शक के मन में चलती रहती है .
       


Monday, May 16, 2016

A Flop movie Could Lead you to Top : एक फ्लॉप फिल्म आपको सफलता का रास्ता दिखा सकती है

whatsapp पर एक मेसेज था , क्या ऐसा जरुरी है कि हम हमेशा सफल ही हो ? क्या कही ऐसा लिखा है कि हर रिश्ता अटूट हो ? क्या ऐसा कानून है कि आप हमेशा सेलेक्ट ही हो ?लाख चाहने पर भी लोग असफल हो जाते है। प्रेम में ठुकरा दिए जाते है। अपने आईडिया को असमय मरते देखते है, हर चीज परफेक्ट हो हर ईच्छा पूर्ण हो ,    कतई संभव नहीं है। गंभीरता से मनन करने वाली बात है।
सफलता के हमेशा 50 प्रतिशत चांस तो होते ही है। यह अलग बात है कि आपने प्रयास कितने गम्भीर तरीके से किये है -दुनिया आपको उन्ही प्रयासों के माध्यम से आंकती है। क्योंकि एक समय गुजरने के बाद आपके व्यक्तित्व का आकलन आपके किये  प्रयासों  से ही होने वाला है। जिन लोगों में कुछ कर गुजरने का माद्दा होता है या जो लोग अपनी सफलता को लेकर जुनूनी होते है वे ही सफलता के अनुभव को महसूस कर पाते है। इस बात को हमेशा गाँठ बाँध कर रखिये।
चूँकि यह एक फिल्म ब्लॉग है लिहाजा मेने एक फिल्म को ही जीवंत उदाहरण बनाया है। अधिकाँश सिने दर्शकों को राजकपूर की अभिनीत और निर्देशित फिल्म ' मेरा नाम जोकर ' याद होगी या उन्होंने इसके बारे में कभी तो सुना  ही होगा भले ही वे इस फिल्म के रिलीज़ होने के बाद पैदा हुए हो। इस फिल्म को राजकपूर ने अपनी सफलतम फिल्म  ' संगम ' के बाद बनाया था। इस फिल्म को लेकर वे कितने पसेसिवे थे इस बात का अंदाजा इसी तथ्य  से लगाया जा सकता है कि इसे  बनाने में उन्होंने 6 साल का लम्बा समय लिया और बेशुमार धन सेट्स बनाने में लगाया। पहली बार किसी हिंदी फिल्म के लिए तकनीशियन और एक्टर्स सोवियत रूस से भारत लाये गए । यह फिल्म राजकपूर के लिए इतनी अहम थी कि धन की कमी के चलते  उन्होंने अपना प्रसिद्ध आर के स्टूडियो गिरवी रख दिया था।
इस फिल्म को लेकर सिर्फ राजकपूर ही नहीं वरन पूरा देश आश्वस्त था कि यह बड़ी सुपर हिट साबित होगी। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। 18 दिसंबर 1970 को जब यह फिल्म रिलीज़ हुई तो देश के साथ राजकपूर को भी हिला गई।  ' मेरा नाम जोकर ' उस समय की सबसे बड़ी फ्लॉप साबित हुई। फिल्म समीक्षकों और दर्शकों , दोनों को ही राजकपूर का ' जीवन दर्शन ' समझ में नहीं आया। यद्धपि उस वर्ष के 6 फिल्मफेयर ' पुरूस्कार और एक नेशनल अवार्ड ' इस फिल्म को मिले परन्तु पैसा नहीं मिला। भारतीय दर्शक जीवन की कड़वाहट को पर्दे पर नहीं देखना चाहता था। बेहतरीन  संगीत और यादगार गीतों  बावजूद फिल्म को नकार दिया गया।
                            इस असफलता का क्या परिणाम हुआ?   राजकपूर आर्थिक रूप से बिखर गए। परिवार सड़क पर आने की नौबत आगई। उन्होंने अपनी असफलता पर मनन करना आरम्भ  किया। वे अपना दर्शन दर्शकों पर थोप रहे थे हालांकि वे सही थे परन्तु समय से आगे चल रहे थे।  उन्होंने अपनी सोंच को बदला बजाये दर्शकों को बदलने के। एक नए प्रोजेक्ट पर उसी मेहनत से काम करना शुरू किया, और जोकर के हादसे के  मात्र तीन बरस के बाद '' बॉबी ' प्रदर्शित कर दी। यह फिल्म उनकी सफलता का नया आयाम था।
                      इस उदाहरण का सार यही है कि आप जो भी कर रहे है पूरी तरह डूब कर करे। अगर असफल भी हो जाते है तो लोग आपकी असफलता को भी मिसाल के रूप में लेंगे - मेरा नाम जोकर ' की तरह।
                    सफलता में लोग आपके नए ढंग से काम करने को सराहेंगे और आपका अनुसरण करने की कोशिश करंगे - बॉबी ' की तरह जिसने बॉलीवुड को ' टीन ऐज लव स्टोरी ' नाम की एक नयी श्रेणी दी और राजकपूर को उनका खोया पैसा और आत्मविश्वास भी लौटाया।
( अपनी असफलता पर डट कर मनन कीजिये उसी में अक्सर आगामी सफलता के सूत्र छिपे होते है )

Tuesday, May 10, 2016

Twister (1996 ) : A Nature disaster

विध्वंस अपने आप में डरावना शब्द है।  वास्तविक जिंदगी में जिन लोगों ने प्रकृति की मार सही है वे जानते है कि इससे निपटना और उबरना कितना तकलीफ भरा है। परन्तु यही विध्वंस अगर सिनेमा के परदे पर हो तो रोमांचकारी हो जाता है।  मंत्र मुग्ध दर्शक सीट से अलग होने को राजी नहीं होता।
दर्शकों को इसी अनुभव से 20 बरस पहले ( 10 मई 1996 )  रूबरू कराया था Twister ने। स्टीवन स्पीलबर्ग को जेफ हटलों ने 10 पेज की एक कहानी पढ़ने के लिए दी।   यह कहानी उन्हें  इतनी पसंद आई कि उन्होंने तुरंत उसे माइकल क्रायतन और उनकी पत्नि एनी मारी मार्टिन ( जुरासिक पार्क  ) को स्क्रीनप्ले तैयार करने के लिए अनुबंधित कर लिया। उस दौर में  माइकल क्रायतन की फीस हुआ करती थी 25 लाख डॉलर। फिल्म के निर्देशन के लिए जेन डी बाँट (jane de bont ) को लाया गया जो 1994 में रोमांचक  ' स्पीड ' (speed ) से अपनी धाक जमा चुके थे। चूँकि फिल्म पूरी तरह से आउटडोर शूट होना थी और स्पेशल इफ़ेक्ट जरुरी थे इसलिए  Twister का बजट 70 मिलीयन डॉलर रखा गया , जो की Speed से दुगना था। 
 Twister नायिका प्रधान फिल्म थी लिहाजा निर्देशक  जेन डी बाँट की एक मात्र  पसंद हेलन हंट थी जो उस समय टेलीविज़न कॉमेडी सीरीज MAD ABOUT YOU में लोकप्रियता की पायदान पर तेजी से छलांग भर रही थी।
नायक बने  ' बिल पैक्सटन '   जो   ' टर्मिनेटर '  ' एलियन '   ट्रू लाइ ' जैसी बड़ी फिल्मों में  छोटी भूमिकाओ के बल पर  पहचान बना चुके थे।  
             अमेरिका के ओक्लाहोमा राज्य का अधिकाँश हिस्सा जब तब आने वाले टोरनेडो ( बवंडर ) के तांडव से त्रस्त है। ऐसा ही एक बवंडर पांच वर्षीया बच्ची के पिता को हवा में उड़ा कर मार देता है। नन्ही जो का एक मात्र सपना है सफल मौसम वैज्ञानिक बनकर  बवंडर की गतिविधियों पर नजर रखना और लोगों को जान माल के नुक्सान से बचाना। बवंडरों का पीछा करती  'जो ' की निजी जिंदगी में भी मुश्किलें चल रही है। उसका वैवाहिक जीवन तलाक के बवंडर से ख़त्म होने वाला  है। फिल्म का अंत सुखद है। ' जो ' अपना सपना पूरा  करती है और उसकी शादी भी बच जाती है।
                         Twister  पहली फिल्म थी जिसने आम जीवन  में मौसम की अनिश्चितता के प्रति जागरूकता का माहौल बनाया। फिल्म के सभी रोमांचक दृश्यों को कई कैमरों से शूट किया गया था परिणाम स्वरुप 13 लाख फ़ीट नेगेटिव फिल्म का उपयोग हुआ। जबकि एक औसत फिल्म में 3 लाख फ़ीट फिल्म का उपयोग होता था। स्पेशल इफ़ेक्ट इस फिल्म की जान है। बवंडर में उड़ते मकान , ट्रेक्टर और गाय,  दर्शक की सांस थाम लेते है। खलनायक की तरह नायक - नायिका का पीछा करता बवंडर क्लाइमेक्स को यादगार बना देता है।


                     

Thursday, May 5, 2016

The Jungle Book : Life and time of Mogli :मोगली की कहानी

ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ कुछ भले लोग भी भारत आये थे। उन्ही में से एक थे ' जॉन लॉकवूड किपलिंग ' -महान लेखक रुडयार्ड किपलिंग के पिता। बॉम्बे के जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स के परिसर में जन्मे रुडयार्ड किपलिंग ने यायावरी जीवन जिया। उन्होंने भारत में पत्रकारिता करते हुए एक दशक बिताया था । इस अवधि में उन्होंने एक अफवाह सुनी ' मध्यप्रदेश के सिवनी जिले में एक बालक को भेड़ियों के झुण्ड ने पाला पोसा ' किपलिंग ने पहली नजर में इस खबर को सिरे से ख़ारिज कर दिया। उनके नजरिये से ऐसा होना संभव नहीं था।
              भारत के मोगली का जन्म यूँ अमेरिका में हुआ - जंगल बुक नाम से।
 मनुष्य का मस्तिष्क मिटटी से भी ज्यादा उर्वर है। अवचेतन में दबा कोई विचार कब विस्तार ले लेता है कहा नहीं जा सकता। वर्षों बाद जब किपलिंग   अमरीका में निवास कर रहे  थे (1893-94 )  तब उनकी कल्पना ने उस कपोल खबर को आकर देना
आरम्भ किया। इस समय तक किपलिंग स्थापित लेखक हो चुके थे और ब्रिटिश लिटरेचर को समृद्ध कर रहे थे। खबर भारत की थी परन्तु कहानियों में वह सात समंदर पार वर्मांट डलास में रूप लेने लगी थी।
                ' जंगल बुक ' सर्वकालिक लोकप्रिय बाल साहित्य में शीर्ष पर है। इसकी  कहानियों के सभी पात्र   जंगली जानवर है जिनमे मानवीय अच्छाइयाँ और बुराइयां दोनों मौजूद है। जंगल बुक कोई एक कहानी नहीं है वरन दर्जनों कहानियों को  एक दूसरे से गूँथ कर बनाया गुलदस्ता है। बच्चों को नेतिक शिक्षा से परिचय कराने के लिए इससे बेहतर संग्रह नहीं है। इन कहानियों के बारे में यह भी कहा जाता है कि किपलिंग ने इन्हे अपनी 6 वर्षीय बेटी 'जोस्फी ' के लिए लिखा था।
                              'जंगल बुक 'को हॉलीवुड ने भी  डटकर भुनाया।  20  सदी की शुरुआत में सिनेमा ने जन्म लिया और उसकी किशोर अवस्था में ही रुडयार्ड किपलिंग की कहानियों का फिल्मीकरण आरम्भ हो गया था।
जंगल बुक की ही वजह से पहले भारतीय अभिनेता को हॉलीवुड ने सर आँखों पर बैठाया था , ये थे केरल में जन्मे ' साबू दस्तगीर ' . एक डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माता अपनी फिल्म the elephant boy के लिए ऐसे लड़के की तलाश में थे जो फिल्म में कुशल महावत का रोल कर सके।  साबू को देखते ही उन्हें लगा कि यह वही है जिसकी उन्हें तलाश थी।  पहली ही फिल्म ने साबू को सितारा हैसियत दी और जंगल बुक पर आधारित अगली कई  फिल्मों में  उनकी व्यस्क ' मोगली ' की छवि इस कदर लोकप्रिय हुई कि  साबू को अमरीकी नागरिकता मिल गई।
आज 75 साल बाद भी हॉलीवुड उन्हें उसी रूप में याद करता है। साबू की स्मृति को चिर स्थायी बनाने के लिए  लॉस एंजेलस में बने ' वाक ऑफ़ फेम ' में एक सितारा साबू के नाम पर भी लगाया गया है।

Sunday, May 1, 2016

The Land of Kamsutra : खजुराहो के देश में सेंसर !!

एक खुला पत्र सेंसर बोर्ड के चेयर मैन के नाम 

आदरणीय पहलाज निहलानी साहब

सादर प्रणाम ,
       
     एक गुमनाम  फिल्म निर्माता से सेंसर बोर्ड के चेयरमैन बनने और दुनिया भर में अपने नाम का डंका बजाने के लिए बधाई स्वीकार करे। जब से आप इस कुर्सी पर बैठे है तब से दुनिया के नामचिन निर्माता निर्देशकों ने भारत की तरफ पैर करके सोना भी बंद कर दिया है। खुश तो बहुत होंगे  आप कि जो त्राहि आपने मचाई है और  ' संस्कार व संस्कृति ' के लिए फिल्म के दृश्यों पर बेरहमी से कैंची चलाई वैसा साहस किसी और ने पहले नहीं दिखाया। परन्तु सर , देश को इसकी बड़ी किमत चुकाना पड  रही है।  कैसे ?  मैं विस्तार से बताता हूँ  .
                     हाल  ही में मैं huffingtonpost.com पर एक लेख पढ़ रहा था। शीर्षक था '' बेतुके कारणों की वजह से सेंसर बोर्ड ने हॉलीवुड की 6 फिल्मों को सर्टिफिकेट देने से इंकार किया '' ...  बुरा मत मानियेगा सर।  ये 6 फिल्में आज भी torrent  की बदौलत धड्ड्ले से भारत में देखीं  और share की जारही है।  आपने तो उन्हें सिनेमा घर का मुंह न देखने दिया परन्तु आप उन्हें रोक नहीं पाये।  ये सभी फिल्में ख्यातनाम actors और directors की है और एक को तो oscar भी मिल चूका है। यही हाल टेलीविज़न shows का हो रहा है। Two and half man , Breaking Bad , Games of throne जैसे लोकप्रिय धारावाहिक आपके होते शायद भारत में प्रदर्शित न हो पाये परन्तु देखे जा चुके है , बगैर किसी mute के , बगैर किसी beep beep के साउंड के। उस revenue की कल्पना कीजिये जो indian film industry कमा न सकी. आपको तो सिगरेट , शराब,  और हिंसक दृश्यों से देश को बचाना था आपने बचा लिया।   खैर।
                          पिछले दिनों केंद्र सरकार ने चुनिंदा पोर्न साइट्स पर बैन लगाकर देख लिया है। मीडिया में इतना मजाक बना आपने भी सुना होगा। यू टर्न लेना पड़ा।
            सर , गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर की ' गीतांजलि ' में कुछ लाइन बताती है कि पिछले पांच हजार वर्षों में हमारे इस भू भाग पर अनगिनत सभ्यताए आई परन्तु हमारी संस्कृति को नष्ट न कर सकी वरन वे अपना अस्तित्व खो कर भारतीयता में इस कदर घुलमिल गई जैसे यहीं की हो।
                 जिद छोडिए सर ! लोग जो देखना चाहते है उन्हें देखने दीजिये।  आप अपनी और से ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर सकते है जैसा कि अमेरिकन और ब्रिटिश फिल्मों के लिए होता है। ध्यान रखिये सर  श्रीमती इंदिरा गांधी जैसी पावरफुल प्रधानमंत्री भी इमरजेंसी को ज्यादा नहीं थोप पाई थी। उनका राजनीतिक हश्र भी आपकी स्मृति में होगा ही।
 हमारे देश में एक अलिखित नियम है कि आप कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को राय नहीं दे सकते , उसका आत्म सम्मान आहात हो जाता है।  में आपको राय नहीं दे सकता सिर्फ आगाह कर सकता हु। कला के किसी भी रूप को प्रतिबंधित करना संभव नहीं है। प्रतिबंध अपने साथ विकृतियां लाते है ( गूगल के मुताबिक़ इस्लामिक राष्ट्र का दम भरने वाला पकिस्तान पोर्न सर्च में दुनिया में पहले स्थान पर आता है )
याद रखिये सर  - कामसूत्र भारत  की  देन है  और खजुराहो के शिल्प हमारे ही पूर्वजों ने तराशे थे। यह बात देश के कर्णधार गर्व से बताते है !!

                  

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