Sunday, July 21, 2019

( खल) नायक का उदय !

पिछले दिनों एक तेलुगु फिल्म के हिंदी रीमेक ने महज आठ दिनों में दो सौ करोड़ कमाई का रिकॉर्ड बना दिया। नशाखोरी ,महिला पात्र के प्रति अपमानजनक व्यवहार और अशालीन भाषा व् दृश्यों के बावजूद फिल्म को मिला  दर्शकों का समर्थन न सिर्फ चौंकाता है वरन चिंता भी पैदा करता है। क्या हम ऐसे समय की और बद रहे है जहाँ ' एंटी हीरो ' की भूमिका समाज में बगैर किसी किन्यु परन्तु के आत्मसात कर ली गई है ? फिल्म को मिले नेगेटिव रिव्यु के बावजूद थोक में दर्शक मिलना जताता है कि ' नकारात्मकता ' सामाजिक रूप से स्वीकारली गई है। लोगों को अपने नायक को गलत करते देखना अब कचोटता नहीं है।
हिंदी सिनेमा के कद्रदानों को भली भांति स्मरण होगा कि इस तरह की नकारात्मक भूमिका महान अभिनेता दादा मुनि अशोक कुमार ने काफी पहले पहली बार बुराइयों से भरे नायक के रूप में फिल्म ' किस्मत (1943) में निभाई थी। वे हिंदी फिल्मों के पहले ' एंटी हीरो ' माने जाते है। एंटी हीरो ' वह नायक होता है जिसमे परंपरागत प्रशंसनीय गुणों का सर्वथा अभाव होता है। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि हमारे माता पिता के दौर के नायक नायिकाओ से ये ठीक उलट होते है। उनके समय के नायक आदर्शवादी , मेहनत कश , नैतिक  मूल्यों और परम्पराओ का पालन करने वाले हुआ करते थे। बुरे कामों के लिए खल पात्र होता ही था।
सिनेमा और विज्ञापन की दुनिया प्रायः ' मिरर इमेज थ्योरी ' पर काम करती है। जो वर्तमान में  हो रहा है उसे कोई विषय बनाकर सिनेमा में प्रस्तुत कर दिया जाता है या फिल्म में दिखाए कथानक को  देखकर लोग उसे अनुसरण करने लगते है। हमारे मौजूदा समय में तलाक , बिखरते परिवार , आदर्शो का पिघलते जाना , भ्रष्टाचार   के प्रति संवेदनशून्यता जैसे माहौल ने यह महसूस कराना आरंभ कर दिया है कि कोई भी पूर्ण नहीं है। इसी विचार ने हमें चारित्रिक कमियों वाले नायको को पसंद करने के लिए प्रेरित किया है। यह भी उल्लेखनीय है कि जितने भी नायकों ने परम्परागत बायक के मुखोटे को उतार कर ' एंटी हीरो ' बनने का दुस्साहस किया है उन्हें अप्रत्याशित सफलता मिली है। दादा मुनि के नकारात्मक भूमिका निभाने के 14 बरस बाद सुनील दत्त ने ' मदर इंडिया (1957) में व्यवस्था से उपजे आक्रोश के चलते डकैत की भूमिका निभाई थी। बाद के वर्षों में वे ' मुझे जीने दो (1963) एवं  ' 36 घंटे (1974) में भी घुसर चरित्र निभाते नजर आये। ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार ने अपनी फिल्म ' गंगा जमुना (1961) से दो भाइयों की कहानी का चलन आरंभ किया।  इस तरह की कहानी में एक भाई विरोधी खेमे में खड़ा होकर नायक की राह में रोड़े  अटकाता  है।। एंटी हीरो को ग्लैमर दिया महानायक अमिताभ ने।  सत्तर के दशक में आयी ' शोले (1975) ऐसे नायको को हमसे परिचित  कराती है जिनमे दुर्गुणों की भरमार है। चूँकि वे गाँव की रक्षा करने आये है तो गाँव वालों के साथ दर्शक भी उन्हें सर माथे बिठा लेते है। शोले देखते हुए हमें अचानक से महान जापानी फिल्मकार अकीरो कुरोसावा की क्लासिक ' सेवन समुराई (1955) याद आजाती है जिसमे समाज से बहिष्कृत सात गुंडे गाँव वालों को डाकुओ के प्रकोप से मुक्ति दिलाते है। एंटी हीरो को एक नई ऊंचाई अमिताभ ने अपनी फिल्म ' डॉन (1978) से दी। उनका यह नेगटिव किरदार इतना लोकप्रिय हुआ कि  एक समय उनके घोर आलोचक शाहरुख़ ' डॉन ' के रीमेक में नायक बनकर आये।यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि  शाहरुख़ के कैरियर को गति देने में ग्रे -शेड्स की भूमिकाओं का अहम् योगदान है। उनकी 'डर (1990) बाजीगर (1993) अंजाम (1994 ) जैसी फिल्मों की वजह से ही दर्शकों ने उन्हें पसंद करना शुरू किया है।
सौरभ शुक्ला और अनुराग कश्यप द्वारा लिखी कहानी पर रामगोपाल वर्मा निर्मित ' सत्या (1998) मनोज बाजपेयी को रातो रात सितारा हैसियत दिला देती है। ऐसा ही कुछ सैफ अली के साथ ' ओंकारा (2006) में होता है।  शेक्सपीअर के नाटक ओथेलो पर आधारित इस फिल्म के नायक ' लंगड़ा त्यागी ' को भला कौन भूल सकता है।
नकारात्मक भूमिकाओं से 'लाइम लाइट ' जल्द मिलती है -यह सोंच देसी विदेशी दोनों ही तरफ  के नायक नायिकाओ को लुभाती रही है। कई बुराइयों और खामियों वाले हीरो आम दर्शको को लगातार प्रभावित कर रहे है। पूर्ण कोई नहीं है -यह विचार दर्शक को सीधे अपने नायक से जोड़ देता है लिहाजा  नायक और  उसकी फिल्म दोनों ही चल पड़ते है।  

पिता पुत्र के रिश्तो पर प्रभावशाली फिल्म

 मनोहर श्याम जोशी ने फिल्मों के कथानक की खोज के संबंध में दिलचस्प बात कही थी कि अक्सर कहानियों का जन्म किसी आइडिया से होता है। कोई सवाल दिमाग में लहराता है कि ऐसा होता तो क्या होता ? वे बात को आगे बढ़ाते हुए कहते है कि अक्सर एक आइडिया से दूसरा आईडीया निकलता है। और कभी कभी दो आइडिया जोड़ देने पर तीसरा आइडिया निकल आता है। कभी  किसी आइडिया को उलट देने पर भी कोई नया आइडिया निकल आता है। 
                          अपनी युवा अवस्था में ' मदर इंडिया ' देखते हुए निर्माता निर्देशक रमेश सिप्पी को विचार सुझा कि जिस तरह मदर इंडिया ' माँ बेटो के संबंधों पर आधारित आदर्शवादी फिल्म थी उसी प्रकार आदर्शवादी पिता और उसके गुमराह बेटे के कथानक पर आधारित फिल्म बनाई जानी चाहिए। समय के प्रवाह के साथ यह विचार उनके मानस में बना रहा। उनकी निर्देशित  ' शोले ' की घनघोर सफलता के बाद और ' शान ' की नाकामयाबी के साथ उस विचार ने एक बार फिर जोर मारना आरंभ किया।  अब तक उनके पास सिर्फ आइडिया था कहानी नहीं थी। इसी दौरान तमिल महानायक ' शिवाजी गणेशन की एक फिल्म ने उन्हें प्रभावित किया और उस फिल्म के अधिकार खरीद लिए गए। लेखक जोड़ी ' सलीम जावेद ' ने भी फिल्म को देखा लेकिन  उन्हें सिर्फ उसका अंत प्रभावित कर पाया जहाँ  एक आदर्शवादी पिता अपने अपराधी पुत्र को जान से मार देता है ! इसी एक लाइन को पकड़ कर कहानी लिखी गई जिसने 1982 की सर्दियों में सिनेमाघर का मुंह देखा। फिल्म थी ' शक्ति ' ! समय के गलियारों में गुम हो जाने के बाद भी कुछ फिल्मे कुछ विशेष कारणों से दर्शकों की स्मृतियों में बनी रहती है। ' शक्ति ' को याद रखने की भी ऐसी ही वजहें है। हिंदी फिल्मों के इतिहास में यह दूसरी बार हुआ था जब बुजुर्ग होती पीढ़ी का पसंदीदा नायक और युवा पीढ़ी का लोकप्रिय नायक एक साथ नजर आये थे। दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन इस फिल्म में पहली और आखरी बार साथ काम कर रहे थे। पहली बार इसी तरह का संयोग ' मुगले आजम ' में बना था जब पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार पिता पुत्र के रूप में आमने सामने आये थे। 
इस फिल्म को इस लिहाज से भी याद किया जाता है कि भारतीय सिनेमा  के  लिए झकझोर देने वाले कथानक लिखने वाली सफल  लेखक जोड़ी ' सलीम जावेद ' शक्ति के बाद जुदा हो गए थे। 
निर्देशक रमेश सिप्पी  इस फिल्म को एक अलग ही स्तर पर ले जाना चाहते थे लिहाजा इसकी कास्टिंग में ही चौकाने वाले तत्व डाले गए। शान ' के खलनायक कुलभूषण खरबंदा इस फिल्म में अमिताभ पर स्नेह लुटाते नजर आये वही ' कभी कभी ' में अमिताभ की प्रेमिका बनी राखी यहाँ उनकी माँ के किरदार में थी। यह तथ्य भी दिलचस्प है कि अमिताभ की लोकप्रियता को देखते हुए उनके इस फिल्म में होने की कल्पना भी नहीं की गई थी। संपूर्ण फिल्म दिलीप कुमार के चरित्र को ध्यान में रखकर लिखी गई थी और उनका रोल वजनदार भी था। राजबब्बर ने स्क्रीन टेस्ट दिया परंतु वे फ़ैल हो गए।  जब यह खबर अमिताभ तक पहुंची तो उन्होंने खुद आगे बढ़कर इस फिल्म से जुड़ने की मंशा जाहिर की , जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। 
कथानक को आगे बढ़ाने के लिए शक्ति में सिर्फ चार गाने पिरोये गए थे जिन्हे आनद बक्षी ने शब्द दिए थे। फिल्म का संगीत आर डी बर्मन का था और आवाजे थी लता मंगेशकर , किशोर कुमार  और  महेंद्र कपूर की। चार गीतों में से दो गीत ' हमने सनम को खत लिखा ' एवं  ' जाने कैसे कब कहाँ इकरार हो गया ' आज भी बजते सुनाई देते है। पिता  पुत्र संबंधों पर अनेकों फिल्मे बनी है परंतु इस फिल्म में उनके बीच भावनाओ की तीव्रता बखूबी महसूस की जा सकती है। बॉक्स ऑफिस पर शक्ति का प्रदर्शन उम्मीद भरा नहीं था लेकिन समालोचको से इसे काफी सराहना मिली थी। यह तथ्य फिल्म फेयर अवार्ड्स में भी नजर आया। शक्ति ने चार अवार्ड बटोरे। बेस्ट फिल्म , बेस्ट साउंड  एडिटिंग , बेस्ट एक्टर ( दिलीप कुमार ) एवं बेस्ट स्क्रीनप्ले। यधपि अमिताभ भी बेस्ट एक्टर केटेगरी में नॉमिनेट हुए थे परन्तु उन्हें खाली हाथ घर लौटना पड़ा !
 फिल्म में स्मिता पाटिल और अमरीशपुरी की भी प्रभावशाली भूमिका थी। उल्लेखनीय था अनिल कपूर का छोटा सा रोल जिसमे वे अमिताभ बच्चन के पुत्र के रूप में दिलीपकुमार के साथ स्क्रीन शेयर करते नजर आये थे। तब तक अनिल कपूर की कोई भी हिंदी फिल्म बतौर नायक नहीं आई थी। 
आश्चर्य की बात है कि रीमेक बनाने वालों की नजर इस फिल्म पर आज तक नहीं पड़ी है ! 

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