Thursday, August 30, 2018

वो मसीहा आएगा


वह इकलौता  जासूस है जो कभी अपनी पहचान नहीं छुपाता। उसे हत्या करने का लाइसेंस मिला हुआ है। अब तक उस पर चार हजार गोलियां चल चुकी है और 365 खलनायको को वह मौत के घाट उतार चुका है । वह ब्रिटिश है और इंग्लैंड की रानी के प्रति वफादार है । उसका कार्यक्षेत्र पूरी दुनिया है । एकबार वह भारत भी आ चुका है (1983 ऑक्टोपूसी ) ।  वह जिस किसी भी बार में जाता है  उसका बारमैन उसे नाम से पुकारता है और उसके पसंद की मार्टीनी पेश करता है  । अपने दुश्मन को भी वह अपना नाम बताता है ' माई नेम इस बॉण्ड ! जेम्स बॉण्ड ! दुनिया भर के सिनेप्रेमियों का जाना  पहचाना इयान फ्लेमिंग द्वारा रचित काल्पनिक पात्र अपने हैरत अंगेज कारनामों के कारण पिछले पचास वर्षों से दर्शकों का मनोरंजन करता रहा है। । 1962 से लेकर 2015 तक जेम्स बॉन्ड 24 फिल्मों में अवतरित हो चुका है । जेम्स की शुरुआती फिल्मों में भी स्टंट और ट्रिक फोटोग्राफी पर विशेष ध्यान दिया जाता था क्योंकि स्थानीय भाषा मे डबिंग न होने के बावजूद भी गैर अंग्रेजी भाषाई देशो में वे चाव से देखी जाती थी ।   इस वर्ष दिसंबर से बॉण्ड सीरीज की पच्चीसवी फिल्म का  फिल्मांकन आरम्भ होना था और अगले वर्ष नवंबर में यह फिल्म रिलीज़ होना थी परन्तु फिलहाल जो परिस्तिथियाँ  बनी है उसके चलते यह फिल्म संभवतः अगले वर्ष शायद ही पूरी हो पाये। अभी तक इस फ़िल्म को निर्देशित करने की जिम्मेदारी डेनी बॉयल ( स्लमडॉग मिलेनियर ) को सौपी गई थी परंतु अचानक उन्होंने निर्माता कंपनी इयोन प्रोडक्शन के साथ कुछ ' रचनात्मक मतभेदों ' के चलते फ़िल्म छोड़ दी  । इस बार संभावना थी कि बॉण्ड की भूमिका में डेनियल क्रैग को कुछ नया करते हुए देखा जा सकता है। उम्मीद थी कि अपनी एश्टन  मार्टिन कार से वे कुछ अविश्वसनीय स्टंट करते नजर आएंगे और एक बार फिर दुनिया को बचाएँगे। फिल्मों की सबसे लोकप्रिय फ्रँचाइज़ी में बॉण्ड का किरदार डेनियल क्रैग के आलावा छे अभिनेता निभा चुके है। अंतर्मुखी , भावहीन चेहरे वाला यह नायक सबसे अधिक समय तक जेम्स बॉण्ड बने  रहने का रिकॉर्ड बना चूका है। तेरह  वर्ष ! इन तेरह वर्षों में हम दो सुपरमैन , दो बैटमैन , तीन स्पाइडरमैन , स्टारशिप इंटरप्राइजेस की पूरी नई  पीढ़ी , देख चुके है। यहाँ तक की एक्स मेन ( ह्यूज जैकमैन  ) भी अपने स्टील के पंजे को खूंटी पर टांग कर कैरेक्टर रोल करने लगे है ।गौरतलब है कि  हरेक चरित्र का अपना एक काल चक्र होता है। बॉन्ड फिल्म के ताजा विवाद से यही लगता है कि डेनियल क्रैग का समय पूरा हो चुका है और वे शायद ही अगली बार  जेम्स बॉन्ड बने नजर आये ! यधपि उम्र के लिहाज से वे अपने पूर्ववर्ती जेम्स बॉन्ड में  सबसे कम उम्र के है। छप्पन वर्षीय टॉम क्रूस अपनी हालिया रिलीज ' मिशन इम्पॉसिबल - फॉल आउट में जितने चुस्त दुरुस्त नजर आए है उस लिहाज से पचास वर्षीय  क्रेग के लिए उम्मीद है कि वे एक बार और अपना ब्लैक टैक्सेडो पहने नजर आ सकते है । जेम्स बांड फिल्मों की सबसे बड़ी विशेषता है उसके कथानक के  बारे में दर्शक पहले से ही सब कुछ जानता है। पाँचों महाद्वीपों में फैले उसके  उसके  प्रशंसक  एक बात अच्छी तरह जानते है कि उनका नायक कभी मरेगा नहीं। उसकी फिल्मों का कथानक कई देशों में फैला हुआ होता है। भव्यता उसकी फिल्मों का दूसरा नाम होती है। उसके  टाइटल सांग से लेकर क्लाइमेक्स के विध्वंस तक सब कुछ भव्य और लुभावना होता है। दर्शक को हमेशा पता होता है कि  उसकी असिस्टेंट ' मनी पैनी ' हमेशा उसकी मदद करेगी , क्यू  उसके लिए आधुनिक गेजेट्स बनायगे ,  उसकी बॉस एम् उसे खतरनाक मिशन पर भेजते हुए एक बार अवश्य कहेगी  ' जिन्दा लौट कर आना बॉन्ड ! पहली ही नजर में वह नायिका की आंखों में उतर जाता  है  । जेम्स से आप भावुक प्रेमी की उम्मीद नहीं कर सकते ,  क्योंकि हर बार उसकी नायिकाएँ अलग होती है   इसलिए वह हमेशा चिरकुमार नजर आता है । 
 अब कयास ही लगाये जा सकते है कि कोई और अभिनेता  जेम्स बॉन्ड बन कर लौटेगा । क्योंकि जिस नाम की वजह से बॉक्स ऑफिस पर धन बरसता है उसे ऐसे ही नही छोड़ा जा सकता है । सनद रहे , जेम्स बॉन्ड मरता नही , जेम्स बॉन्ड  मरा नही करते वे अपने प्रशंसकों के मन मे अमर रहते है ।  


Tuesday, August 21, 2018

पराया माल अपना !

सफलता के लिए जायज तरीके आजमाना सामान्य बात  है। सफल की नक़ल भी स्वीकार्य है अगर उसे अपनी मौलिकता के साथ हासिल करने के प्रयास किये गए हो तो ।  किसी के आईडिया को चुराकर अपने नाम से चला देना इंटरनेट युग में संभव सबसे आसान काम हो गया है परन्तु इतना ही आसान उसका पकड़ा जाना भी संभव हुआ है।  दुनिया के हरेक व्यवसाय में सफलता के अनुसरण की स्वाभाविक प्रवृति रही है ।  एप्पल के कर्ता धर्ता बनने से पहले स्टीव जॉब ने एनीमेशन  कंपनी ' पिक्सर एनीमेशन स्टूडियो ' बनाई थी।  इस कंपनी ने पारंपरिक हाथ  से  बनाये एनीमेशन को छोड़कर कंप्यूटर की मदद से एनीमेशन फिल्मे बनाने की शुरुआत की । नब्बे के दशक तक एनीमेशन की दुनिया के सरताज ' वाल्ट डिज़्नी ' भी अपने एनीमेशन के लिए आर्टिस्ट पर ही निर्भर थे।  परन्तु ' पिक्सर ' की घनघोर सफल फिल्म ' टॉय स्टोरी (1995 ) ने एनीमेशन की दुनिया के नियम बदल दिये।  आज एनीमेशन की दुनिया कंप्यूटर में सिमट गई है। एनीमेशन बनाने वाली सभी कंपनियां और स्टूडियो कंप्यूटर जनरेटेड इमेजेस से सफलता के नए कीर्तिमान रच रहे है।  अपनी मौलिकता की वजह से सभी कंपनियों के पास काम की कमी नहीं है। 
पाकिस्तानी फिल्म ' एक्टर इन लॉ (2016 ) इस समय भारत में अलग  कारणों से  चर्चा में है। पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री पिछले कुछ समय से अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है ।  वर्षभर में  ब- मुश्किल   पचास फिल्मे बनाने वाला पाकिस्तानी फिल्म उद्द्योग भारतीय फिल्मों की तस्करी के चलते अपने  अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। बावजूद इसके  वहाँ की कई फिल्मे और गीत भारतीय फिल्मों के लिए प्रेरणा या कहे आसान शिकार बनते रहे है । कुछ समय पूर्व एक भारतीय  टीवी चैनल ने पाकिस्तानी सीरियल का भारत में प्रदर्शन करना आरम्भ किया था। अपनी मौलिकता और मानवीय रिश्तों की तह तक जाने की कहानियों पर आधारित इन धारावाहिकों ने खासी लोकप्रियता भी अर्जित की थी। इन धारावाहिकों ने यह भी रेखांकित किया था कि जुदा मजहब  और खींची सरहद के बावजूद सतह के नीचे सबकुछ एकसार है।  सितंबर में प्रदर्शित होने वाली टी सीरीज निर्मित फिल्म ' बत्ती गुल मीटर चालू ( शाहिद  कपूर , श्रद्धा कपूर ) पर आरोप लगा है कि वह ' फ्रेम -टू - फ्रेम ' पाकिस्तानी फिल्म ' एक्टर इन लॉ ' की कॉपी है। पाकिस्तानी निर्माता नबील कुरैशी का कहना है कि न तो उनसे फिल्म के अधिकार ख़रीदे गए न ही उन्हें क्रेडिट देने की ओपचारिकता निभाई गई।  एक तरफ हम चाहते है कि दुनिया हमारी फिल्मों को हॉलीवुड फिल्मों की तरह सर आँखों पर बैठाये दूसरी तरफ कुछ फिल्मकार इस तरह चोरी के माल पर अपनी मोहर लगाकर वाही वाही लूटना चाहते है। दोनों बाते एकसाथ नहीं हो सकती। किसी विचार से प्रेरणा लेना और किसी कहानी को ज्यों का त्यों परोस देना अलग अलग बाते है। यह पहला प्रसंग नहीं है जब किसी भारतीय फिल्मकार ने इस तरह हाथ की सफाई दिखाई है। 1985 में आई लोकप्रिय फिल्म ' प्यार झुकता नहीं ( मिथुन , पद्मिनी कोल्हापुरी ) 1977 में बनी पाकिस्तानी फिल्म ' आईना "  की सीन टू सीन और संवाद तक कॉपी की हुई थी।  


इसी तरह 1977 में पाकिस्तानी सुपरहिट पारिवारिक ड्रामा फिल्म ' सलाखे ' को हिन्दुस्तानी निर्देशक अनिल सूरी ने कार्बन पेपर लगाकर ' बेगुनाह (1991 ) के नाम से भारत में बना दिया था। राजेश खन्ना, फराह अभिनीत यह फिल्म बाप बेटी के रिश्ते पर आधारित थी। सूरी साहब ने इस फिल्म के लिए गीतकार को भी तकलीफ नहीं दी।  सीन, संवाद के साथ गीत भी हूबहू उठा लिए थे। हमारे कुछ सफल और लोकप्रिय संगीतकारों ने भी  पाकिस्तानी कलाकारों   नुसरत फ़तेह अली , हसन जहांगीर , नाजिया हसन ,  रेशमा के  प्राइवेट एलबमों से  और नई पुरानी पाकिस्तानी  फिल्मों से संगीत  उठाने में कभी शर्म महसूस नहीं की। नदीम - श्रावण , अनु मलिक , प्रीतम आदि पर लगे चोरी और सीनाजोरी के  आरोपों को इंटरनेट पर सरलता से तलाशा जा सकता है। 
सामान्य सिने दर्शक के पास कभी इतना समय नहीं रहता कि वह फिल्म को लेकर कोई शोध करे। वह शुद्ध मनोरंजन की आस में सिनेमा का रुख करता है। लेकिन जब कभी उसे पता चलता है कि जिस कहानी या गीत पर उसने वाह -वाह लुटाई थी उसका वास्तविक हकदार सरहद पार बैठा है तो उसका विश्वास अपने देश के फिल्मकार के प्रति दरक जाता है। 

Friday, August 17, 2018

थोड़ा है थोड़े की जरूरत है !



आज के दिन ( 15th August ) देशभक्ति का सूचकांक अपने उच्चतम बिंदु को स्पर्श कर रहा है। इसके पहले यह गणतंत्र दिवस पर कुलांचे भर चूका है। भारत का पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच हो तो यह आल टाइम हाई पर चला जाता है।  बाकी दिन इसकी सेहत कैसी रहती है , शायद ही किसी का ध्यान जाता हो। अचानक तीन दिन से अखबारों के विज्ञापनों में तिरंगा नुमाया होने लगा है। दो पहिया , तिपहिया चारपहिया वाहन कंपनियों , तेल मंजन शकर साबुन नमकीन  बनाने वालों ने देश को बताना आरम्भ किया कि वे भी  देश भक्त है और देशभक्ति के हवन में कुछ टका छूट देकर अपना योगदान देना चाहते है। इ कॉमर्स साइट्स ने पंद्रह  दिन पहले ही याद दिलाना आरम्भ कर दिया था कि स्वतंत्रता दिवस के पुण्य अवसर पर वे भी परोपकारी हो जाना चाहते है। अगर देश की जनता चाहती है कि वे वाकई परोपकारी हो जाये तो उन्हें इन साइट्स पर डटकर खरीदारी करना होगी। देश भक्ति के  इस हल्ले में देश के कुछ बड़े रिटेल चेन स्टोर भी पीछे नहीं रहना चाहते है। ' सबसे सस्ते दिन ' का नारा देकर वे महीने भर का स्टॉक दो दिन में बेच देना चाहते है। देश की मुख्यधारा में जुड़ने के उनके विनम्र प्रयास को संशय से नहीं देखा जाना चाहिए। मोबाइल हैंड सेट बनाने वाली कंपनिया अब इस हालत में नहीं रही है कि वे राष्ट्रीय अखबारों में फूल पेज के विज्ञापन देकर अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन कर सके।  उनका यह अधिकार उनके चीनी प्रतिद्वंदियों ने छीन लिया है। यही हाल पतंग बनाने वाले , रौशनी की लड़ियाँ बनाने वाले और फटाके बनाने वाले देसी कारीगरों का हुआ है। वे अपने चीनी भाइयों को कारोबार सौंपकर पहले ही तीर्थयात्रा पर निकल चुके है। इन लोगों से देशभक्ति की उम्मीद करना बेकार है। वैसे ही बी एस एन एल से उम्मीद करना कि  रोजाना  दामन छुड़ा कर भाग रहे अपने उपभोक्ताओं को अपने पाले में रोकने के लिए वह शुभकामनाओ के अतिरिक्त कुछ दे पाएगा। 
देशभक्ति की ज्वाला को दिन  भर धधकाने के लिए मनोरंजक चैनलों के प्रयासों की उन्मुक्त मन से सराहना की जाना चाहिए। भले ही हमें अंग्रेजों ने मुक्ति दी है परन्तु आज के दिन वे पाकिस्तान से युद्ध पर बनी कुछ सच्ची कुछ काल्पनिक फिल्मों का ' फिल्म फेस्टिवल ' आयोजित न करे तो उनपर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा कायम होने की संभावना बन सकती है। आज के दिन चैनल सर्फ़ करते समय देशवासियों के रक्त में उबाल लाने वाली फिल्मे भी नजर आ सकती है। किसी चैनल पर सनी देओल पाकिस्तान में  हैंडपंप उखाड़ते  नजर आ सकते है तो किसी चैनल पर ब्रिगेडियर सूर्यदेव सिंह और इंस्पेक्टर शिवाजीराव  वाघले प्रलयनाथ की मिसाइल के फ्यूज निकालते देखे जा  सकते है। इस ' जंगे आजादी के इस्तकबाल ' में अगर विविध भारती  और ऍफ़ एम् चैनल सुर न मिलाये तो देशभक्ति की आंच शायद मंद पड़ सकती है।  अलसुबह ' पूरब पश्चिम '  और 'उपकार ' के गीत न बजे तो समां नहीं बंधता। आज के दिन कसबे से लेकर देश की राजधानी तक से  निकलने वाले अखबारों में छपे ' सरपंच पति '  ' सांसद प्रतिनिधि के जीजाजी ' के सचित्र शुभकामना संदेशों को न पढ़ना भी घोर अपराध माना जा सकता है। जो लोग आज के दिन अपनी फेसबुक पर तिरंगा पेस्ट नहीं करते , जो लोग अपने व्हाट्सप्प पर प्रोफइल में तिरंगा या ' आई लव इंडिया ' जैसा स्टेटस नहीं डालते वे देशभक्त नहीं माने जा सकते। बदलते वक्त के साथ देशभक्ति के मायने भी बदल गए है । हमारे पूरखों में यह स्वाभाविक थी परंतु हमारी पीढ़ी के लिए यह आभासी दुनिया की ही एक ' इवेंट' बन चुकी है । रोज डे ' प्रपोज़ डे , फ़्रेंडशिप डे , वेलेंटाइन डे जैसा कोई इवेंट ! उन्मुक्त आकाश से निकलकर अब यह संकरी गलियों में प्रवेश कर गई है । हम क्या खाते , पहनते , सोंचते , पसंद करते हैं , किसे वोट देते है , किससे प्यार करते है से तय होता है कि हमारी देशभक्ति किस डिग्री की है । निश्चित रूप से हम आजादी और देशभक्ति को लेकर रास्ता भटक चुके है । ये महज दो शब्द नही है वरन हमारे अस्तित्व के कारक है । अनेकता में सामंजस्य हो , सामाजिक न्याय के लिए आग्रह हो और लोकतंत्र बगैर किन्तु परंतु के हमारी आबोहवा मे घुला हुआ  हो ,  इससे ज्यादा हमे कुछ नही चाहिए । 

Monday, August 6, 2018

चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना !

फिल्म थ्री इडियट का गीत ' बहती हवा सा था वो , उड़ती पतंग सा था वो ' पार्श्वगायक किशोर कुमार के अवसान के दो दशक बाद आया था परन्तु इस हरफनमौला व्यक्तित्व पर सटीक बैठता है। किशोर अगर उस जानलेवा हार्ट अटैक को झेल गए होते तो इस बरस (4 अगस्त ) एक कम नब्बे  के हो गए होते। अनिश्चित जीवन को ग़लतफ़हमी में अक्सर स्थायी मान लिया जाता है। तयशुदा जिंदगी जीते हुए लोग जीवन के उतार चढ़ावों को नियति मानकर खुद को खर्च करते रहते है। परन्तु कुछ होते है जो अपने सपनो को हासिल किये बगैर दुनिया को टाटा नहीं करते। किशोर का इकलौता सपना पार्श्व गायकी था और अपने आदर्श  ' के एल सहगल ' से मुलाक़ात। यह मुलाक़ात कभी हो न सकी और किशोर एक्टर बन गए। जबकि सहगल की ही तरह वे नेचुरल गायक थे। गायकी में जिस संजीदगी और अनुशासन की दरकार थी वह उनमे जन्मजात नहीं थी। खिलंदड़ और अल्हड़ता किशोर के व्यक्तित्व में ताउम्र शामिल रहे। बड़े भाई अशोक कुमार स्टार हैसियत वाले थे तो किशोर को फिल्मों में नायक के रोल आसानी से मिल गए। यह वह दौर था जब  ' कॉमेडी ' फिल्मों में फीलर का काम किया करती थी परन्तु किशोर ने अपनी चुलबुली हरकतों से खुद के लिए ' कॉमिक एक्टर ' का खिताब हासिल कर लिया था। किशोर की फिल्मे चली और बहुत चली। इस दौर में ऐसा नायक कहाँ  मिलता जो मजाकिया भी हो ,गाना भी गा सकता हो और भरपूर मनोरंजन भी कर सकता हो। अपनी फिल्मों से  उन्होंने हास्य को एक कला में विकसित कर दिया था , न्यू देहली ( 1956 ) श्रीमान फंटूश (1956 ) आशा   ( 1957 ) चलती का नाम गाडी ( 1958 ) झुमरू ( 1961 ) हाफ टिकिट ( 1962 ) पड़ोसन ( 1968 ) जैसी फिल्मे उनके अपरंपरागत चेहरे और मजाकिया हावभाव की वजह से दर्शकों को बेहद लुभाती थी। सही मायने में वे ब्रिटिश एक्टर बॉब हॉप और अमेरिकन एक्टर डेनी के का भारतीय अवतार बन चुके थे। 
किशोर की गायकी को सबसे पहले अनुभवी संगीतकार  खेमचंद प्रकाश ने पहचाना था या कह सकते है निखारा था। उन्होंने ही किशोर को उनके जीवन का पहला गीत ' जगमग जगमग करता निकला चाँद पूनम का प्यारा ( जिद्दी 1948 ) दिया था। आज इस गीत को सुनते हुए कोई भी यह अंदाजा लगा सकता है कि सहगल उनके मिजाज पर किस हद तक हावी थे। 1931 में  जर्मन फिल्म मेकर फ्रैंक  ओस्टेन द्वारा निर्देशित  अशोक कुमार और देविका रानी अभिनीत ' जीवन नैय्या ' के लिए अशोक कुमार ने गाया था ' कोई हमदम ना रहा कोई सहारा ना रहा , हम किसी के ना रहे कोई हमारा ना रहा ' यह गीत किशोर कुमार को बचपन से ही बहुत पसंद था। चूँकि यह गीत कठिन श्रेणी का था , इसमें चौदह मात्राए थी -संगीत के लिहाज से दुरूह परन्तु एक महीने घर पर रियाज करते हुए किशोर ने इसे ' झुमरू '(1961 ) में  कुछ इस तरह गाया कि आज साठ  वर्ष बाद भी इसकीताजगी और उदासी बरकरार है। 
कभी कभी लगता है कि किशोर कुमार को पिता पुत्र बर्मन का साथ नहीं मिला होता तो क्या होता ? खेमचंद प्रकाश ने किशोर की प्रतिभा को पहचाना था लेकिन उन्हे ऊंचाई पर बैठाया सचिन देव बर्मन ने। आराधना (1969 ) राजेश खन्ना के लिए लॉन्चिंग पैड मानी जाती है तो उतनी ही किशोर कुमार के लिए भी महत्वपूर्ण रही है। ' रूप तेरा मस्ताना प्यार मेरा दीवाना ' या ' मेरे सपनो की  रानी कब आएगी तू ' ऐसे गीत है जो आसानी से बिसारे नहीं जा सकते। किशोर के टैलेंट पर जितना भरोसा एस डी को था उतना ही उनके पुत्र राहुल ( आर डी ) को भी था। आर डी ने किशोर से उन लोगों के लिए भी गवा दिया जिन पर मोहम्मद रफ़ी की आवाज सूट करती थी। धर्मेंद्र ( दो चोर , ब्लैकमेल ) संजीव कुमार ( सीता और गीता , अनामिका ) शशि कपूर ( आ गले लग जा ) जीतेन्द्र ( कारवां , परिचय , जैसे को तैसा ) यही नहीं नए नवेले रणधीर कपूर , नविन निश्चल , विजय अरोरा , विनोद मेहरा , अमिताभ बच्चन , राकेश रोशन आदि भी किशोर के गीतों पर होंठ हिलाते नजर आये। 
अपनी आवाज को नायक के हिसाब से ' मोल्ड ' करने का हुनर किशोर का नैसर्गिक गुण था। कई बार उन्हें सनकी और तुनकमिजाजी समझा गया परन्तु उनके अंदर पसरी गहरी गंभीरता को कम ही लोगों ने नोटिस किया।  उनकी निर्देशित  ' दूर गगन की छाँव में ' (1964 ) उनकी मूडी और सनकी छवि के मिथक को ध्वस्त कर देती है। जो लोग मानते है कि किशोर सिर्फ प्रदर्शनकारी  गानो की वजह से ही याद किये जायेगे तो इस धारणा को तोड़ने के लिए भी पर्याप्त गीत मौजूद है। शुरूआती गीत ' मेरी नीदों में तुम मेरे ख़्वाबों में तुम (नया अंदाज 1956 ) से लेकर ' जीवन से भरी तेरी आँखे ' (सफर 1970 )  और ' बड़ी सूनी सूनी है जिंदगी '( मिली 1975 ) जैसे मधुर मद्धम आवाज से सजे गीत सदियों तक सुधि श्रोताओ के लिए मरहम का काम करते रहेंगे। 

Thursday, August 2, 2018

एक अफसाना जिसे बचाना जरुरी है

कभी साहिर ने ताजमहल को इशारा करते हुए  कहा था ' एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मजाक ! साहिर बहुत हद तक सच लिख रहे थे। उनका उलहाना इस बात को लेकर था कि मुग़ल सम्राट ने अपनी बेगम की याद में इतना भव्य मकबरा बना दिया जिसकी बराबरी दुनिया में कोई दूसरा नहीं कर सकता फिर वह अपनी जीवन संगिनी से कितना ही प्रेम क्यूँ न करता हो। साहिर के ताने के बावजूद आज भी करोडो लोग ताज को पसंद करते है। संभवतः यह दुनिया की इकलौती इमारत है जिसका रिश्ता दिल से है। ताज के अलावा शायद ही कोई  दूसरा स्थापत्य शिल्प होगा जिसे देखकर दिल धड़कता हो। शायद ही कोई दूसरा अजूबा होगा जिसे गीतों , नज्मों , कविताओं , गजलों , शायरी , कहानियों और सिनेमा में एक साथ शामिल किया गया हो। रविंद्रनाथ टैगोर ने इसे ' समय के गाल पर ठहरा आंसू ' कहा तो सतीश गुजराल ने 'संगमरमर में संगीत ' नाम दिया। अमेरिकन उपन्यासकार बयार्ड टेलर ने लिखा है कि भारत में कुछ नहीं होता तो भी अकेला ताज विश्व के पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए काफी है। 
पांच हजार साल पुरानी सभ्यता के तमगे से सजे देश में साढ़े तीन सौ साल कुछ लम्हों के बराबर है। मगर इतने कम समय में ही कोई नायब नमूना अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने लगे तो यह हम सभी के लिए शर्म की बात है। अनियोजित ढंग से फ़ैल रहा आगरा शहर , प्रदुषण उगलते कारखाने और लुप्त होती यमुना नदी ने समय के सीने पर पैर जमाए खड़े ताजमहल की नीवों को हिला दिया है। इसका रंग बदरंग होने लगा है। दीवारों पर दरारे उभरने लगी है। पर्यटकों के छूने से संगमरमर पर झाइंया पड़ने लगी है। कचरे के ढेर से उड़कर आये मच्छरों  के बैठने से जगह जगह हरे चकते उभर आये है।   दुर्भाग्य से हम समय के उस नाजुक दौर से गुजर रहे है जब प्रदुषण और असंतुलित पर्यावरण ने अपने पंजों के निशान ऐतिहासिक विरासतों पर  छोड़ना आरम्भ कर दिये है। हालात की गंभीरता को देश की शीर्ष अदालत की चिंता से भी समझा जा सकता है। ताजमहल की बिगड़ती  सेहत को लेकर सर्वोच्च अदालत ने केंद्र और उतर प्रदेश सरकार को लताड़ लगाईं है। 
इतिहास मोटे तौर पर चरित्रों , घटनाओ और प्रसंगों का विवरण देता है जो किसी देश और समाज के निर्माण या परिवर्तन में महती भूमिका अदा करते है। इतिहास मुग़ल सम्राट शाहजहाँ की तो विस्तार से चर्चा करता है मगर उनकी बेगम का परिचय देने में कंजूस हो जाता है। महज उनचालीस बरस की उम्र में दुनिया से रुखसत हो जाने वाली 'अर्जुमंद बानो ( मुमताज महल उनकी उपाधि थी ) की याद में ताजमहल न बना होता तो शायद उनका जिक्र भी न होता। मुग़लों के जिस सुनहरे दौर में शराब और शबाब का दरिया सतत बह रहा हो वहा किसी नारी के सिर्फ देह का आकर्षण कितने दिनों तक साथ दे सकता था।  
मुमताज इससे भी अधिक कुछ थी जिसकी वजह से शाहजहां ताउम्र उनके प्रेम पाश में बंधे रहे। और यही वजह रही कि  उनकी स्मृति को चिर स्थायी बनाने के लिए ताजमहल का निर्माण किया गया। ताजमहल शाहजहाँ के उदात दाम्पत्य प्रेम का चरम  बिंदु है। 
प्रेम के प्रतिक इस स्मारक को सहेजने की जिम्मेदारी से आँखे नहीं मुंदी जा सकती। इसे यूँ ही खुले आसमान और प्रदूषित वातावरण के बीच अकेला नहीं छोड़ा जा सकता है। अगर शीर्ष अदालत ने इसके लिए फ़िक्र की है तो यह पुरे देश के लिए फिक्रमंद होने का समय है। सन 1632 में इसके निर्माण से लेकर मौजूदा समय तक इसे बारह पीढ़ियों ने निहारा है। अगली बारह पीढ़िया भी इसे देख पाये ऐसे प्रयास करने ही होंगे। इतिहास की धरोहर को इतिहास होने से बचाना ही होगा। 

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...