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Thursday, January 10, 2019

आभासी दुनिया के अँधेरे !

मनोवैज्ञानिकों  के मुताबिक सेल्फियों  फेसबुक , ट्विटर और व्हाट्सप्प  पर लगातार सम्पर्क में रहने वालों ने एक तरह से खुद अपना जीवन आवेगपूर्ण मुहाने पर ला खड़ा कर दिया है। यह जीवन का वह मुकाम बन गया है जहाँ मानसिक शांति की कोई जगह नहीं है। एक तरह से हरेक व्यक्ति अपने साथ अपना खुद का लेटर बॉक्स साथ लिए घूम रहा है।
 'पहुँचते ही खत लिखना या अपनी खेर खबर देते रहना या खतो किताबत करते रहा करो जैसे वाक्य अब कोई नहीं बोलता। नई पीढ़ी को तो यह भी नहीं मालुम है कि इन शब्दों में कितनी आत्मीयता और आग्रह छुपा हुआ होता था। कुछ लिखकर उसके जवाब का  इन्तजार कितना रोमांचकारी होता था , अब बयान नहीं किया जा सकता। तकनीक ने कई ऐसी चीजों को बाहर कर दिया है जो आत्मिक लगाव की पहचान हुआ करती थी। प्रेमियों के बीच होने वाले पत्राचार ने कई लोगों को साहित्यकार बना दिया था। अपने जज्बात कागज़ पर उंडेलकर उसे प्रेमी तक पहुंचाने का रोमांच आज महसूस नहीं किया जा सकता। मिर्जा ग़ालिब ने लिखा था ' कासिद के आते आते  खत इक और लिख रखु , में जानता हु वो जो लिखेंगे जवाब में ' या फ़िल्मी गीतों में प्रमुखता से नजर आई   ' लिखे जो खत  तुझे वो तेरी याद में ' या मेरा प्रेम पत्र पढ़कर तुम नाराज ना होना ' या ' फूल तुम्हे भेजा है खत में , फूल नहीं मेरा दिल है - जैसी भावनाए आज न समझाई जा सकती न उनके समझने की उम्मीद की जा सकती है। 
 कई खूबियों वाले स्मार्ट फ़ोन ने  सबसे नकारात्मक असर जो समाज को दिया है वह है आत्म मुग्ध और आत्म केंद्रित स्वभाव।खुद की फोटो निकलना और उसे निहारना एक ऐसा जूनून बन चूका है जिसने व्यक्ति को आत्म केंद्रित बना दिया है।  यहाँ मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हुए हुई दुर्घटनाओं की बात भी बेमानी है। अकेले मोबाइल फ़ोन की वजह से हुई दुर्घटनाओं के इतने  वाकये हो चुके है कि उन्हें अब सामान्य मान लिया गया है।
 अब स्मार्टफोन की वजह से हुए सामाजिक  प्रभावों पर गौर करना जरुरी हो गया है। वह समय गया जब पूरा मोहल्ला व्यक्ति के संपर्क में रहता था परन्तु चंद लाइक और कुछ कमैंट्स की चाहत ने उसे अकेलेपन की और धकेल दिया है।  आभासी दुनिया के मित्र उसकी दुनिया बन गई है। बड़ी मित्र संख्या का दम भरने वाले अधिकांश लोगों के समक्ष इस तरह की हास्यास्पद स्थिति निर्मित होती रही है जब उनकी पोस्ट पर बिला नागा टिपण्णी करने वाले लोग उनके सामने से बगैर मुस्कुराए गुजर जाते है।   व्यक्ति क्षणे क्षणे  समाज से कटता जा रहा है परन्तु उसे इस वक्त एहसास नहीं हो रहा है। प्रदर्शन प्रियता हरेक मनुष्य की जन्मजात सहज प्रवृति रही है। सोशल साइट्स ने इसे विस्फोटक स्तर पर ला खड़ा किया है। नितांत निजी पलों को भी लोग बेखौफ इन साइट्स पर शेयर करने  से नहीं हिचकिचाते भले ही लोग उनके इस कृत्य  पर मजाक बनाते हो।  किसी अवसर विशेष पर कही और से आये संदेशों को फॉरवर्ड करते समय भी  महसूस ही नहीं होता कि इन उधार  की पंक्तियों में स्नेह और प्रेम की रिक्तता है।  उम्मीद थी कि स्मार्ट फोन दूरिया घटाने में मदद करेंगे परन्तु उनका  उल्टा ही असर होते दिख रहा है।  औपचारिकता ने  सहजता को बेदखल कर दिया है। जन्मदिन हो या और कोई विशेष अवसर अब लोग पहले से कही ज्यादा बधाइयाँ भेजते है परन्तु यह काम भी केवल इसलिए किया जाता है ताकि सामने वाले को जताया जा सके कि हमें उसकी फिक्र है। सोशल मीडिया ने हमारे लिए  इतने सारे इमोजी और स्टिकर विकसित कर दिये है कि हमें दिमाग को तकलीफ देने की जरुरत नहीं पड़ती। हर अवसर के लिए हमारे पास रेडीमेड शुभकामनाओ का भण्डार है। 
 जरुरत से व्यसन बन चुके मोबाइल फ़ोन का जीवंत  उदहारण देखना हो तो किसी रेल या  बस यात्रा को देखिये। पिछले माह भोपाल से हैदराबद की लम्बी रेल यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ था तो स्मृतियों में दो  दशक पूर्व इसी तरह दक्षिण भारत प्रवास की झलकियां स्मरण हो आई। उस दौरान हरेक यात्री के पास एक किताब जरूर होती थी।   महज एक दशक पहले तक  सफर में यात्री कुछ न कुछ पढ़ते नजर आते थे। अब बिरला ही कोई ऐसा शख्स दीखता है जिसके पास किताब हो। अब  हर झुकी  गर्दन सिर्फ अपने मोबाइल में गुम नजर आती है। ट्रैन के बाहर बदलता परिदृश्य और प्रकृति किसी को भी नहीं लुभाती। कई अध्यनो और शोध में इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि आँखों के सामने से गुजरने वाले शब्द मस्तिष्क में चित्रों का निर्माण करते है , यह काम मस्तिष्क के विकास के लिए बेहद अहम् है।  दूसरी और नन्ही स्क्रीन पर नाचते चित्र सिर्फ आँखों को थकाने के अलावा कोई सकारात्मक काम नहीं करते ,कम से कम  मस्तिष्क की सक्रियता के लिए तो कुछ भी नहीं !
   कोई माने या न माने परन्तु एक दिलचस्प  जापानी हास्य  कहावत को अमल में लाने का समय आ गया लगता  है -  ' मोबाइल फ़ोन ने आपके कैमरे को बाहर किया , आपके म्यूजिक सिस्टम को बाहर किया , आपकी किताबों को बाहर किया , आपकी अलार्म घडी को बाहर किया ! प्लीज अब  उसे आपके परिवार और मित्रों को बाहर न करने देवे ! 

Monday, February 12, 2018

वक्त रुकता नहीं कही टिक कर , इसकी आदत भी आदमी सी है

अगर गजल सम्राट जगजीत सिंह आज (8 फरवरी ) जीवित होते तो अपना अठतर वा जन्मदिन मना रहे होते। उनके जाने के सात सालों के समय पर नजर दौड़ाये तो यकीन नहीं होता कि फिल्मों से गजलों का दौर भी उनके साथ ही चला गया है। ऐसा नहीं कि लोगो ने गजल सुनना बंद कर दिया है। गजलों के शौकीन आज भी है और उनके पास बेहतरीन गजलों का खजाना पहले से कही बेहतर स्थिति में है। हिंदी फिल्मों में गजलों का चलन सिनेमा के  आरम्भ से ही रहा है।  समय समय पर गीतों के साथ गजलों का प्रयोग कुन्दनलाल सहगल के जमाने से जारी है।गीतों के साथ गजले लहर की तरह आती जाती रही।  1982 में बी आर चोपड़ा की 'सलमा आगा ,राजबब्बर ' अभिनीत फिल्म ' निकाह ' की गजलों ने पुरे हिन्दुस्तान को सुरूर में डूबा दिया । यह सुरूर ऐसा था जिसने एक पीढ़ी को गजल की रुमानियत से रूबरू  कराया था। बिरले होंगे जिन्होंने उस दौर में ' चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है ' नहीं सुना होगा। ग़ुलाम अली की हिन्दुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक और पाकिस्तानी टोन के ब्लेंड में भीगी आवाज औसत श्रोताओ को पहली बार गजल के संसार में ले गई ।  देश का शायद ही ऐसा कोई घर बचा हो जिसकी चार दीवारी के भीतर उनके कैसेट न बजे हो। ठीक इसी समय जगजीत सिंह अपनी पत्नी चित्रा के साथ अपने शिखर की यात्रा आरम्भ कर रहे थे। ' होठों से छू लो तुम , मेरा गीत अमर कर दो ' (प्रेमगीत ) ये तेरा घर ,ये मेरा घर ( साथ साथ ) लोकप्रियता की पायदान पर छलांगे भर रहे थे। यह वह मुकाम था जहाँ पहले से मौजूद फ़िल्मी गैर फ़िल्मी गजलों को  बड़ा ' एक्सपोज़र ' मिलने वाला था। जगजीत की मखमली आवाज ने गजल को ड्राइंग रूम से निकाल कर वैश्विक मंच दिलाया। होने को ग़ुलाम अली ,बेगम अख्तर ,मेहंदी हसन जैसे चोटी के गजल गायक थे ,नामचीन भी थे , उनका अपना आभा मंडल था। लेकिन जगजीत ने गजलों को उर्दू के कठिन शब्दों से मुक्त कराकर इतना  सरल कर दिया कि वे साधारण संगीत प्रेमी की समझ के  भी दायरे में आगई ।  जगजीत सिंह के जाने के बाद फिल्मों में गजलों का चलन जैसे थम सा गया है। गजले नजर तो आती है परन्तु अखबारों के कोने में। शौकीन अब भी है परन्तु उन्हें अपनी तरंग में  बहा ले जाने वाला शख्स नहीं है। ताज्जुब होता है कि कोई भी स्थापित गायक अब ग़ालिब , मीर ,फैज़ ,इकबाल ,दाग ,दुष्यंत कुमार या निदा फाजली की की अनसुनी गजलों को गाने का साहस क्यों नहीं करता ? 
ओशो के बारे में वरिष्ठ सिने समीक्षक श्री अजात शत्रु  ने टिपण्णी करते हुए लिखा था कि उन्होंने दर्शन और धर्म की क्लिष्ठ बातों को सरल शब्दों में आमजन तक पहुंचा दिया  था । यही बात जगजीत के साथ गजलों के संदर्भ में भी कही जा सकती है। जगजीत ने खुद को तराशा था और उपरवाले ने उन्हें मखमली आवाज की नियामत बख्शी । जगजीत को लगातार सुंनने वाले बता सकते है कि वह सुरमई आवाज आदमी को भीड़ में अकेला कर देती है। एक साथ रूहानी ,रूमानी अनुभव महसूस करना है तो जगजीत को सुनते रहना जरुरी है .. खुद उन्होंने अपनी एक गजल में कहा था ' वक्त रुकता नहीं कही टिक कर , इसकी आदत भी आदमी सी है ....

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...