Sunday, June 24, 2018

रिमझिम गिरे सावन !

जून का पहला पखवाड़ा गुजरते ही मानसून के आगमन की सुगबुगाहट सुनाई देना आरम्भ हो जाती है। शेयर बाजार , अर्थशास्त्री और किसान दक्षिण पश्चिम में उठे काले बादलों को देख  अपने कयासों  के घोड़ों को खुला छोड़ देते है। रेडियो सीलोन और विविध भारती अपने खजाने से वर्षा गीत निकालकर मानसून के स्वागत में जुट जाते है। कुछ टीवी चैनल जो वाकई संजीदा टाइप के गीतो के लिए देखे जाते है , अपनी प्रस्तुति में ' श्वेत श्याम ' वर्षा गीतों को शामिल कर लेते है। ' मौसमे बरसात ' के अलावा शायद ही किसी और ऋतू के लिए देश में इतने जतन किये जाते होंगे ! हिंदी और क्षेत्रीय फिल्मों में कहानी को आगे बढ़ाने के लिए , कोई ट्विस्ट देने के लिए ,  कोई सिचुएशन पैदा करने के लिए या फिर कामोद्दीपन को हवा देने के लिए बारिश का प्रयोग किया जाता रहा है। बरसात न केवल रोमांस और इमोशन का प्रतीक रही है वरन आस्था और गर्व का प्रतीक बनकर भी आती रही है। लगान (2001 ) के आरंभिक दृश्य में काले घुमड़ते बादलों का बिन बरसे गुजर जाना जहाँ गाँव वालों को निराशा में धकेल देता है वही अंत में अंग्रेज जब शर्त हारकर गाँव छोड़कर जा रहे होते है तब बरसात का बरसना उनकी विजय का उत्सव बन जाता है।  फिल्मों में वर्षा गीतों का उपयोग पांचवे दशक से ही होना आरम्भ हो गया था। यह ट्रेंड कभी अश्लील या अप्रीतिकर होते हुए या फिर कभी  सिनेमैटिक मास्टरपीस बनकर दर्शकों  को भिगोता रहा है। रसिक दर्शकों और गंभीर समीक्षकों के अपने पसंदीदा वर्षा गीत रहे है। किसी के लिए ' एक लड़की भीगी भागी सी ' ( चलती का नाम गाडी ) यादगार है तो किसी के लिए अनिल मनीषा की मासूमियत दर्शाता ' रिमझिम रिमझिम ' ( 1942 ए लव स्टोरी ) अविस्मरणीय है तो किसी के लिए ' टिप टिप बरसा पानी ' ( मोहरा ) सर्वश्रेष्ठ है। अधिकांश ' सेंसुअस ' वर्षा गीत स्टूडियो की चारदीवारी में आर्टिफीसियल बारिश में शूट किये गए है परन्तु कुछ गीतों के लिए फिल्मकारों ने बकायदा मानसून का इन्तजार किया है। इन गीतों को रियल लोकेशन पर प्राकृतिक बरसात में ही फिल्माया गया है। ऐसा ही एक गीत है जो अधिकांश फिल्म समीक्षकों की नजर से छूट गया है। 1979 में बासु चटर्जी के  निर्देशन में आई अमिताभ बच्चन मौसमी चटर्जी अभिनीत ' मंजिल ' ने वैसे तो बॉक्स ऑफिस पर औसत प्रदर्शन किया था परन्तु इसका सुमधुर गीत ' रिमझिम गिरे सावन सुलग सुलग जाये मन ' वास्तविक बरसात गीत बनकर उभरा।इस फिल्म का संगीत आर डी बर्मन ने दिया था और गीतकार थे योगेश।
 बासु चटर्जी के बारे में कहा जाता था कि वे मध्यम वर्ग के लोगों के लिए ही फिल्मे बनाते थे और उसी वर्ग से अपने किरदारों को उठाते  और रियल लोकेशन पर ही अपनी फिल्मों को शूट करते थे। मजिल ' का यह गीत उन्होंने मुंबई की प्रसिद्ध और वास्तविक जगहों पर भर बारिश में फिल्माया है। सड़कों पर जाती  आती एम्बेसडर और फ़िएट कारों के साथ नजर आती बेस्ट की बसे , आम प्रेमियों  की तरह गेटवे ऑफ़ इंडिया , मरीन ड्राइव , ओवल मैदान , चर्च गेट , विक्टोरिया टर्मिनस ,पर पानी में छपक छपक करता यह जोड़ा जिन्हे  देखकर भी अनदेखा करते लोग। न अमिताभ को कोई पहचान पाता है न मौसमी को। कही कोई नकलीपन नहीं। अमिताभ गीत की शुरूआत में जो सूट पहने होते है और मौसमी जिस शिफॉन की साडी में होती है उसी में वे पूरा मुंबई दर्शन कर लेते है। 
बैकग्राउंड में लता मंगेशकर की आवाज , मानसून के बादलों से बना गहरा उजाला , साफ़ सुथरा सा  शहर , एक गीत के कालजयी होने के लिए जरुरी सभी इंग्रेडिएंट मौजूद है। इस गीत के दूसरे वर्शन में इसे किशोर कुमार ने गाया है जो अधिकांश समीक्षकों और संगीत प्रेमियों के अनुसार लता वाले वर्शन से बेहतर बन पड़ा है। इस गीत में अमिताभ अपने दोस्त की शादी में यह गीत गाते है। अधिकांश लोगों को शायद मालुम न हो कि  जिस मित्र की शादी है वह अमिताभ के रियल मित्र अनवर है। अनवर कॉमेडी किंग मेहमूद के छोटे भाई थे  और अमिताभ ने अपने बेकारी के दिन अनवर के फ्लैट पर ही  गुजारे थे । 
रिमझिम गिरे सावन ' एक तरह से उस शहर का  सम्मान है जो एक समय में रोमांटिक होने के साथ खूबसूरत भी हुआ करता था। काफी पहले जब सड़के पानी के कारण बंद नहीं हुआ करती थी ,भीड़भाड़ कम हुआ करती थी , ट्रैफिक कम हुआ करता था ,  मुंबई जब बंबई हुआ करता था।  


Sunday, June 17, 2018

लय ताल और फुटबॉल



विश्वकप फुटबॉल के मुकाबले रूस में आरम्भ हो चुके है। आगामी  15 जुलाई तक पाँचों महाद्विपों में इस तेज और खूबसूरत से लगने वाले खेल का जूनून दूसरी गतिविधियों पर ग्रहण लगा देगा। जब आप किसी स्टार खिलाडी को गेंद से अटखेलियां करते देखते है तो सोंचने पर मजबूर हो जाते है कि यह फुटबॉल ही है या कुछ और ! वे इसे एकदम से पास नहीं करते। वे इसे थोड़ी देर दुलारते है जैसे कोई संगीतज्ञ अपने सम पर पहुँचने से पहले धुनों को  साध रहा होता है। हमारे देश में ऐसे मौके कम ही आते है जब फूटबाल का कोई मैच अनजाने ही दिख जाए। यहां मैच देखने के लिए आपको किसी ख़ास चैनल को तलाशना होता है।  क्रिकेट की तरह भारत में  यह  खेल टेलीविजन पर  सर्वसुलभ नहीं है। अगर आपने फुटबॉल का एक भी मैच नहीं भी देखा है और दोनों ही टीमें आपके लिए अपरिचित है तो भी यह खेल आपको अपने साथ बहा ले जाता है।
नब्बे मिनिट के इस खेल में रोमांच के साथ गर्व , उल्लास और निराशा के अवसर कई बार आते है। किसी भी दर्शक के लिए इन अनुभवों से एक साथ गुजरना ही इस खेल के प्रति वैश्विक दिवानगी की वजह बना है। मनोभावों के  इतने  जबरदस्त उतार चढ़ाव की खूबियों के चलते ही इस खेल पर दुनिया में किसी और खेल की बनिस्बत सबसे ज्यादा फिल्मे बनी है। अकेले हॉलिवुड में ही फुटबॉल को केंद्र में रखकर निर्मित फिल्मों और टीवी शोज को एक जीवन में देख पाना संभव नहीं है। चुनिंदा अच्छी फुटबॉल  फिल्मों के लिए फिल्म प्रेमी  जब भी गूगल से सहायता लेते है तो उसकी सैकड़ों फेहरिस्तों में दो बेस्ट फिल्मे जरूर होती है। पहली ' बेंड इट  लाइक बेकहम ' और दूसरी ' ऑफ़साइड ' . 
भारतीय मूल की केन्या में जन्मी और अब ब्रिटिश नागरिक गुरिंदर चड्ढा की रोमेंटिक कॉमेडी ' बेंड इट लाइक बेकहम ( 2002 ) एक अठारह वर्षीय पंजाबी लड़की के फुटबॉल प्रेम  पर आधारित है।  जो अपने दकियानूसी परिवार की ईच्छा के खिलाफ जाकर लोकल टीम में खेलती है। बाद में उसका सिलेक्शन टॉप लीग में होता है। अपने समय मे किंवदंती बने ब्रिटिश फुटबॉलर डेविड बेकहम के नाम और उनकी प्रसिद्द फ्री किक से  प्रेरित यह फिल्म आज भी लोकप्रिय है। 
इसी तरह ईरानी फिल्मकार जफ़र पनाही की  ' ऑफ साइड ' (2006 ) फुटबॉल पर बनी अनूठी फिल्म है। इस फिल्म में फुटबॉल का एक भी दृश्य नहीं है। ईरान में महिलाओ को फूटबाल मैच  देखने की मनाही है। इस तथ्य के बावजूद पांच  लड़किया वर्ल्ड कप क्वालीफाई  के लिए हो रहे ईरान बहरीन मैच के दौरान लड़कों के वेश में स्टेडियम में प्रवेश कर जाती है। पुलिस इन लड़कियों को पहचान कर पकड़ लेती है।  मैच खत्म होने के बाद इन्हे थाने ले जाना तय होता है। इस दौरान इन्हे एक बाड़े में रोक दिया जाता है। पुलिस वाले भी खिन्न है कि वे भी मैच नहीं देख पा रहे है। एक गार्ड गेट के सुराख से मैच देखकर आँखों देखा हाल सुनाता जाता है। एक मजेदार दृश्य में एक लड़की टॉयलेट जाने की इच्छा जताती है , चूँकि स्टेडियम में लेडिस टॉयलेट नहीं है तो पुलिस जेंट्स  टॉयलेट से लोगों को धक्के मारकर निकालती है। ऑफ साइड ' कॉमेडी फिल्म होने के बावजूद खेल का पूरा रोमांच महसूस कराती है। पनाही ने दर्शकों के शोर और कमेंट्री सूना रहे गार्ड की मदद से ही फूटबाल का माहौल रच डाला है। ईरान सरकार ने इस फिल्म को सत्ता विरोधी माना और जफ़र पनाही को छे वर्ष के लिए जेल भेज दिया था। इतना ही नहीं उन पर बीस साल तक फिल्म निर्माण पर भी रोक लगा दी गई थी जिसे बाद में अंतर्राष्टीय हस्तक्षेप के बाद हटाया गया। 
भारत में गोवा और कोलकता में ही इस खेल को विशेष रूप से  पसंद किया जाता है। देश में  फूटबाल के बड़े मुकाबलों को भी पर्याप्त मीडिया  कवरेज नहीं मिलता इसलिए आम भारतीय भी  इस खेल को लेकर उदासीन ही रहे है। यही वजह है कि बॉलीवुड का भी इस पर  ध्यान नहीं गया। प्रकाश झा के निर्देशकीय कैरियर की शुरआत करने वाली -राजकिरण , दीप्ति नवल अभिनीत  ' हिप हिप हुर्रे ( 1984 ) और जॉन अब्राहम -अरशद वारसी अभिनीत ' दे धना धन गोल ' (2007 ) के अलावा बॉलीवुड में फुटबॉल के लिए कुछ भी नहीं है। 

Sunday, June 10, 2018

अकेले हम अकेले तुम !

दर्जनों बार दोहराया हुआ मुहावरा है ' सिनेमा समाज का प्रतिबिम्ब है ' . एक नजर समाज और दूसरी सिनेमा पर दौड़ाये तो उक्त कथन और अधिक स्पस्ट हो जाता है।समाज और फिल्मों का गठजोड़ अविश्वसनीय रूप से एक दूसरे से गुथा हुआ है। कौन किसका अनुसरण कर रहा है स्पस्ट रेखांकित नहीं किया जा सकता।  हमारे आसपास संयुक्त परिवार तेजी से ख़त्म हो रहे है।  यह बदलाव कोई अचानक से नहीं आया है। वरन इतनी धीमी गति से हो रहा है कि जब इसका आधा रास्ता तय हो गया तब अचानक से एकल परिवार हमारे आसपास बड़ी संख्या में नजर आने लगे। सिनेमा के आरम्भ में फिल्मों के विषय धार्मिक चरित्र और आदर्शवादी कथानक हुआ करते थे। साठ का दशक आते आते धार्मिक आख्यान पृष्ठभूमि  में चले गए और परदे पर संयुक्त परिवार नजर आने लगा।  इन कहानियों का मुखिया एक आदर्शवादी व्यक्ति हुआ करता था और माँ नाम का चरित्र घोर ममतामयी त्याग की मूर्ति। ननद, बुआ , जेठानी जैसे पात्र भी कहानी को बढ़ाने में मदद करते थे। इस दौर में बनने वाली अधिकांश फिल्मों के निर्माता दक्षिण के थे जिनकी कहानियों के केंद्र में सिर्फ परिवार था। राजकपूर  राजेंद्र कुमार की सफल फिल्मों से आरम्भ हुआ फार्मूला जीतेन्द्र की फिल्मों तक सफलता पूर्वक चला। नब्बे का दशक आते आते देश में  ' वैश्वीकरण ' की बयार बहने लगी। परिणाम स्वरुप  भारत के मनोरंजन क्षितिज पर सेटे लाइट चैनलों की झड़ी लगने लगी। स्टार टीवी ने देसी कार्यक्रमों और पारिवारिक मेलोड्रामा से उबाये दर्शकों को हॉलिवुड पारिवारिक ड्रामा ' सांता बारबरा ' और ' बोल्ड एंड ब्यूटीफुल ' से सरोबार कर दिया। ये दोनों प्रसिद्ध शो इस बात के गवाह बन रहे थे कि परिवार नाम की संस्था अमेरिका और भारत में एक साथ बिखर रही थी।  यद्धपि अमेरिका में यह बिखराव आर्थिक आजादी के चलते तेजी से आया। इस बदलाव का रिफ्लेक्शन हिंदी फिल्मों में नजर आना था और वह पुरजोर तरीके से दिखाई भी देने लगा।  फिल्मों से परिवार और रिश्ते तेजी से गायब होने लगे।  यहां एक दिलचस्प संयोग भी है कि हिंदी फिल्मों से गायब परिवार आज भी क्षेत्रीय सिनेमा में नजर आ जाता है। 
कभी कभी ऐसा लगता है मानो टीवी और बड़े परदे की दुनिया समय के दो  अलग अलग छोर पर खड़ी  है। फिल्मों की बढ़ती लागत ने कहानियो के हॉलिवुड से आयात का शॉर्टकट सुझाया वही टीवी ने ऐसे परिवार के दर्शन कराये जो वास्तविकता से कोंसो दूर था।  रंग बिरंगे कपड़ों में लिपटे , नफरत और षड्यंत्र से भरे , करोड़ों की बात करने वाले पात्र पता नहीं भारत के किस हिस्से में पाए जाते है , लगभग हरेक मनोरंजन चैनल पर नुमाया होते है। यहां टीवी धारावाहिकों में  परिवार तो है परन्तु नकारात्मकता , अंधविश्वास , और पुरातन ख्यालों से भरा हुआ है  । ये शो इस बात का सन्देश देते नजर आते है कि संयुक्त परिवार झगडे की जड़ है। 
इस समय देश पर्यावरण , पानी  और पेड़ बचाने की जद्दोजहद में लगा है। इस अभियान में ' परिवार ' को भी शामिल कर लिया जाना चाहिए।  महानगरीय जीवन शैली , घटती मृत्यु दर और स्वास्थ के प्रति जागरूकता ने भारतियों को लम्बी उम्र का विकल्प सुझाया है। लम्बी उम्र का फायदा तभी है जब परिवार साथ हो अन्यथा बहुसंख्यक चीनी और जापानी बुजुर्ग नागरिकों की तरह एकाकी जीवन का बोझा इस समय की युवा  पीढ़ी को अपने संध्याकाल में  भुगतना होगा। इन दोनों ही देशो में अकेले रह रहे बुजुर्गो  की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है । भारत के संयुक्त परिवारों का कम होते जाना और एकल परिवार का बढ़ते जाना हमे  उसी अवस्था तक पहुंचने का संकेत दे रहा है । फिल्मे हमे पुनः संयुक्त परिवार की और लौटने के लिये प्रेरित कर सकती है या परिवार का महत्व बेहतर तरीके से समझा सकती है ।

Wednesday, June 6, 2018

मुखोटे के पीछे छुपा आदमी

एक ही मिजाज की दो खबरे है। 2016 -17 में रेलवे के आरक्षित डिब्बों में यात्रा करने वाले कुछ यात्री  कम्बल , मग ,तकिया , खिड़की की फ्रेम तक अपने साथ ले गए। इस छुटपुट चोरी से रेलवे को कुल तीन करोड़ रूपये का फटका लगा है। आम धारणा है कि आरक्षण करा कर यात्रा करने वाले लोग पढ़े लिखे और संपन्न होते है। दूसरी कहानी बेहद शिक्षित और उच्च संपन्न वर्ग के लोगों की है जो ' कोबरा पोस्ट 2  ' के स्टिंग ऑपरेशन में बेनकाब हुए।  दोनों ही परिस्तिथियों में पकडे जाने पर  किसी भी पक्ष ने अपनी पृष्ठ्भूमि पर आने वाली आंच की परवाह नहीं की। लालच ने तर्कशील लोगों के विवेक को हर लिया। टी इस लुइस ने कही कहा है ' जब कोई नहीं देख रहा हो तब भी आप संयंत व्यवहार रखते है तो इसे ईमानदारी कहा जा सकता है ' .. शॉपिंग मॉल , ऑफिस और रिहाइशी इलाकों में स्पस्ट नजर आने  वाले बोर्ड के माध्यम से याद दिलाया जाता है कि प्लीज् अपनी हद में रहिये- आप सी सी टी वी की हद में है। भले ही केमेरे चालू अवस्था में न हो परन्तु उनकी चेतावनी आम आदमी पर मनोवैज्ञानिक असर करती है। अक्सर इस प्रश्न को अरसे से तलाशा जा रहा है कि भला आदमी मौका मिलते ही क्यों स्तरहीन हरकत कर गुजरता है ? यहाँ मनोविज्ञान ही इस गुत्थी को समझने सुलझाने में मदद के लिए आगे आता है। मानवीय व्यवहार का अध्ययन करने वाले अधिकाँश चिंतकों ने मनुष्य के व्यक्तित्व को दो रंगो में बांटा है। सफ़ेद व घुसर काला। सफ़ेद रंग व्यक्ति की सरलता , रचनात्मकता , सादगी और ईमानदारी को दर्शाता है वही काला ठीक विपरीत विशेषणों को बताता है। मजबूत इच्छा शक्ति वाले लोग अपने सफ़ेद रंग को बचा लेते है परन्तु थोड़े से भी कमजोर विश्वास वाले घुसर प्रभावों के शिकार बन जाते है। उसने गलत किया तो में भी कर सकता हु ' या सब कानून तोड़ते है तो में क्यों न तोडू ? का भाव अच्छे भले आदमी को छोटा मोटा अपराध करा देता है। यही नहीं भीड़ में यही बात सामूहिकता का रूप लेकर और अधिक विकराल हो जाती है। किसी बड़े  व्यवसायी के टेक्स चोरी , किसी फिल्म स्टार की बदचलनी या किसी नामचीन  खिलाड़ी के नशे की लत के समाचार आम आदमी के अवचेतन में ' ग्लोरिफाइएड ' होकर धधकते लावा की तरह बहते रहते है।  जब भी इसे  रिसाव को मौका मिलता है यह भले आदमी से स्तरहीन आचरण करा देता है। अवचेतन की यह धारा और अधिक  ताकतवर तब हो जाती है जब टीवी स्क्रीन या बड़े परदे की छवियाँ अतृप्त इच्छाओ और आकांशाओ को ' जस्टिफाई ' करने लगती है।  रियलिटी टीवी शो ' बिग बॉस ' की लोकप्रियता का आधार ही उसके प्रतियोगियों का घटिया और स्तरहीन व्यवहार था। इस शो ने साबित किया कि बहुसंख्य दर्शक नकारात्मकता पसंद करते है। और कोई वजह नहीं कि पिछले दो तीन दशकों में  बड़े परदे पर खलनायकों के लिए विशेष भूमिकाए लिखी गई और वे पात्र नायक से ज्यादा  टिकाऊ लोकप्रियता को प्राप्त हुए।  शाकाल ' मोगेम्बो ' गब्बर - नकारात्मकता की खदान के नायब नमूने है। फिल्मों में नायक की लंबी पारी खेल चुके शीर्ष अभिनेताओं में भी ' ग्रे शेड्स ' की भूमिकाओं के लिए खासा रुझान रहा है। 
राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने अमिताभ बच्चन को एक पटकथा पढ़ने के लिए दी।  संयोग से अमिताभ दिल्ली जा रहे थे।  समय  बिताने के लिए उन्होंने वह पटकथा साथ  रख ली। कहानी इतनी  रोचक थी कि  मुंबई से  दिल्ली के सफर का पता ही नहीं चला। एयरपोर्ट पर उतरते ही बच्चन जी ने  राकेश को फ़ोन लगाया कि वे यह फिल्म कर रहे है।  इस  तरह ' अक्स ' (2001 ) परदे पर आई।  अमिताभ को  इस फिल्म के लिए ' फिल्म फेयर बेस्ट एक्टर ' का अवार्ड मिला। बुरे आदमी ( मनोज बाजपाई ) की आत्मा  अच्छे आदमी के शरीर में प्रवेश कर क्या गुल खिला सकती है इस फिल्म का कथानक था।  
सुदूर अफ़्रीकी जन जातियों में आज भी अपने घर के प्रवेश द्धार पर डरावने मुखोटे टांगने की परंपरा है। आगंतुक को स्मरण कराने के लिए कि वह अपनी बुराई और नकारात्मकता घर के  बाहर ही छोड़ आये। 


दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...