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Tuesday, January 3, 2017

किताबों का बरबाद बाजार

 हौले- हौले नोटबंदी के असर के परिणाम की व्यापकता सामने आने लगी है। रोजमर्रा और लक्ज़री चीजों की मांग में गिरावट की खबरे अब अखबार में आम हो चली है। इन पचास दिनों में टेक्सटाइल से लेकर ऑटोमोबाइल , रेस्टोरेंट से लेकर ढाबे और चाय की गुमटी तक ग्राहकी की बाट जोहते दुकानदारो की बॉडी लेंग्वेज ही बता देती है कि कुछ ठीक नही है। वैसे में प्रिंट मीडिया ( अखबार ) की सराहना करूँगा कि उसने आम जीवन को प्रभावित करने वाले ' अकारण ' आर्थिक संकट की जमकर खबर ली। बावजूद इस सबके एक महत्व पूर्ण क्षेत्र हैडलाइन नहीं बन पाया। वह है प्रकाशन उद्द्योग , या कहे किताबे। 
इंदौर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नं एक पर स्थित बुक शॉप  ए एच् व्हीलर के मालिक बता रहे थे कि आठ नवम्बर के बाद उनकी बिक्री चालीस फीसदी रह गई है।  यही हाल सस्ती आध्यात्मिक किताबे बेचने वाले गीता प्रेस की दूकान का भी हुआ है। यह हाल सिर्फ एक जगह का  नहीं वरन देश भर में  पिछले दो माह में  किताबों के बड़े आयोजनों में शिद्दत से महसूस किया गया है। google पर how demonetization affect book sale टाइप कीजिये , ऐसी दर्जनों खबरे कतार में नजर आएँगी जिन्हें  प्रमुख समाचारों में जगह नहीं मिली। भारत के उत्तर पूर्व में अगरतला में संपन्न बुक फेयर की बिक्री पिछले वर्ष की तुलना में महज 35 प्रतिशत रही। इस बुक फेयर में दिल्ली ही की तरह दुनिया भर के प्रकाशक अपने स्टाल लगाते है। यही परिणीति हैदराबाद बुक फेयर की हुई। रिपोर्ट बताती है कि इस मेले में आने वाले एक हजार लोगों में से मात्र दस लोग ही  किताबे खरीद कर घर ले गए। मंदी की इस  आंधी ने अगले माह कोलकता में होने वाले पुस्तक मेले के आयोजन पर भी  आशंका के बादल ला दिए है। 
मुद्रा की कमी ने न सिर्फ इन यदाकदा होने वाले उत्सवों पर पानी फेरा है बल्कि  दिल्ली के बरसो पुराने सेकंड हैण्ड बुक बाजार दरियागंज को भी ठंडा कर दिया है। मशहूर जे एन यू के बगल  लगने वाली सैंकड़ों अकादमिक पुस्तकों की दुकाने बंद होने की कगार पर आगई  है। 
रिज़र्व बैंक की पूर्व डिप्टी गवर्नर उषा थारोट ने ' इंडियन एक्सप्रेस 'में  संतुलित शब्दों का उपयोग करते हुए लिखा है कि सरकार को नोटबंदी का कदम पूरी तैयारी के साथ उठाना था। उनका मानना है कि सरकार के बार बार यू टर्न लेने से रिज़र्व बैंक जैसी शालीन और संजिदा संस्था पर चुटकुलों  बाढ़ आगई। 
भला कितने लोग होंगे जो चालीस बरस तक रिज़र्व बैंक के साथ रही  उषा थारोट के  दर्द से इत्तेफाक रखते है ?  

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

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