Saturday, March 31, 2018

देश का आईना : राग दरबारी

राग दरबारी ' शास्त्रीय संगीत का महत्वपूर्ण राग है। इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि संगीत सम्राट मिंयां तानसेन ने इसे बनाया था। मुग़ल सम्राट अकबर ने इसका नामकरण किया था। दरबार में गाया बजाया जाने वाला राग स्वाभाविक रूप से राग दरबारी ही कहा जायगा। इस राग के माध्यम से गायक वादक विराट या सम्राट की शान में कसीदे काढ़ते है। इस राग को मर्दाना राग भी कहा जाता है क्योंकि अमूमन इसे पुरुष ही साधते है।  यह राग सबसे मधुरतम माना जाता है क्योंकि प्रशंसा या स्तुति में प्रयोग होने वाले शब्द प्रायः कोमल होते है। गजलों और सैंकड़ों हिंदी फिल्मों के गीत इसी राग पर आधारित है - ' हम तुम से जुदा होके मर जाएंगे रो रो के ' ( एक सपेरा एक लुटेरा ) ' सुहानी चांदनी राते हमें सोने नहीं देती -( मुक्ति ) ' देखा है पहली बार साजन की आँखों में प्यार -( साजन ) ' पग घुंघरू बाँध मीरा नाची थी -( नमकहलाल ) जैसे  कुछ लोकप्रिय गीत है। 
1965 में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर श्री लाल शुक्ल उतर प्रदेश के कई जिलों में पदस्थ रहे थे। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के रूप में उन्हें ग्रामीण समाज और व्यवस्था में व्याप्त भ्र्ष्टाचार , भाई भतीजावाद , रिश्वत , सत्ता का संघर्ष , जातिवाद जैसी समानांतर व्यवस्था को नजदीक से देखने का मौका मिला।  इन अनुभवों के आधार पर उन्होंने दर्जनों कहानियां लिखी और उन्हें एक कड़ी में पिरोकर ' राग दरबारी ' जैसे महान व्यंग्य उपन्यास को आकार  दिया। इस बरस 2018 में यह उपन्यास अपने उदभव के पचास वर्ष पूर्ण कर रहा है। किसी भी साहित्यिक रचना का सौ पचास वर्ष की अवधि को पार कर जाना सामान्य बात है। परन्तु ' राग दरबारी ' के लिए यह आधी सदी इसलिए उल्लेखनीय है कि उपन्यास में वर्णित घटनाएं आज भी जस की तस घटित हो रही है। उपन्यास जब लिखा जा रहा था तब वह काल्पनिक नहीं था। वह इक्कीसवी सदी के वर्तमान की भविष्यवाणी थी। इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है -इसे किसी भी पन्ने से पढ़ना आरम्भ किया जा सकता है। कई साहित्यकार इसे  'आधुनिक महाभारत 'भी कहते है। उपन्यास का कथानक शिवपाल गंज नाम के गाँव में घूमता है। यहां के वासी अपने आपको ' गंजहे ' कहलाने पर गर्व करते है। इस उपन्यास से गुजरते हुए पाठक को महसूस होता कि भारत के हर शहर , हर कसबे में एक शिवपालगंज है। 
राग दरबारी का कथानक ताजा ताजा स्वतंत्र हुए भारत की आकांक्षाओं और आदर्श सपनो के साथ चलती विसंगतियों का वर्णन करता है। गिरते नैतिक मूल्य , राजनीति का पतन , संसाधनों की बन्दर बाँट , शोषित और शोषक की रस्साकसी , गबन , घोटाले, शिक्षा , चरित्रहनन ,आदि का चुटीला वर्णन करते हुए रागदरबारी असली भारत दिखाता है। नब्बे के दशक में ' दूरदर्शन ' ने सरकारी नियंत्रण में होने के बाद भी इस उपन्यास को धारावाहिक के रूप में प्रस्तुत किया था।  यह बहुत साहस की बात थी। आज किसी भी सरकार से इस तरह के ' दुस्साहस ' की अपेक्षा नहीं की जा सकती। ओमपुरी ने इस धारावाहिक में सूत्रधार ' रंगनाथ ' की भूमिका निभाई थी। अन्य भूमिकाओं में आलोक नाथ , राजेश पूरी , सुधीर दहलवी , मनोहर सिंह एवं जरीना वहाब थे। 
राग दरबारी हर काल में सामयिक है। नई  कहानियों का रोना रोने वाले फिल्मकारों के लिए इस उपन्यास में असीम संभावनाए है। भारतीय दर्शक पलायनवादी सिनेमा / टेलीविज़न का आदी हो चूका है। विसंगतिया रोजाना घटित हो रही है और दर्शक आज भी सिल्क , शिफॉन और स्विट्ज़रलैंड में खोया हुआ है। दर्शकों को आधुनिक समय की कड़वी हकीकतों से परिचित कराने के लिए ' राग दरबारी ' से बेहतर माध्यम नहीं हो सकता।  
@jnrajneesh

Monday, March 26, 2018

महानायक की उलझन

अमिताभ बच्चन ने अपने जीवन में बहुत उतार चढ़ाव देखे है। वे दिवालिया होने की कगार से वापस लोटे है। एक समय शिखर पर होने के बाद उन्होंने बेरोजगारी भी झेली है। राजनीति को केंद्र में रखकर बनी फिल्म ' इंकलाब ' के लिए उन्होंने प्रतिदिन एक लाख रूपये की फीस पर काम किया है जो उस दौर (1984 ) में बड़ी खबर थी। ' सत्ते पे सत्ता ' फिल्म के लिए राज सिप्पी ने उन्हें फीस न देकर एक बँगला भेंट किया था जिसे हम आज ' प्रतीक्षा ' के नाम से जानते है। उन पर बोफोर्स तोप दलाली का आरोप भी लगा था जिसे उन्होंने लम्बी कानूनी लड़ाई से धोया। बचपन से ही वे सत्ता के निकट रहे है। श्रीमती इंदिरा गांधी से लेकर लगभग सभी प्रधान मंत्रियों से उनके नजदीकी संबंध रहे है। चाहे थोड़े समय के लिए प्रधान मंत्री  बने इंद्र कुमार गुजराल हो या देवेगौड़ा। सिर्फ विश्वनाथ प्रताप सिंह से उनकी कभी नहीं बनी। वे मृत्यु के निकट जाकर भी लोटे है। 
अपनी फिल्मों से अमिताभ ने ' एंग्री यंग मेन ' का नाम कमाया था और अपनी जिजीविषा से ' महानायक ' का। अब बरसों बाद उन्हें गुस्से में देखा जा रहा है। इस बार उनका गुस्सा स्क्रीन पर नहीं वास्तविक जिंदगी में फूटा है। सदी के महानायक इसबार ' कॉपीराइट एक्ट 1957 ' की कुछ शर्तों से नाराज है। इस अधिनियम के अनुसार किसी भी लेखक या रचनाकार की मृत्यु के 60 वर्ष बाद उसकी किसी भी कृति पर उस लेखक या उसके वारिस का व्यक्तिगत अधिकार नहीं रह जाता। कॉपीराइट की शर्ते अलग अलग देशों में अलग अलग है।  ब्रिटेन में यह अवधि 70 साल की है तो यूरोपियन देशों में 95 साल की व् अमेरिका में सौ वर्षों की। अमिताभ के पिता डॉ हरिवंशराय बच्चन की समस्त कृतियों ( मधुशाला सहित ) शेक्सपीअर के नाटकों का हिंदी अनुवाद  के कॉपीराइट इस समय महानायक के पास है। भारतीय कॉपीराइट अधिनियम के अनुसार अमिताभ को इन रचनाओं पर से अपना अधिकार छोड़ना होगा। डॉ बच्चन की अधिकाँश रचनाए भारत के अलावा अन्य विदेशी भाषाओ में अनुदित होकर बड़ी मात्रा में रॉयल्टी कमाती है। अमिताभ के नजरिये से इस महान  साहित्यिक विरासत को गंवा देना भावनात्मक नुक्सान ज्यादा है। 
यहाँ एक प्रसंग का उल्लेख करना जरुरी है जो दर्शाता है कि अमिताभ अपनी विरासत को लेकर कितने संवेदनशील है। 2012 में  ' गूगल ' की टीम ने अमिताभ से मुलाक़ात कर डॉ बच्चन की समस्त रचनाओं को ' पब्लिक डोमेन ' पर डालने की इजाजत मांगी थी परन्तु उन्हें कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला। अमिताभ अपने पिता की धरोहर के नैसर्गिक वारिस है।  उनका उग्र हो जाना स्वाभाविक भी है। परन्तु आज जिस मुकाम पर वे खड़े है वहां उनसे  विशाल उदार व्यक्तित्व की अपेक्षा की जाती है। महानायक को विलियम शेक्सपीअर , फ्रेंज काफ्का , सर आर्थर कॉनन डायल , ओ हेनरी , एच् जी वेल्स ,जैसे उदाहरणों पर गौर करना चाहिए जिनका साहित्य ' प्रोजेक्ट गुटेनबर्ग '( gutenberg.org ) जैसे पब्लिक डोमेन पर सारी दुनिया को मुफ्त में सहज उपलब्ध है। अगर डॉ बच्चन इस कतार में शामिल होते है तो यह हरेक भारतीय के लिए गर्व की बात होगी। 
महानायक उम्र के इस पड़ाव पर भी सक्रिय है और भरपूर कमा रहे है। अगर वे रॉयल्टी के मोह को त्याग देते है तो उनके  ' डाई हार्ड ' प्रशंसकों में उनका कद और बड़ा हो जाएगा। इस दिशा में उनका पहल करना एक मिसाल बन सकता है। परदे पर सर्वहारा की लड़ाई लड़ने वाले अमिताभ को ' स्वार्थी ' बनते देखना कोई  पसंद  नहीं करेगा।

Wednesday, March 21, 2018

रुक जाना नही तू कही हार के ...

तंदरुस्त रहना उतना ही स्वाभाविक है जितना किसी बीमारी  से पीड़ित होना। हमारे सारे प्रयास स्वस्थ बने रहने के लिए होते , फिर भी हम किसी न किसी बिमारी की चपेट में आ ही जाते है। जीवन में बहुत कुछ हमें नियंत्रण में लगता है परन्तु असहायता का अहसास तब होता है जब हमें पता चलता है कि अंदर ही अंदर कोई रोग हमारी सजगता को धता बताकर जड़े जमा रहा है। हमारे प्रियजन या हमारे नायक जब किसी रोग से ग्रसित होते है तो हमारे पैरो तले  जमीन खिसक जाती है। हमने अप्रितम सौंदर्य की देवी मधुबाला को उस बीमारी से घुलते  देखा जिसका निदान आज एकदम सामान्य है। हमने दिलीप कुमार की स्मृति को ज्वार भाटे की तरह आते जाते देखा। किंवदंती बन गए ट्रेजेडी किंग की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह है कि जीवन की संध्या में उनकी सारी स्मृतियाँ उनका साथ छोड़ गई। अब वे किसी को पहचान नहीं पाते। लाखों लड़कियों को अनूठा हेयर स्टाइल देने वाली साधना एक ऐसी बीमारी से ग्रस्त हुई जिसने सबसे पहले उनकी बेहद सुन्दर आँखों को अपना शिकार बनाया। जिन्हे देखकर ही दर्शकों में सिहरन दौड़ जाया करती थी वे खलनायक प्राण ऊंचाई पर पहुँचते ही कांपने लगते थे। जिनकी फिल्मे थियेटर से उतरने का नाम नहीं लेती थी वे राजेंद्र कुमार , करियर के शिखर  पर शादी के लिए फिल्मों को नकार देने वाली नूतन , नेहरूजी के कहने पर आजीवन सफ़ेद कपडे पहनने वाली नरगिस- इन सभी को हमने कैंसर से हारते देखा है। सदाबहार देव आनंद और हमारे प्रिय 'जानी ' राजकुमार भी असाध्य बीमारी से पीड़ित थे। 
हमारी त्रासदी यह है कि हमारे अवचेतन में ' हैप्पी एंडिंग ' गहरे से चस्पा हो गया है। हम अपने नायकों को अंत में मुस्कुराते लौटते देखना पसंद करते है। सिल्वर स्क्रीन पर भी उनका बिछोह हमें उदास कर जाता है। जब रियल लाइफ में उनके साथ कुछ अनसोचा गुजरता है तो हम बैचेन हो जाते है। हम भूल जाते है कि वे भी उसी मिटटी के बने है जिसने हमें भी गढ़ा है। हमने बेहद सुंदर मनीषा कोइराला , कनाडाई मूल की लीजा रे और हॉटशॉट क्रिकेटर युवराज सिंह को मौत के पंजों से वापस लौटते भी देखा है।इन लोगों के बारे में अक्सर सुनने को मिलता है कि ये लोग अपनी जीवटता और ' विल पावर ' की बदौलत वापस लोटे है।ये लोग अब सामान्य जीवन जी रहे है। यह तथ्य कई लोगों को प्रेरित कर रहा है।  यहां यह भी गौरतलब है कि साधन बिना विलपावर ज्यादा देर नहीं चल सकता।   अभी हवा में खबर है कि इरफ़ान खान भी किसी घातक बीमारी की चपेट में आगये है। शायद प्रकृति हम जैसों को बताना चाहती कि उसकी नजर में आम और ख़ास एक समान है।
 हमारे नायकों को होने वाली बीमारी का एक उजला पक्ष यह भी है कि आम लोग उस बीमारी  को लेकर तात्कालिक रूप से जाग्रत हो जाते है। ठीक वैसे ही जैसे ' तारे जमीन पर ' के बाद सारा देश ' डिस्लेक्सिआ ' को लेकर बहस करने लगा था या ठीक वैसे ही हॉलीवुड फिल्म ' रेन मेन ' के बाद दुनिया मानसिक रुग्ण रोगियों के प्रति एकदम से विनयशील हो गई थी। 
हास्य अभिनेता जिम केरी की सफलतम फिल्म ' ब्रूस ऑलमाइटी '(2003 ) दुःख सुख के दर्शन को दिलचस्प तरीके से समझाने का प्रयास करती है। नायक ब्रूस अपनी समस्याओ के साथ दुनिया की तकलीफे भी हल करना चाहता है।  भगवान् नायक को अपनी शक्तियां सौंप कर सात दिन के लिए छुट्टी पर चले जाते है। ब्रूस लाख जतन  करता है परन्तु किसी को भी खुश नहीं कर पाता।  उलटे हालात  बिगड़ जाते है। अंत में उसे समझ आता है कि महज दैवीय शक्तियों के भरोसे जीवन नहीं चलता मनुष्य को अपनी समस्याओ से खुद ही दो चार होना पड़ता है। 
विफलताओं , समस्याओ और बीमारियों का एक ही निदान है कि भावुकता को दर किनार कर  इनका साहस के साथ सामना किया जाए। 
 हाल ही जुदा हुए भौतिक वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग रील और रियल लाइफ दोनों में ही अपनी जीवटता से दुनिया को प्रेरित करते रहे हैं ।

Wednesday, March 14, 2018

यह फिल्म कभी नहीं बनेगी !!

बॉलीवुड में नई  फिल्मों की घोषणा होना रूटीन है। परन्तु किसी बायोपिक का एलान ज्यादा लोगों का ध्यान आकर्षित कर लेता है। फिल्मों का यह जॉनर इसलिए भी दिलचस्पी जगा देता है कि मौजूद या गुजर चुकी विख्यात या लोकप्रिय हस्ती के वास्तविक जीवन को दर्शक उत्सुकता से देखना चाहता है। दर्शक यह भी जानना चाहता है कि जो एक्टर इस पात्र को निभा रहा है वह किस हद तक उस चरित्र की त्वचा में उतरा है। करण जोहर ने अपने बैनर धर्मा प्रोडक्शन के तले ' ओशो ' बायोपिक बनाने की घोषणा की है। इस खबर पर प्रतिक्रिया देने से पहले ' ओशो रजनीश ' को जान लेना जरुरी है। 
1931 में मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गाँव में जन्मे और गाडरवाड़ा में आकार लेने वाले इस व्यक्तित्व ने दुनिया में अपनी अलग  पहचान बनाई। शानदार वक्ता , दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर रजनीश  , फिर आचार्य रजनीश  , फिर भगवान् रजनीश और अंत में ओशो। रजनीश ने  हरेक धर्म के हर पहलु की सरल व्याख्या की  , हिन्दू धर्म की कट्टरता के विरोधी रहे , हर मौजूद धर्म  में कमिया गिनाई , धार्मिक पाखण्ड का मजाक उड़ाया , ध्यान और अध्यात्म को प्रोडक्ट की तरह बांटा , सर्वहारा और बहुसंख्यक वर्ग को कभी उपलब्ध नहीं हुए। उनके अनुयायी हमेशा उच्च वर्ग के भारतीय  और भोतिक जीवन से ऊबे हुए संभ्रांत  विदेशी रहे। उनके शिष्यों में प्रमुख नाम बॉलीवुड के महेश भट्ट , परवीन बॉबी , विनोद खन्ना अध्यात्म के ब्रांड एम्बेसडरकी तरह थे । सम्भोग से समाधि उनकी दार्शनिक विचारधारा का शुरूआती पहलु था। भारत के पुणे से लेकर अमेरिका के ऑरेगोन को ' रजनीशपुरम ' में बदल देने तक  , एक सौ रॉल्स रॉयस के लवाजमे को साथ लेकर चलने वाले  , तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन को चेलेंज कर दने की घटनाओ के बीच अपनी ही सचिव माँ आनंद शीला द्वारा करोडो डॉलर की हेराफेरी और अमेरिका से निष्काषित इस धर्म गुरु को इक्कीस से ज्यादा देशों ने राजनीतिक शरण देने से इंकार किया। अंततः भारत वापसी , वही पुणे आश्रम फिर फैलने फूलने लगा , आश्रम के फ़ूड कोर्ट का मेनू कार्ड गिनीस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल वजह एक सो पचास देशों का भोजन उपलब्ध कराना था । राजनेताओ से सीधा पंगा लेना रजनीश की फितरत में था। जनता सरकार के प्रधानमंत्री  मोरारजी देसाई हमेशा उनके टारगेट पर रहा करते थे। रजनीश से खुन्नस निकालने के लिए उन्होंने जमीन खरीदने के नियम इतने कड़े कर दिए थे कि पुणे आश्रम के विस्तार के लिए रजनीश मुंह मांगे दाम पर एक फ़ीट जमीन नहीं खरीद पाए जबकि उस दौर में उनके तीस हजार विदेशी भक्त भारत में टिके हुए थे। 
 अपनी सम्मोहक आवाज और सदा एक ही पिच पर प्रवचन देने की शैली ने लाखों को मोहित किया। गूढ़ विषयों पर अधिकार पूर्वक सन्दर्भ सहित बोलना उनकी विशेषता थी। उन्होंने कभी विवाह नहीं किया परन्तु उनके ही शब्दों में उन्होंने पचास वर्ष की उम्र में  ' दो सौ वर्षों का यौन सुख भोग लिया था । 
ऐसे रजनीश पर करण बायोपिक बनाना चाहते है। करण की काबलियत पर कोई शुबहा नहीं है परन्तु तीन घंटे की समय सीमा में रजनीश के जीवन के उतार चड़ाव और उनका बौद्धिक  समेटना आसान नहीं है। जब विवाद का ही दूसरा नाम रजनीश हो तो यह काम और मुश्किल हो जाता है। वैसे भी हम जिस युग से गुजर रहे है वहां तिल का पहाड़ और राइ का ताड़ बनने में देर नहीं लगती। करण अपनी ही फिल्म ' ऐ दिल है मुश्किल ' में शिवसेना के सामने घुटने टेक चुके है फिर भला वे किसके दम पर उस रजनीश को फिल्मा पाएंगे जिन्हे स्थापित मान्यताओं को तोड़ने में मजा आता था , राजनेताओ और धार्मिक पाखंड पर तंज करना जिसकी स्वाभाविक आदत थी। फिल्मों से जुड़े आर्थिक जोखिम की समझ रखने वाला सामान्य व्यक्ति भी अब समझ सकता है कि इस तरह की फिल्म बनाना जान माल दोनों के लिए खतरनाक है। यह फिल्म कभी नहीं बनेगी। करण जौहर का यह ऐलान सनसनी पैदा करने और सुर्खियां बटोरने  से ज्यादा कुछ नहीं है। 

Sunday, March 4, 2018

कमल हासन -मुस्कुराता कमल

हिंदी भाषी दर्शको के लिए कमल हासन का नाम अब नया नहीं रहा। परन्तु ठीक सेंतीस साल पहले (1981) जब ' एक दूजे के लिए ' रिलीज़ हुई थी तब स्टाइलिश मूंछ और मासूम से चेहरे वाले इस अभिनेता ने हिंदी दर्शकों को दिवाना बना दिया था। भाषाई दिवार और सीमित संचार  माध्यम की वजह से  बहुत काम लोग जानते थे कि हिंदी फिल्मों में अपनी पारी आरम्भ करने वाला यह नैसर्गिक अभिनेता इस हिंदी फिल्म के साथ अपने फ़िल्मी सफर की सौवी फिल्म कर रहा है। एक दूजे के लिए ' कमल की ही 1978 में बनी तेलुगु फिल्म का रीमेक थी। चार वर्ष की उम्र से कैमरे का सामना कर रहे कमल हसन ( कुछ लोग हासन  भी लिखते है )  बहुमुखी प्रतिभा के धनी है। उनके नाम के साथ एक्टर , डायरेक्टर , प्रोडूसर , गीतकार , स्क्रीन राइटर , आसानी से चस्पा किया जा सकता है। तीन नेशनल अवार्ड और उन्नीस फिल्मफेयर अवार्ड उनके नाम के साथ लगे  विशेषणों को सार्थक करते है। करन थापर के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने अपने नाम में जुड़े हासन शब्द की व्याख्या करते हुए बताया था कि यह मुस्लिम नाम नहीं है। हासन संस्कृत के हास्य से बना है। उनके नाम का मतलब होता है ' मुस्कुराता कमल  .  
भारत में ' सिनेमाई संस्कृति ' के अभाव के चलते गैर हिंदी भाषी अच्छी  फिल्मों को भी राष्ट्रीय स्तर पर दर्शक तब तक नहीं मिलते जब तक कि वे फिल्मे किसी बड़े पुरूस्कार के लिए नॉमिनेट नहीं हो जाती। कमल की अधिकांश बेहतरीन तमिल , तेलुगु  फिल्मे हिंदी दर्शको की पहुँच से बाहर रही है। उनकी दर्जन भर हिंदी या हिंदी में डब हुई फिल्मे ' टिप ऑफ़ द आइसबर्ग ' कही जा सकती है। चरित्र में अंदर तक उतर जाने के  जुनून ने  कमल को आलोचना का भी सामना कराया है। ' अप्पू राजा ' के बोने पात्र द्वारा हिंसा या  ' हिन्दुस्तानी ' के बुजुर्ग द्वारा भृष्ट सरकारी मुलाजिमों की ह्त्या के प्रसंग को समीक्षकों ने तीखे स्वर में नकारा। 
फ्रांस के सर्वोच्य सम्मान ' द नाईट ऑफ़ द आर्डर ऑफ़ आर्ट्स एंड लेटर्स ' से सम्मानित दक्षिण के इस सुपर स्टार को विविध भूमिकाओं को करने के साहस के लिए भी आलोचकों के तंज झेलने पड़े है। उनके बारे में कहा जाता है कि वे एक्टिंग कम और स्वांग ज्यादा करते है। समीक्षक उनकी खूबियों में  आँखों और चेहरे को उनकी सबसे बड़ी ताकत मानते है। ' सदमा ' (1983 ) के एक दृश्य में जब नायिका उन्हें अपने साथ हुए दुराचार के बारे में बताती तब कमल अपनी बेबसी और गुस्सा सिर्फ आँखों से ही व्यक्त कर देते है। ' सागर (1986 ) में अमीर दोस्त के लिए अपने प्यार का त्याग करते हुए आप उन्हेंसदैव याद रख सकते है। । 1987 में आई उनकी ब्लैक कॉमेडी ' पुष्पक ' को भला कौन भूल सकता है।  होने को यह फिल्म दक्षिण भारत से थी परन्तु दुनिया की सभी भाषा में इसे समझा जा सकता था। यह साइलेंट फिल्म थी।  इस तरह की फिल्म करने का साहस सिर्फ कमल हसन ही कर सकते थे। फिल्म में डायलॉग न हो तो चेहरे और आँखों से ही बात को आगे बढ़ाया जा सकता है। सर्वश्रेष्ठ में विश्वास करने वाला यह एक्टर अपनी भूमिकाओं को लेकर काफी संवेदनशील रहा है। अपनी भूमिकाओं से दर्शकों को  किसी और भारतीय एक्टर ने इतना नहीं चौकाया जितना कमल हसन ने चौकाया है।  हॉलीवुड फिल्म ' मिसेज डॉउट फायर ' के भारतीय संस्करण ' चाची 420 ' में महिला का किरदार   जिस सुंदरता और शालीनता से उन्होंने निभाया है वह बेमिसाल है। जहाँ डबल और ट्रिपल रोल किसी एक्टर के लिए मील के पत्थर होते है वहां कमल ने ' दशावतरम ' में दस भूमिकाओं में खुद को उतार कर अन्य अभिनेताओं के लिए असंभव चुनौती की लकीर खींच दी है। यही नहीं उनके द्वारा किये गए कई डबल रोल भी किसी अन्य एक्टर के लिए खासे चुनौतीपूर्ण रहे है। अपने समकालीन अभिनेताओं के लिए कमल ने ऐसे मानक स्थापित कर दिए है जिन्हे छूना मात्र ही उल्लेखनीय हो जाता है। 
कमल हसन अभिनीत सिर्फ उल्लेखनीय फिल्मों की चर्चा के लिए यह कॉलम बहुत छोटा है। 
 नित नयी भूमिकाओं में खुद को उतार देने वाले कमल प्रेम के मामले में थोड़े बदकिस्मत रहे। वे एक नारी से कभी प्रेम नहीं कर पाये। उन्होंने तीन विवाह किये और तीनों की परिणीति तलाक के रूप में हुई। वाणी गणपति , सारिका , और गौतमी इस गतिमान एक्टर के जीवन में ठहर न सकी। हाल ही में कमल नयी भूमिका में सामने आये है। वैसे फिल्मों से इतर सामाजिक  रूप से सक्रियता के संकेत उन्होंने ट्वीटर पर अपनी मुखरता से महसूस कराना काफी पहले  आरम्भ कर दिए थे। दक्षिण के सितारों के फैन क्लब सिर्फ आभासी दुनिया में सक्रीय नहीं होते वे वास्तविकता में भी अपनी उपस्तिथि दर्ज कराते है।  कमल हसन दक्षिण के पहले सितारे है जिन्होंने अपने फैन क्लब को सामाजिक कल्याण के कामों से  जुड़ने को प्रेरित किया है। कमल समाज को शायद कुछ वापस लौटाना चाहते है , इसीलिए उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी ' मक्कल निधि मायम ' की शुरुआत की है।सामजिक न्याय के इकलौते अजेंडे से आरम्भ होने वाली कमल हसन की  पार्टी ने मौजूदा राजनीतिक परिद्रश्य में फ़िलहाल तो  हलचल मचा दी है। मेहनत से तराशी गई फिल्म की स्क्रिप्ट और अनसोची घटनाओ और पल पल बदलती परिस्तिथियों से लबरेज राजनीतिक राह में जमीन आसमान का फर्क होता है।  दक्षिण भारत की आबो हवा अब तक तो  राजनेता बन रहे फ़िल्मी सितारों को सूट करती रही है। कमल अपनी इस नई  भूमिका को कितना प्रभावशाली बनाते है देखना दिलचस्प होगा। 

एक नायिका की मौत का उत्सव मनाता मीडिया

समय से पहले होने वाली किसी की भी मृत्यु प्रायः हमें स्तब्ध कर जाती है। इस देश में क्रिकेट और फिल्मों  के लिए जुनूनी हद तक जूनून है। ये दोनों ही क्षेत्र ऐसे है जिनके नायको की हर गतिविधि  पर अवाम की निगाहें उत्सुकता से जमी रहती है। यहाँ होने वाली सामान्य गतिविधि का भी  कैमरे  की नजर से गुजरना रस्म माना जाता है। सुपर सितारा श्रीदेवी का आकस्मिक अवसान सामान्य घटना नहीं थी। ऐसे में टीवी मीडिया का इस घटना पर टूट पड़ना स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। परन्तु मीडिया ने खबर को इस तरह से ट्रीट किया मानो यह ब्रम्हांड की इकलोती घटना हो। बाथटब में बैठा एंकर या स्टूडियों में बाथरूम के दृश्य कल्पना से परे थे।  श्रीदेवी के अपने सौतेले पुत्र से कैसे सम्बन्ध थे या उनका पुनर्जन्म हो चूका है जैसी खबरे हैडलाइन में आ रही थी। 
आम लोगों की आलोचना में आये समाचार  प्रसारण का यह पहला वाकया नहीं था। समाचार के नाम पर ' भुत  प्रेत ' रावण की लंका ' दो हजार के नोट में लगी माइक्रो चिप ' जैसे एक्सक्लूसिव पर दिन भर ख़बरों का स्क्रॉल चलाने वाला मीडिया आखिर हमें कहाँ ले जाना चाहता है ? जिन लोगों की स्मृति में अमेरिकी इतिहास के सबसे बड़े आतंकी हमले ' ट्विन टावर ' के ध्वस्त होने की यादे बरकरार है उन्हें उस वक्त के अमेरिकी टीवी प्रसारण की क्वालिटी और कंटेंट भी याद होंगे। 9 /11 के नाम से चर्चित इस हादसे ने लगभग तीन हजार जीवन लील लिए थे। उस समय अमेरिकी टीवी चैनलों ने लगातार 48 घंटे तक बगैर एक भी कमर्शियल ब्रेक लिए प्रसारण किया था। किसी भी मृतक का फोटो उसकी राष्ट्रीयता , जाति पर कोई बहस नहीं हुई। किसी भी न्यूज़ रीडर या एंकर ने इस्लाम या मुसलमानों के खिलाफ नफरत का एक शब्द नहीं कहा जबकि घटना के कुछ घंटों बाद ही लादेन का नाम सामने आगया था। यह भी तब जबकि अमेरिकी सरकार  ने उन्हें किसी प्रकार का निर्देश नहीं दिया था। अपने देश और समाज के लिए अमेरिकी टीवी मीडिया की इस जिम्मेदारी की सराहना आज भी की जाती है। विकट  विपरीत परिस्तिथि में मीडिया का शालीन व्यवहार मिसाल बनता है।  अफ़सोस भारतीय मीडिया इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा। 
एक दो अपवादों को छोड़ कर फटाफट न्यूज़ और सास बहु के किस्सों और धारावाहिकों की अनर्गल गॉसिप से पटा टीवी शायद ही कभी अपने क्वालिटी कंटेंट पर फोकस करता नजर आया है। अधकचरे ज्ञान से लबरेज रंगी पुती मशीनी एंकर समाचार के नाम पर सनसनी ज्यादा परोसती है। रेडियो के दौर में देवकीनंदन पांडे और बीबीसी के मार्क टूली को सुन चूका दर्शक कैसे इस तरह के अत्याचार को सहन कर रहा है, कल्पना ही की जा सकती है। समाचारों की हैडलाइन के भी प्रायोजक ढूंढ लेने वाले चैनल क्यों नहीं अपने कुछ संवाददाताओं को भारत भ्रमण पर भेज देते ? उन्हें वे खबरे मिलेगी जो इस अविश्वश्नीय भारत के कोने कुचाले में रोज घटती है। जिन्हे कोई  माध्यम नहीं मिल पाता। टीवी को   वे वास्तविक  लोग मिलेगें जो महानगर की आभासी जिंदगी से उलट जीवन की हकीकतों का रोजाना सामना कर रहे है। नैतिकता और सदाचारिता की वे नजीर मिलेगी जो किसी किताब तक अब तक नहीं पहुंची है। 
श्री देवी का यु अचानक चले जाना दुखद है।  हम उनके बारे में जानना चाहते है। हम उनके फोटो देखना चाहते है , उस तरह नहीं जिस तरह दिखाए गए। हम खबर देखना चाहते है  परन्तु उस दिन की यह अकेली खबर नहीं होगी जो दिन रात हमारा पीछा करे। हम चाहेंगे की हमारे न्यूज़ चैनल भी बीबीसी और सीएनएन की तरह गंभीर और व्यापक हो , जो हमें दृश्य के साथ विचार भी दे सके। वाशिंगटन पोस्ट जब हमारे मीडिया के बारे में लिखता है कि ' भारत में एक नायिका के साथ मीडिया की भी मौत हो गई ' या कोई मित्र जब फेसबुक पर स्टेटस डालता है कि ' देश में गिद्ध लुप्त नहीं हुए वे मीडिया में बदल गए है ' तो   यकीन  मानिये बहुत शर्म आती है यह सुन देख कर।

हैंगओवर ..

रचनात्मक लोग प्रायः समय से आगे रहते है। आमतौर पर अपने संघर्ष के दिनों में वे कितनी ही विपरीत परिस्तिथियों से गुजरने के बावजूद अपना श्रेष्ठ दे जाते है। सिफर से शिखर  पर पहुंचे चित्रकार , संगीतकार , लेखक , एक्टर और फिल्मकारों की आत्मकथाओ में एक यही बात कॉमन रही है। ये लोग अपने टाइम झोन में रहते हुए कालजयी सृजन कर जाते है। अक्सर देखा गया है कि शिखर  पहुँच कर ये  खुद  को दोहराने का प्रयास करते है। दरअसल यह इशारा होता है कि उनका जोखिम उठाने का साहस अब चूक रहा है। जो मौजूद है उसे सहेजने में उनकी ऊर्जा जाया होने  लगती है। सफलता की कोई फोटो कॉपी मशीन नहीं होती -यह सच इन जैसे कई को देर से समझ आता है। 
 1998 में जावेद अख्तर के लिखे गीत को शंकर महादेवन ने  3 मिनिट तक बगैर सांस लिए एक ही बार में गाया था। ' ब्रेथलेस ' नाम का यह एल्बम उस दौर के सीमित मीडिया प्लेटफॉर्म के  बावजूद नेशनल लेवल पर संगीत प्रेमियों को रिझा गया था। इस गीत के बाद शंकर को कभी काम की कमी महसूस नहीं हुई। एहसान व लॉय के साथ मिलकर उन्होंने कई सफल फिल्मों का म्यूजिक कंपोज़ किया। अब दो दशक बाद कालचक्र घुमकर उन्हें वापस ' ब्रेथलेस ' पर ले आया है। अब वे ब्रेथलेस 2 बनाना चाहते है। समझने वाली बात है, अब उनके पास देने को नया कुछ नहीं है। वे चूक रहे है। शंकर भूल रहे है कि जिस पीढ़ी ने ब्रेथलेस को नंबर वन बनाया था उनकी उम्र में  बीस साल और जुड़ चुके है , अब उनकी पसंद बदल गई  है। संगीत भी बदल गया है और गायकी भी। 
गुजरे समय के सुनहरे लम्हों को पलटकर देखना सामान्य बात है। परन्तु हूबहू  वैसा ही वर्तमान में  घट जाने की कल्पना करना सपनों की दुनिया में वास करने जैसा है। इस सिंड्रोम से समाज के हर वर्ग के  लोग पीड़ित रहे है। चूँकि फिल्म से जुड़े लोग सीधे तौर पर मीडिया के फोकस में रहते तो उन पर इस सिंड्रोम का प्रभाव आसानी से  नजर आता है।
सदाबहार देवानंद हॉलीवुड एक्टर ग्रेगरी पैक और गेरी कूपर से प्रभावित थे। उनकी शुरूआती सफल फिल्मों में इस प्रभाव को आसानी से महसूस किया जा सकता है। देव साहब की आखरी हिट फिल्म ' देस परदेस ' (1978 ) थी। अपनी मृत्यु तक देवानंद फिल्मे बनाते रहे और खुद ही को युवा नायिकाओ के साथ  नायक के रूप में प्रस्तुत करते रहे। उन्होंने अपने आपको इतनी बार दोहराया कि दर्शक उनकी फिल्मों के नाम से ही चिढ़ने लगे। शम्मी कपूर जेम्स डीन से प्रभावित थे।  जब तक मोटापे ने उन्हें नहीं घेरा तब तक वे जेम्स की तरह अपने आपको ऊर्जावान और चुलबुला प्रस्तुत करते रहे। हल्की सी गर्दन झुकाकर आँख मिचमिचाते हुए संवाद अदायगी ने राजेश खन्ना को दर्शकों का चहेता बना दिया। वे देश के पहले सुपर स्टार के खिताब से नवाजे गये। राजेश खन्ना का जादू महज तीन साल चला परन्तु वे अपनी इमेज को बदल नहीं पाए और कोने में धकेल दिये  गये। काका को नजदीक से जानने वाले बताते है कि वे कभी स्वीकार ही नहीं कर पाए की वक्त बदल गया है। अमिताभ बच्चन काफी संघर्ष के बाद शिखर पर पहुंचे थे। एंग्री यंग मेन का लेवल उन पर ऐसा चिपका कि अपनी पहली पारी के उतार पर वे लगभग बेरोजगार हो गए। उन्हें जल्दी ही समझ आगया कि ' गुस्सैल युवा ' का समय समाप्त हो चुका है। कौन बनेगा करोड़पति ' ने उन्हें कर्ज से भी उबारा और एंग्री यंग मेन इमेज से भी। 
भारत की पहली सुपर स्टार देविका रानी ताउम्र खुद को युवा समझती रही। उनका करियर मात्र दस बरस  रहा परन्तु छयासी वर्ष की उम्र में भी श्रंगार से उनका मोह भंग नहीं हुआ था। अब इसी पड़ाव पर दिलीप कुमार , राजकपूर की नायिका रही वैजयंती माला को खड़ा  देख सकते है। 
तथाकथित इमेज के फेर में उम्र को धोखा देने का प्रयास मजाक का विषय बन जाया करता है। गुजरे समय के बारे में बात करना और गुजरे समय को दोहराने की कोशिश करना दो अलग बाते है। अतीत को थामे रखना यही सन्देश देता है कि आपके पास वक्त के साथ बदलने की सामर्थ्य  नहीं बची है या आपकी रचनात्मकता ख़त्म हो गई है। 
दिवार पर लिखी इस  इबारत को जिसने भी नजरअंदाज किया है उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ी है।

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