Thursday, January 31, 2019

हथेली से फिसलती रेत को समेटती माधुरी



कुछ सौन्दर्य की देवियां ऐसी होती है जिनकी सुंदरता गुजरते समय के साथ और बढ़ती जाती है। सुंदरता का जिक्र होते ही सबसे पहले जो नाम जेहन में आता है वह सौम्य मधुबाला और शालीन स्मिता पाटिल का ही आता है।  हालांकि हरेक सिने  प्रशंसक के अपने अलग पैमाने होते है जिसके अनुसार वे अपनी पसंदीदा नायिकाओ को क्रम देते रहते है।  यधपि ये दोनों ही अभिनेत्रियां अरसा पहले इस दुनिया से अलविदा कह चुकी है परन्तु पहले सेलुलॉइड और अब डिजिटल स्वरुप  में अंकित होकर ये  अमर हो गई है। सुंदरता की आइकोनिक छवियों के चलते  इनकी फिल्मे देखते वक्त दर्शक एकबारगी तो इनके सौन्दर्य से अभिभूत हुए बगैर नहीं रहता। 
 नब्बे के दशक में अपनी शुरूआती असफल फिल्मों के बाद ' तेज़ाब ' से लाइम लाइट में आकर माधुरी दीक्षित ने अपना अलग ही मुकाम बनाना आरंभ कर दिया था। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें एकदम खुला मैदान मिल गया था। उस दौर में चुलबुली जूही चावला , डिंपल गर्ल प्रिटी जिंटा , बार्बी डॉल का इंडियन अवतार ऐश्वर्या   अल्हड काजोल , निश्छल सौन्दर्य की मूर्ति मनीषा कोइराला , किसी भी हद तक जाने को तैयार ममता कुलकर्णी जैसी नायिकाएँ लगातार सफल फिल्मे देकर हिंदी भाषी दर्शकों के दिलों दिमाग पर अपनी जगह बना चुकी थी। तेज़ाब ' में उनपर फिल्माए गीत ' एक दो तीन चार  ने रातों रात उन्हें सफलता की कई  पायदान एक साथ फलाँगने में मदद की। फिल्म दर फिल्म माधुरी नृत्य , अभिनय और सौंदर्य की मिसाल बनती गई। फिल्म समीक्षकों ने उनमे मधुबाला और स्मिता पाटिल का मोहक कॉम्बिनेशन देखना आरंभ कर दिया। यह सच भी था। उनकी मुस्कान को भुवन मोहिनी मुस्कान कहा जाने लगा। उनके लावण्य का सुरूर सिर्फ दर्शकों को ही सम्मोहित नहीं कर रहा था वरन विश्वविख्यात चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन भी उन पर इस कदर आसक्त हुए कि वे उनकी कई पेंटिंग्स पर उकेरी गई।  हुसैन साहब यही नहीं रुके माधुरी को केंद्र में रखकर उन्होंने फिल्म ' गजगामिनी ' बना डाली। रंगों , नृत्य और ध्वनि की मोहक जुगलबंदी के बावजूद यह फिल्म सामान्य दर्शक के सर पर से निकल गई। 
 माधुरी के साथ शुरूआती दौर में एक और सुखद संयोग हुआ। तेज़ाब के सह नायक अनिल कपूर के साथ उनकी केमिस्ट्री इस कदर रंग लाई कि इस जोड़ी को सफलता का पर्याय मान लिया गया। इन दोनों को  पंद्रह फिल्मों में दोहराया गया । फिल्मफेयर पुरुस्कारों के लिए वे सोलह बार नामांकित हुई जो कि अपने आप में एक रिकॉर्ड है। 
माधुरी न सिर्फ खुद शीर्ष सिंहांसन पर बैठने में सफल हुई वरन कई नायकों के लड़खड़ाते करियर को संवारने में भी उनकी मदद ली गई थी । महानायक अमिताभ   बच्चन की ' बड़े मियां छोटे मियां ' को सहारा देने के लिए माधुरी का  एक गीत विशेष रूप से फिल्म में जोड़ा गया था ,  कुमार गौरव की फिल्म ' फूल ' के लिए राजेंद्र कुमार ने माधुरी की कितनी मिन्नतें की थी , अनिल कपूर के छोटे भाई संजय कपूर के साथ फिल्म ' राजा ' की  नायिका बनने जैसे कई और उदहारण है जो अब फ़िल्मी इतिहास का हिस्सा हो चुके है। 
लाइम लाइट में रह चुके लोगों को अक्सर एक तकलीफ से गुजरना होता है। अतीत में वे जिस मुकाम पर थे अपनी वापसी पर उस जगह किसी और को बैठा पाते है। इसके बाद पुनः उनका नए सिरे से संघर्ष आरंभ हो जाता है। क्योंकि तब तक उनका प्रशंसक वर्ग किसी अन्य नायिका को सर माथे बिठा चूका होता है।  सफल वैवाहिक जीवन व्यतीत कर रही यह नायिका अमेरिका की चकाचौंध के बावजूद ' आर्क लाइट ' के दायरे को भूल नहीं पाई और शादी के सात वर्ष बाद ही सपरिवार मुंबई लौट आई। अपनी वापसी पर उन्होंने कुछ फिल्मे , कुछ टीवी शोज भी किये परन्तु बावजूद उनके परिपक्व सौंदर्य के वह जादू नदारद था जिसने एक समय उन्हें आसमान पर बैठा दिया था। 
उनकी कुछ सफल फिल्मों के निर्माता इंद्र कुमार ने ' धमाल ' सीरीज की तीसरी शीघ्र रिलीज़ होने वाली कॉमेडी  फिल्म ' टोटल धमाल ' में अनिल कपूर के साथ इस उम्मीद में पेश किया है कि शायद कोई चमत्कार हो जाए परन्तु ट्रेलर देखकर ही कई समीक्षकों ने इस संभावना को ख़ारिज कर दिया है।मान लिया जाना  चाहिए कि  माधुरी दीक्षित के लिए समय गुजर चूका है। 
सफल लोगों के मानस में गुजरे सुनहरे समय की स्मृतियाँ आसमानी बिजली की तरह रह रह कर कौंधती है। अतीत की तालियां और उनकी एक झलक के लिए लोगों की भीड़ की यादें न मालुम उनकी कितनी राते नींद के इंतजार में जाया करती होंगी उसका हिसाब उनसे बेहतर दूसरा नहीं रख सकता। सुखद स्मृतियों के दंश जब सामान्य मनुष्य को विचलित कर देते है तो शीर्ष से उतरे नायक की मनोस्थिति का कयास ही लगाया जा सकता है। छिटक चुके लम्हों को फिर से पकड़ने की उत्कंठा उन्हें कई लेवल नीचे जाकर काम करने को मजबूर कर देती है। बकवास फिल्म  का हिस्सा  बनने की माधुरी की मज़बूरी को इसी संदर्भ  में देखा जा सकता है।  

Monday, January 21, 2019

नजरअंदाज कलाकार

हालिया रिलीज़ फिल्म ' द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर  ' ने उन तमाम उम्मीदों पर पानी फेर दिया जिसकी आशंका जताई जा रही थी। सिनेमैटिक उत्कृष्टता के लिहाज से भले ही  फिल्म उस मुकाम पर नहीं पहुंची परन्तु शुरूआती उत्सुकता की वजह से इसने ने इतना मुनाफा अवश्य कमा लिया है कि निर्माता इसे सफल मान सकते है। लेकिन  सबसे ज्यादा नुकसान सिनेमाई  इतिहास का हुआ है जो एक अच्छे कथानकीय दस्तावेज से वंचित रह गया। फिर भी इस फिल्म के लिए  हमें इतना भी उदास होने की जरुरत नहीं है । हर विध्वंस में एक सकारात्मक बात अवश्य निकाली जा सकती है।  वैसे ही ' द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर '  के साथ भी एक उपलब्धि चस्पा हो गई है।   इस फिल्म को अपनी कास्टिंग , कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग एवं मेकअप के लिए सराहना मिली है। 
किसी भी फिल्म के ये कुछ ऐसे  पहलु होते है जिनपर अमूमन सामान्य दर्शक का ध्यान नहीं जाता है। इन पहलुओं को साधने वाले लोग इतने भी लोकप्रिय नहीं होते कि उनकी फोटो देखकर आम दर्शक उनसे तादतम्य स्थापित कर सके। आमतौर पर सफल फिल्म की प्रशंसा में ही इन लोगों की प्रशंसा छुपी होती है। द एक्सीडेंटल के मेकअप आर्टिस्ट श्रीकांत देसाई सतरह वर्षों से फिल्म इंडस्ट्री में काम कर रहे है। उनके उल्लेखनीय कामों में ' गैंग्स ऑफ़ वासेपुर (2012) कोर्ट (2014) मसान (2015) बॉम्बे वेलवेट (2015) राजी (2018) विशेष सराहनीय है। देसाई स्वयं को सटीकता का तरफ़दार बताते है।  उनका मानना है कि किसी ऐतिहासिक पात्र को स्क्रीन पर उतारने में सटीकता ही एकमात्र विकल्प है क्योंकि दर्शक के सामने अभिनेता , अभिनेता नहीं रह जाता पात्र जीवंत हो जाता है। देसाई बताते है कि डॉ मनमोहन सिंह के अवतार में आने के लिए अनुपम खेर को रोजाना एक घंटे मेकअप करना पड़ता था। इसी तरह जर्मन अभिनेत्री सूजन बेर्नेट  को सोनिया गांधी में बदलना कम चुनौती भरा काम नहीं था। छतीस वर्षीया इस अभिनेत्री को इकहत्तर वर्ष की महिला के किरदार के लिए चुना गया था। मेकअप ने उम्र के इस अन्तर को पाटने में चमत्कार कर दिखाया। 
हर वर्ष होने वाले  दर्जन भर सिनेमाई पुरुस्कारों में मेकअप आर्टिस्टों को पुरुस्कृत करने की पहल  फिलहाल भारत में आरंभ नहीं हुई है। ऑस्कर ने ' बेस्ट मेकअप एंड हेयर स्टाइल ' केटेगरी में पुरूस्कार देने की शुरुआत 1981 में ही कर दी थी। इससे पहले उनकी उपलब्धियों का सिर्फ  जिक्र ही हो पाता था। साधारण अभिनेता को कहानी के चरित्र में बदलदेने के हुनर का  महत्व हमारे फिल्मकार समझते तो है परन्तु उनके प्रोत्साहन के लिए कोई ठोस जतन  नहीं किया जाता है।  हाल ही में हॉलीवुड के वरिष्ठ मेक उप आर्टिस्ट डैन स्ट्रिपेक का निधन हुआ।  उनकी उपलब्धियों में तीन बार ऑस्कर के लिए नामांकित होना दर्ज हो चूका है। इसके अलावा टॉम हैंक्स की चर्चित सोलह फिल्मे  और टॉम क्रूज की ' मिशन इम्पॉसिबल ' सीरीज में उनका काम काफी सराहा गया था। 
 

Thursday, January 10, 2019

आभासी दुनिया के अँधेरे !

मनोवैज्ञानिकों  के मुताबिक सेल्फियों  फेसबुक , ट्विटर और व्हाट्सप्प  पर लगातार सम्पर्क में रहने वालों ने एक तरह से खुद अपना जीवन आवेगपूर्ण मुहाने पर ला खड़ा कर दिया है। यह जीवन का वह मुकाम बन गया है जहाँ मानसिक शांति की कोई जगह नहीं है। एक तरह से हरेक व्यक्ति अपने साथ अपना खुद का लेटर बॉक्स साथ लिए घूम रहा है।
 'पहुँचते ही खत लिखना या अपनी खेर खबर देते रहना या खतो किताबत करते रहा करो जैसे वाक्य अब कोई नहीं बोलता। नई पीढ़ी को तो यह भी नहीं मालुम है कि इन शब्दों में कितनी आत्मीयता और आग्रह छुपा हुआ होता था। कुछ लिखकर उसके जवाब का  इन्तजार कितना रोमांचकारी होता था , अब बयान नहीं किया जा सकता। तकनीक ने कई ऐसी चीजों को बाहर कर दिया है जो आत्मिक लगाव की पहचान हुआ करती थी। प्रेमियों के बीच होने वाले पत्राचार ने कई लोगों को साहित्यकार बना दिया था। अपने जज्बात कागज़ पर उंडेलकर उसे प्रेमी तक पहुंचाने का रोमांच आज महसूस नहीं किया जा सकता। मिर्जा ग़ालिब ने लिखा था ' कासिद के आते आते  खत इक और लिख रखु , में जानता हु वो जो लिखेंगे जवाब में ' या फ़िल्मी गीतों में प्रमुखता से नजर आई   ' लिखे जो खत  तुझे वो तेरी याद में ' या मेरा प्रेम पत्र पढ़कर तुम नाराज ना होना ' या ' फूल तुम्हे भेजा है खत में , फूल नहीं मेरा दिल है - जैसी भावनाए आज न समझाई जा सकती न उनके समझने की उम्मीद की जा सकती है। 
 कई खूबियों वाले स्मार्ट फ़ोन ने  सबसे नकारात्मक असर जो समाज को दिया है वह है आत्म मुग्ध और आत्म केंद्रित स्वभाव।खुद की फोटो निकलना और उसे निहारना एक ऐसा जूनून बन चूका है जिसने व्यक्ति को आत्म केंद्रित बना दिया है।  यहाँ मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हुए हुई दुर्घटनाओं की बात भी बेमानी है। अकेले मोबाइल फ़ोन की वजह से हुई दुर्घटनाओं के इतने  वाकये हो चुके है कि उन्हें अब सामान्य मान लिया गया है।
 अब स्मार्टफोन की वजह से हुए सामाजिक  प्रभावों पर गौर करना जरुरी हो गया है। वह समय गया जब पूरा मोहल्ला व्यक्ति के संपर्क में रहता था परन्तु चंद लाइक और कुछ कमैंट्स की चाहत ने उसे अकेलेपन की और धकेल दिया है।  आभासी दुनिया के मित्र उसकी दुनिया बन गई है। बड़ी मित्र संख्या का दम भरने वाले अधिकांश लोगों के समक्ष इस तरह की हास्यास्पद स्थिति निर्मित होती रही है जब उनकी पोस्ट पर बिला नागा टिपण्णी करने वाले लोग उनके सामने से बगैर मुस्कुराए गुजर जाते है।   व्यक्ति क्षणे क्षणे  समाज से कटता जा रहा है परन्तु उसे इस वक्त एहसास नहीं हो रहा है। प्रदर्शन प्रियता हरेक मनुष्य की जन्मजात सहज प्रवृति रही है। सोशल साइट्स ने इसे विस्फोटक स्तर पर ला खड़ा किया है। नितांत निजी पलों को भी लोग बेखौफ इन साइट्स पर शेयर करने  से नहीं हिचकिचाते भले ही लोग उनके इस कृत्य  पर मजाक बनाते हो।  किसी अवसर विशेष पर कही और से आये संदेशों को फॉरवर्ड करते समय भी  महसूस ही नहीं होता कि इन उधार  की पंक्तियों में स्नेह और प्रेम की रिक्तता है।  उम्मीद थी कि स्मार्ट फोन दूरिया घटाने में मदद करेंगे परन्तु उनका  उल्टा ही असर होते दिख रहा है।  औपचारिकता ने  सहजता को बेदखल कर दिया है। जन्मदिन हो या और कोई विशेष अवसर अब लोग पहले से कही ज्यादा बधाइयाँ भेजते है परन्तु यह काम भी केवल इसलिए किया जाता है ताकि सामने वाले को जताया जा सके कि हमें उसकी फिक्र है। सोशल मीडिया ने हमारे लिए  इतने सारे इमोजी और स्टिकर विकसित कर दिये है कि हमें दिमाग को तकलीफ देने की जरुरत नहीं पड़ती। हर अवसर के लिए हमारे पास रेडीमेड शुभकामनाओ का भण्डार है। 
 जरुरत से व्यसन बन चुके मोबाइल फ़ोन का जीवंत  उदहारण देखना हो तो किसी रेल या  बस यात्रा को देखिये। पिछले माह भोपाल से हैदराबद की लम्बी रेल यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ था तो स्मृतियों में दो  दशक पूर्व इसी तरह दक्षिण भारत प्रवास की झलकियां स्मरण हो आई। उस दौरान हरेक यात्री के पास एक किताब जरूर होती थी।   महज एक दशक पहले तक  सफर में यात्री कुछ न कुछ पढ़ते नजर आते थे। अब बिरला ही कोई ऐसा शख्स दीखता है जिसके पास किताब हो। अब  हर झुकी  गर्दन सिर्फ अपने मोबाइल में गुम नजर आती है। ट्रैन के बाहर बदलता परिदृश्य और प्रकृति किसी को भी नहीं लुभाती। कई अध्यनो और शोध में इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि आँखों के सामने से गुजरने वाले शब्द मस्तिष्क में चित्रों का निर्माण करते है , यह काम मस्तिष्क के विकास के लिए बेहद अहम् है।  दूसरी और नन्ही स्क्रीन पर नाचते चित्र सिर्फ आँखों को थकाने के अलावा कोई सकारात्मक काम नहीं करते ,कम से कम  मस्तिष्क की सक्रियता के लिए तो कुछ भी नहीं !
   कोई माने या न माने परन्तु एक दिलचस्प  जापानी हास्य  कहावत को अमल में लाने का समय आ गया लगता  है -  ' मोबाइल फ़ोन ने आपके कैमरे को बाहर किया , आपके म्यूजिक सिस्टम को बाहर किया , आपकी किताबों को बाहर किया , आपकी अलार्म घडी को बाहर किया ! प्लीज अब  उसे आपके परिवार और मित्रों को बाहर न करने देवे ! 

Wednesday, January 2, 2019

शिल्पों की नगरी में फिल्मे : खजुराहो फिल्मोत्सव

धीरे धीरे आकार ले रहे ' अंतराष्ट्रीय खजुराहो फिल्म फेस्टिवल ' ने इस वर्ष चौथे वर्ष में प्रवेश किया है। विश्व हेरिटेज साइट खजुराहो  पर होने वाला यह अपनी तरह का पहला फिल्म समारोह है। हर वर्ष दिसंबर माह में होने वाले इस महोत्सव की निरंतरता अभिनेता निर्माता एवं सामजिक कार्यकर्ता राजा बुंदेला के अथक प्रयासों से संभव हुई है। मध्य प्रदेश जैसे केंद्र में स्थित राज्य में फिल्म निर्माण की असीम सम्भावनाओ को तलाशने का भागीरथी प्रयास है खजुराहो फिल्म महोत्सव। यह फिल्मोत्सव इस लिहाज से भी अनूठा है कि यह सीधे आम लोगों तक पहुँचने का प्रयास करता है , उनकी रोजमर्रा की समस्याओ के हल ढूंढते हुए सामजिक जनचेतना जगाने का प्रयास करता है। सात दिनों तक चले इस फिल्मोत्सव में शार्ट फिल्मो के अलावा हिंदी की लोकप्रिय फिल्मे और विदेशी फिल्मो का प्रदर्शन अस्थायी टपरा टाकिजों में आम दर्शकों के लिए निशुल्क किया गया।

   ' टपरा टाकीज़ ' एक ऐसी ही पहल है जो साधनहीन दर्शक को सीधे सिनेमा से जोड़ने का प्रयास करता है। दक्षिण भारत में लोकप्रिय इस तरह के टाकीज़ सिनेमा को समाज के आखरी छोर पर बैठे दर्शक के पास ले जाता है। प्राकृतिक संसाधनों और दृश्यावली से संपन्न बुंदेलखंड विकास की बाट जोह रहा है। राजा बुंदेला सिनेमा के रास्ते इस क्षेत्र को मुख्य धारा में जोड़ने की कोशिश कर रहे है।  एक साक्षात्कार में  बात करते हुए उन्होंने इस बात पर अफ़सोस व्यक्त किया कि  पर्यटन की असीम संभावना के बावजूद सरकारों ने इसे रेल एवं  हवाई मार्ग से उस तरह से नहीं जोड़ा है जैसी की आवश्यकता है।
यद्धपि  राजा बुंदेला अपने संपर्कों और संस्कृति मंत्रालय के सहयोग से इस हेरिटेज साइट को जनचर्चा में शामिल करने में सफल रहे है। एक अन्य प्रश्न के जवाब में वे बताते है कि सिनेमा को सिंगल स्क्रीन की और लौटना ही होगा क्योंकि देश का एक बड़ा दर्शक वर्ग मल्टीप्लेक्स के टिकिट नहीं खरीद सकता है। एक   सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि सिनेमा से गाँव लगभग लुप्त हो चुके है , वे अपने  प्रयासों से सिनेमा को फिर से गाँवों की और ले जाना चाहते है। 
नेटफ्लिक्स और अमेज़न प्राइम जैसी वीडियो स्ट्रीमिंग साइट के बढ़ते स्वरुप को वे समय की मांग बताते है। परन्तु इन साइट्स पर बढ़ती यौनिकता और गाली गलौज की भाषा के लिए भी चिंता जाहिर करते है। भारतीय समाज के दोहरे मापदंडों पर बात करते हुए वे कहते है कि हमने सेक्स को वर्जित बनाकर रख दिया है जिसकी वजह से यह अंतिम समय तक दिमाग में हलचल मचाये रखता है जबकि पश्चिम के लोग पच्चीस की उम्र में ही इससे ऊपर उठ जाते है यही वजह है कि नेटफ्लिक्स जैसे पोर्टल इस बात का फायदा उठाकर इसे धड़्डले से बेचते रहते है। 
  वे इस बात पर उत्साहित है कि खजुराहो फिल्मोत्सव कई शौकिया फिल्मकारों की नर्सरी बन रहा है। विदित हो कि इस फिल्मोत्सव में एक दर्जन से ज्यादा फिल्मे स्थानीय कलाकारों ने अपनी फिल्मों का प्रदर्शन किया है । इन फिल्मकारों का उत्साह वर्धन करने के लिए उन्हें  फिल्म के प्रदर्शन के बाद स्टेज पर सम्मानित भी किया गया । 
सात दिवसीय  चकाचौंध भरे इस आयोजन के समापन  में कई नामचीन लोगों की उपस्थिति रही।  विशेष रूप से  अभिनेता अनुपम खेर , राजनीतिज्ञ अमर सिंह , केंद्रीय मंत्री सुदर्शन और फिल्मकार बंसी कौल आदि ने फिल्मो को लेकर अपने अनुभव साझा किये। 
 इस महोत्सव की उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि सभी फिल्मकार लोगों से सहजता से मिल रहे थे। आयोजकों को पुलिस प्रशासन की मदद नहीं लेना पड़ी। दो डिग्री तापमान के बावजूद पर्यटकों और स्थानीय लोगों की उत्साहपूर्वक  उपस्तिथि बताती है कि खजुराहो फिल्मोत्सव अपने उद्देश्य में  सफल रहा। 

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...