Sunday, May 27, 2018

इक बंगला बिका न्यारा !

अंततः एक विरासत के भविष्य पर ताला लग गया। खंडवा स्थित लोकप्रिय गायक किशोर कुमार गांगुली  का पुश्तैनी घर ' गौरीकुंज ' बिक गया। खंडवा और मध्यप्रदेश के निवासियों के लिए गर्व और कौतुहल का सबब रहे इस घर की जगह शीघ्र ही कोई शॉपिंग काम्प्लेक्स या रिहाइशी बहुमंजिला भवन आकार ले लेगा। 1987 में इस खिलंदड़ स्वाभाव के गायक की मृत्यु के बाद से ही उनकी समाधि पर हरवर्ष देशभर से आये उनके डाई हार्ड प्रशंसक जुटते रहे है। किशोर कुमार के जन्मदिवस 4 अगस्त पर यहाँ केक की बजाए ' पोहे जलेबी ' खाकर उन्हें याद करने की  परंपरा रही है।किशोर कुमार ने अपने कॉलेज के दिन इंदौर के क्रिस्चियन कॉलेज में बिताये थे यही उन्हें पोहे जलेबी का शौक  लगा था।  गांगुली परिवार ने प्रदेश  की सांस्कृतिक पहचान के एवज में कुछ करोड़ रूपये लेकर अपना वर्तमान सुधार लिया परन्तु लाखों लोगों को भावनात्मक जुड़ाव से वंचित कर दिया।  खुद को  'रशोकि रमाकु ' खंडवा वाला कहने वाला  यह बहुमुखी कलाकार इस गौरीकुंज में ही जन्मा था और यही पला बड़ा था। उनके प्रशंसकों और नवोदित गायकों के लिए इस भवन को ' तीर्थ ' के रूप में विकसित किया जा सकता था। परन्तु  हरेक पीढ़ी के लोग अपने अतीत को अपने नजरिये से आंकते है। संभव है अमित कुमार को  एक यादगार स्मारक की जगह तात्कालिक  आर्थिक लाभ ने ज्यादा आकर्षित किया हो । वैसे भी अपने पिता के गाये गीतों की रॉयल्टी की बदौलत उनका जीवन ऐश्वर्य में तो गुजर ही रहा है। उनके लिए यह मकान  जमीन के कीमती टुकड़े पर मिट्टी गारे के ढेर से ज्यादा महत्त्व नहीं रखता , यह उन्होंने जतला दिया है। मध्यप्रदेश सरकार ने किशोर कुमार की मृत्यु परान्त ही उनकी स्मृति को चिर स्थायी करने के लिए एक  फ़िल्मी शख्सियत  को हर वर्ष ' किशोर कुमार अवार्ड ' देने की परंपरा कायम की है। म प्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने इस धरोहर को विकसित करने के लिए गांगुली परिवार से अनुमति चाही थी परन्तु उन्होंने  स्मारक के एवज में  पच्चीस करोड़ की मांग रख दी जिसे सुनकर सरकारी नुमाइंदे उलटे पाँव लौट आये थे। यही कहानी सुर कोकिला लता मंगेशकर के इंदौर स्थित जीर्ण शीर्ण पुश्तैनी निवास की भी है। इंदौर नगर निगम उस जगह को अपने खर्चे से विकसित कर  ' लता मंगेशकर सभागृह ' बनाना चाहता था बदले में लता जी से इंटीरियर डेकोरेशन के भार वहन  का प्रस्ताव किया था। सूत्र बताते है कि लता मंगेशकर ने इस प्रोजेक्ट पर आज तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। 
1960 के दशक में अमेरिकी गायक ' एल्विस प्रेस्ले ' सनसनी बन चुके थे। हर नए गीत के साथ उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ता जा रहा था। जितनी दीवानगी ब्रिटेन में उस समय ' बिटल्स ' को लेकर थी उतनी अमेरिका में एल्विस को लेकर थी। महज बयालीस बरस की उम्र में हुई एल्विस की अचानक मौत ने अमेरिका को राष्ट्रीय शोक में डूबा दिया था। किंग ऑफ़ द  रॉक एन रोल ' कहे गए इस गायक की मृत्यु के चार दशक  बाद भी उनके प्रशंसक उन्हें लेकर काफी भावुक है। एल्विस की इकलौती बेटी मारी लिसा प्रेस्ले ने अपने पिता से जुडी हरेक चीज को जस का तस संजोया है। उनके  कोट के बटन से लेकर कार तक को संरक्षित किया है। और इस वास्तविकता के बावजूद किया है जबकि निजी संग्रहकर्ता एल्विस से जुडी किसी भी चीज के लिए लाखों डॉलर देने को तैयार बैठे है। 
लिसा प्रेस्ले ने लालच को हरा दिया और अमित कुमार लालच से हार गए !
सिर्फ अमित कुमार ही नहीं हम औसत भारतीय भी अपनी विरासत को लेकर खासे लापरवाह रहे है। अपने नायको से जुडी वस्तुओ  का अलगाव  हमें उदास नहीं करता। महात्मा गांधी से जुडी बहुत सी  वस्तुओ का पता हमें तब लगा जब वे किसी दूसरे देश में सार्वजनिक रूप से नीलाम हो रही थी। प्रसंगवश महान रुसी लेखक लियो टॉलस्टॉय का जिक्र जरुरी है।  इस कालजयी लेखक के निधन के एक सो दस वर्ष बाद भी उनके निवास को उसी हालत में सहेजकर रखा गया है। जिस रेलवे स्टेशन पर उनकी तबियत ख़राब हुई थी उस स्टेशन की घडी आज भी उनकी मृत्यु के समय को दर्शाती है। 
अतीत की उपलब्धियों को सहेजने का सलीका हमें विदेशियों से ही सीखना होगा और इसमें को

Monday, May 21, 2018

लुभावना विध्वंस !

देश के कुछ हिस्सों में आये धुल आंधी के अंधड़ ने सौ से ज्यादा लोगों की जिंदगी ख़त्म करदी सम्पति का नुक्सान हुआ वह अलग। हमारा देश इस लिहाज से श्रेष्ठ  है कि इसे प्रकृति ने चारो मौसमों  की सौगात  दी है। परन्तु हरेक मौसम अपनी पराकाष्टा पर विध्वंस भी लेकर आता है। अति बारिश से आने वाली बाढ़ , पेंतालिस छयालीस डिग्री तापमान पर चलने वाली गर्म हवाए , शीत लहर और कोहरे का प्रकोप आदि भी कई हजार लोगों को असमय काल के सुपुर्द करते रहे है। इनके अलावा भूस्खलन , भूकंप , बादल फटना जैसी प्राकृतिक आपदाए भी बगैर आहट हमारी जिंदगियों पर मंडराती रही  है। ये आपदाएं भी किसी फिल्म का विषय हो सकती है यह बात हॉलीवुड ने दुनिया को बेहतर तरीके से समझाई है। आपदाओं पर बनी फिल्मों को ' डिजास्टर मूवी ' की श्रेणी में रखा गया है।इन फिल्मो का इतिहास इतना ही पुराना है जितना सिनेमा का।  सिनेमा माध्यम के शुरूआती दौर में ही इस तरह की फिल्मे बनना आरम्भ हो गई थी। साइलेंट फिल्मों के समय में बनी ' फायर ' ( 1901 ) विध्वंस पर आधारित पहली फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म में एक आदमी जलते हुए मकान से एक परिवार को सुरक्षित बाहर निकालता है। अपनी पहली और अंतिम यात्रा पर लंदन से अमेरिका के लिए निकले टाइटेनिक जहाज ने 1912 में जल समाधि ली थी। इस दुखद घटना के ठीक एक वर्ष बाद साइलेंट फिल्म ' टाइटेनिक अटलांटिस '  1913  में अमेरिका में रिलीज़ हो गई थी। 
डिजास्टर फिल्मों में आमतौर पर प्रकृति फिल्म का नायक होती है। सम्पूर्ण कथानक उसके ही इर्दगिर्द घूमता है। प्राकृतिक आपदाएं अपने पुरे शबाब पर होती है।  अधिकांश फिल्मों में मनुष्य उसके सामने असहाय ही नजर आता है। परन्तु अंत में मनुष्य अपनी चतुराई से किसी तरह बच निकल कर प्रकृति के कोप से  मानव जाति को बचा लेता है। डिजास्टर जॉनर की फिल्मो का ऐसा आकर्षण रहा है कि कॉमेडी और हॉरर की तरह दुनिया भर में इसने अपना अलग दर्शक वर्ग बना लिया है। इस आकर्षण को हॉलीवुड के बड़े स्टूडियो और फिल्मकारों ने डटकर भुनाया है। समय के साथ अपग्रेड होती तकनीक , विजुअल इफेक्ट , सिनेमोटोग्राफीऔर कंप्यूटर जनरेटेड इमेजेस के बदलाव को हर नई  फिल्म के आगमन के साथ महसूस किया जा सकता है। इन फिल्मों की एक और उल्लेखनीय विशेषता यह रही है कि अधिकाँश सफल फिल्म किसी बेस्टसेलर किताब पर आधारित रही है। 1974 में आई ' द टॉवरिंग इन्फर्नो ' एक सो अड़तीस  मंजिला बिल्डिंग में लगी आग में फंसे लोगों पर आधारित थी। इस फिल्म को दर्शक आज भी याद करते है। इसी तरह आर्थर हैली के लोकप्रिय उपन्यास ' एयरपोर्ट ' पर इसी नाम से आई फिल्म और ' अर्थक्वेक ' ( दोनों 1975 ) आज भी अपनी लोकप्रियता बरकरार रखे हुए है। 
1990 के बाद इन फिल्मों के विशाल  बजट और वीएफएक्स तकनीक के बढ़ते  प्रयोग ने कल्पना  और वास्तविकता की लकीर को लगभग पाट  दिया है। अब इन फिल्मो में विध्वंस को देखना लुभावना हो गया है।  एक बड़े स्वीमिंग पूल में शूट हुई  केट विंस्लेट , लेनार्डो डी कैप्रिया की दुखद प्रेमकथा  वाली ' टाइटेनिक '  ( 1997 ) इसके पहले स्टीवन स्पीलबर्ग की हेलन हंट और बिल पिक्सटन अभिनीत  आधी सीट पर बैठकर देखने को मजबूर कर देने वाली  ' ट्विस्टर ' ( 1996 ) जेम्स बांड बनने के पूर्व पिएर्स ब्रोसनन की ' दांतेस पीक ' ( 1997 ) कभी ' गॉडफादर ' फिल्म में गॉडफादर बने मार्लोन ब्रांडो के विश्वस्त सलाहकार बने रोबर्ट डुआल की ' डीप इम्पैक्ट ' (1998 ) धीमी आवाज में डायलाग बोलने वाले ब्रूस विलिस की ' आर्मगेडन ' (1998 ) डेनिस क्वेड की ' द डे आफ्टर टुमारो ' ( 2004 ) हॉलीवुड के चॉकलेटी हीरो जॉन कुसाक की ' 2012 ' ( 2009 ) डिजास्टर श्रेणी की बेहद उल्लेखनीय फिल्मे है। 
भारत में इन फिल्मों का बहुत बड़ा दर्शक वर्ग है परन्तु बॉलीवुड में साइंस फिक्शन या डिजास्टर फिल्मे बनाने का दुस्साहस बिरले निर्माताओं ने  ही किया है। 1979 में यश चोपड़ा निर्देशित ' काला पत्थर ' चसनाला खान दुर्घटना पर आधारित थी। अमिताभ बच्चन के शानदार अभिनय के बावजूद यह फिल्म अपनी लागत  नहीं निकाल पाई थी। इसी तरह बी आर चोपड़ा निर्मित ' द बर्निंग ट्रैन ' (1980 ) अपने डिजास्टर से अधिक मधुर गीत संगीत के लिए सराही गई थी।  दोनों ही फिल्मे मानव निर्मित आपदाओं पर आधारित थी। 

Saturday, May 12, 2018

आईना दिखाती फिल्म

अधिकांश न्यूज़  चैनल मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा अविश्सनीयता के माहौल से गुजर रहे है। चार पांच  साल पहले भी खबरे बाकायदा प्लांट की जाती थी। दर्शकों की मानसिकता को किस और मोड़ना है इस पर गहन शोध होता था।  परन्तु यह सब काम एक सिमित दायरे में और लुके छिपे तरीके से होता था। वर्तमान में यह सब काम धड़ल्ले से और खुलकर हो रहा है। फेक न्यूज़ ' शब्द जितना अब प्रचलन में आया है उतना पहले कभी नहीं रहा। ख़बरों के प्रस्तुतीकरण से तय किया जाने लगा है कि दर्शक के अवचेतन में कोनसा विचार रोपना है ताकि समय आने पर उसे बरगलाने में ज्यादा कवायद न करना पड़े। 



 पेशे से सिविल इंजीनियर और विडिओ लाइब्रेरी चलाकर फिल्म उधोग में आये रामगोपाल वर्मा ने अपनी पहली ही फिल्म से ऐसा समां बाँधा था  कि क्या दक्षिण और क्या बॉलीवुड सभी उनके कायल होगए। रामगोपाल वर्मा ने फिल्म मेकिंग की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली है।  अपनी विडिओ लाइब्रेरी में फिल्मे देखकर और एक ही दृश्य को दर्जनों बार रिवाइंड कर उन्होंने निर्देशन और स्क्रिप्ट राइटिंग के गुर सीखे थे। अपने समकालीन निर्देशकों से उलट वर्मा ने अपनी खुद की फिल्म मेकिंग शैली निर्मित की। उनकी फिल्मे मूलतः तीन महत्वपूर्ण स्तंभों पर टिकी  होती है - सधी हुई स्क्रिप्ट , केमेरे का एंगल और सलीके से की गई एडिटिंग। उनकी फिल्मो की बुनावट पर खासतौर से आइन रेंड , और जेम्स हेडली चेस का प्रभाव महसूस किया जा सकता है। 1992  में उनकी निर्देशित सुपर नेचुरल थ्रिलर ' रात ' का ओपनिंग सीन  महज संगीत और कैमरे के मूवमेंट से ही दर्शक को सिहरा देता है। बाद में आगे चलकर यही प्रयोग उन्होंने ' भूत '  ( 2003 ) डरना मना है ( 2003 ) डरना जरुरी है (2006 ) में भी किया। स्क्रिप्ट राइटर या  डायरेक्टर या  प्रोडूसर के रूप में उनका नाम अस्सी से ज्यादा फिल्मों के साथ जुड़ा है। उनकी सत्या , शिवा , कंपनी , सरकार , अब तक छप्पन जैसी फिल्मे  मील का पत्थर मानी जाती  है।   उनकी सभी फिल्मों की बात करने के लिए यह कॉलम बहुत छोटा है। इस लेख की शुरुआत में हमने पक्षपाती न्यूज़ चैनल की भूमिका पर सवाल उठाये थे। 2010 में राम गोपाल वर्मा ने इस तरह के असाधारण विषय पर ' रण ' निर्देशित की थी। यह पोलिटिकल थ्रिलर फिल्म इस मायने में भी जुदा थी कि इस तरह की फिल्मों के लिए दर्शक अपना मानस अभी हॉलीवुड की तरह परिपक्व नहीं कर पाया है। दूसरा , इस तरह की फिल्म बनाना जिसके किरदार सीधे वास्तविक जीवन से उठकर आरहे हो , वाकई में जोखिम और साहस का काम है।  एक लड़खड़ा कर चल रहे न्यूज़ चैनल का मालिक आइन रैंड के उपन्यास ' फाउंटेन हेड ' के नायक हॉवर्ड रॉक की तरह आदर्शवादी है। उसूल उसके जीवन की प्राथमिकता है।  उसका बेटा और दामाद एक भ्रष्ट राजनेता की मदद से अपने न्यूज़ चैनल पर  फेक न्यूज़ चला कर ईमानदार प्रधानमंत्री को सत्ता से हटा देते है।  उद्योगपति -राजनेता -न्यूज़ चैनल का गठजोड़ कैसे हरेक परिस्तिथि को अपने पक्ष में मोड़ लेता है , यह फिल्म उसका सुन्दर उदहारण है। आठ वर्ष पुरानी यह फिल्म देखते हुए दर्शक को महसूस होता है जैसे वर्तमान को हूबहू स्क्रीन पर उतार दिया गया हो। विश्वसनीयता की आखरी पायदान पर खड़े न्यूज़ चैनल , औद्योगिक घरानों के लालच , राजनैतिक हत्याए , कपड़ों की तरह बदलती वफ़ादारी -  ' रण ' हमारे समाज को आईना दिखाती है। यह कड़वा सच भी दर्शाती है कि निष्पक्षता के रास्ते पर चलने वाले चेनलों को दर्शकों का भी सहारा नही मिलता । टीआरपी का खेल उन्हें आर्थिक रूप से तंगहाल कर देता है ।

Thursday, May 10, 2018

जमीन से जुड़ा फिल्मकार : माजिद मजीदी

कोई भी  रचनाकार जिस माहौल में अपना लड़कपन गुजारता है उसकी झलक उनकी  रचनाओं में स्वाभाविक रूप से प्रतिबिंबित होने लगती है। उनका भोगा हुआ यथार्थ अनजाने ही उनकी लेखनी में उतर आता है। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद , मेक्सिम गोर्की या फ्रेंज़ काफ्का की अधिकांश रचनाओं में पाठक जीवन की  मधुरता व कटुताओं के साथ  उस दौर की सामाजिक बुनावट को भी  महसूस कर सकते है। इसी तरह के अनुभव महान फिल्मकारों की नजर को भी  आकार देते है। कोई भी फ़िल्म परदे पर आने से पहले कई बार उनके मानस में गुजरती है । तंगहाली में गुजारे  समय का  निचोड़  अनजाने ही उनके अनुभवों में दर्ज हो जाता है । खुद भोगे यथार्थ की पूंजी से संचित उनका अनुभव उनकी कृतियों में साफ़ झलकता है। ऐसे ही एक फिल्मकार है माजिद मजीदी। इस ईरानी फिल्मकार ने 1979 की  प्रसिद्द ईरानी क्रांति को नजदीक से देखा है जिसमे पहलवी वंश को हटाकर कट्टरपंथी अयातुल्लाह खोमेनी ने देश पर  इस्लामिक शासन लाद दिया था। माजिद  मजीदी और उनकी तरह के लिबरल फिल्मकारों की वजह से अस्सी नब्बे के दशक को दूसरी सांस्कृतिक क्रांति के रूप में याद किया जाता है। यह वह दौर था जब ईरानी फिल्मे वैश्विक फलक पर अपनी छाप छोड़ रही थी। फिल्मकारों के सामने अक्सर दो विकल्प रहते है। एक , या तो वे लोकप्रिय सिनेमा बनाये , जिससे उनकी तिजोरी भरती रहे , दूसरा   वैश्विक सोंच वाला सिनेमा बनाये जो सिनेमाई माध्यम को समृद्ध करते हुए कलात्मक सिनेमा को एक नई उचाई पर ले जाये । अपने पेंतीस  साल के सफर में माजिद मजीदी ने उन्नीस फिल्मे और डॉक्यूमेंटरीया निर्देशित कर अपने को दूसरी श्रेणी में स्थापित किया है। 
मानवतावाद मजीदी की फिल्मों का महत्वपूर्ण पहलु रहा है। यद्धपि उनकी फिल्मों की थीम समसामयिक होती है परन्तु कहानी में आधुनिक और प्राचिन जीवन शैली दोस्ताना ढंग से गुथी हुई साथ साथ चलती है। उनकी फिल्मों में सूफी संस्कृति की गंध महसूस की जा सकती है जो पूरी दुनिया की नजर  में ईरान की  सांस्कृतिक पहचान है। मजीदी दर्शक को बाध्य कर देते कि वह  मानवीय अनुभवों को काव्यात्मक लहजे में महसूस करे। 
अपनी फिल्म ' चिल्ड्रन ऑफ़ हेवन ' से ऑस्कर अकादमी की दहलीज पर ईरान के पहले  कदम रखाने  वाले मजीदी की फिल्मे हमें अपने मुंशी प्रेमचंद की कहानियों के गाँव की सैर करा देती है। जैसे जैसे आप शहर की उलझन भरी जिंदगी से दूर होने लगते है आपको भोले भाले लोग मिलना आरम्भ हो जाते है। ये वे लोग होते है जो शहरों की दिखावटी और बनावटी जिंदगी से दूर सुरक्षित बच गए है। ऐसी ही एक खूबसूरत बुनी हुई  फिल्म ' सांग ऑफ़ स्पैरो ' है। यह फिल्म हमें ठहरकर सोंचने को मजबूर करती है कि   हम आधुनिकता को तजकर मानवीय मूल्यों और मानवीयता को सहेज सकते है अन्यथा  'रोबोट ' बनने से  हमें कोई नहीं रोक सकता।  
चीन सरकार के निमंत्रण पर एक डॉक्यूमेंट्री बना चुके मजीदी पैगम्बर ' मोहम्मद ' ( 2015 ) पर भी फिल्म  बना चुके है। सत्यजीत रे और श्याम बेनेगल से प्रभावित इस फिल्मकार ने हालिया रिलीज़ हिंदी फिल्म ' बियॉन्ड द क्लाउड्स ' को निर्देशित किया है।

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...