Wednesday, April 24, 2019

सांवला सलोना है

बाजार अपना विस्तार कर चूका है। बाजार अब बाजार से  निकलकर हमारे घरों तक आ  पहुंचा है। बाजार अपनी यात्रा में सबसे पहले जिसे कुचलता है वे मानवीय संवेदनाएं ही होती है। घटना उत्तर प्रदेश के एक शहर की है। एक महिला ने अपने से उम्र में दो वर्ष बड़े पति को सिर्फ इस बात के लिए जिंदा जला दिया कि उसका रंग सांवला था ! भारतीयों की  गोरेरंग के प्रति आसक्ति की यह पराकाष्टा है। चुनाव के हल्ले में राष्ट्रिय स्तर के समाचार पत्र में अंतिम पेज पर छपी यह लोहमहर्षक खबर अगर समाज को आंदोलित नहीं करती तो मान लेना चाहिए कि संवेदनाएं शून्य हो चुकी है। 
ऐतिहासिक संदर्भ बताते है कि ' गौरवर्ण ' के लिए हमारा उतावलापन न केवल विदेशियों के हम पर ढाई सौ बरस शासन का परिणाम है वरन हमारे अवचेतन में भी इस तथ्य का गहरे से उतर जाना है कि गौरवर्णीय लोग ज्यादा बुद्धिमान , ज्यादा साहसी और ज्यादा समझदार रहे है। अंग्रेजों की बिदाई के बाद जैसे ही हमारे बाजार विकसित होने लगे हमारे सामने रूसी थे। शासक अंग्रेजों के बाद सहयोगी रुसी भी सुर्ख गोरे थे। जिस ब्रिटिश  शासन और अत्याचारों से हमें नफरत थी उनके रंग से हमें प्यार हो गया था।  बाजार ने यह बात गहरे तक उतार दी है कि सांवला रंग हीन  भावना और समाज के निम्न स्तर का प्रतिनिधित्व करता है। अगर जीवन में कुछ करना है तो वह गोरे  रंग की वजह से ही संभव हो पाएगा। अगर आपका रंग गेहुआ है तो उसे बदले बगैर आप आगे नहीं  बढ़ सकते।  
हमारी इसी कमजोरी को भुनाने के लिए 1978 में बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनि लीवर ने एक प्रोडक्ट बाजार में उतारा जिसका नाम था  ' फेयर एंड लवली ' .  गुजरे चालीस वर्षों से यह क्रीम गोरेपन को बेच रही है। इसका उपयोग कर कितने सांवले गोरे हुए इसका स्पस्ट आंकड़ा कंपनी के पास भी नहीं है। सत्ताईस अरब का व्यवसाय करने वाली यह क्रीम प्रतिवर्ष अठारह प्रतिशत की वृद्धि के साथ हिन्दुस्तानियो को गोरे रंग के सपने बेच रही है। भारत में हर वर्ष 233 टन त्वचा को गोरा बनाने वाली क्रीम की खपत होती है। कोक और पेप्सी से कही ज्यादा खर्च हिन्दुस्तानी अपने चेहरे के लिए कर रहे है !
 देश के अधिकांश अखबारों में रविवार को प्रकाशित होने वाले वैवाहिकी विज्ञापन हमारे अवचेतन में जमी लालसा का ही विस्तार नजर आते है। कोई भी विज्ञापन उठा लीजिए सभी विवाह योग्य लडकियां श्वेतवर्ण की ही होती है वही वधु चाहने वाले सारे वर ' फेयर कॉम्प्लेक्शन ' को ही वरीयता देते नजर आते है। ऐसे में उत्तर प्रदेश जैसी घटना की पुनरावर्ती हो जाए तो उसे क्षम्य नहीं माना जाना चाहिए ? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाहरी रंग और  आवरण से ज्यादा  व्यक्ति का चरित्र और स्वभाव महत्वपूर्ण होता है। शक्ल सूरत से  ज्यादा टिकाऊ सीरत रही है। 
 बहुसंख्यक समाज की  मानसिकता को बदल देने में बाजार की  शक्तियां किसी भी हद तक जा सकती है। मौजूदा समय में फ़िल्मी सितारे और नामचीन क्रिकेटर भी इस तरह के प्रोडक्ट के लिए विज्ञापन करते नजर आ रहे है। अधिकांश विज्ञापनों का  संदेश स्पस्ट होता है कि इसे आजमा कर उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा और वे हर नामुमकिन काम कर सकेंगे। यकीन नहीं होता है कि कोई खुलेआम भ्रम बेच रहा है और समझदार उसे खरीद भी रहे है। 
देश में चल  रंगभेद पर सबसे पहले फिल्मकार अभिनेत्री नंदिता दास ने आवाज उठाई थी। उन्होंने बाकायदा एक अभियान ' सांवला सलोना है ' ( द डार्क इस ब्यूटीफुल ) के माध्यम से त्वचा के आधार पर हो रहे भेदभाव के खिलाफ आरम्भ किया था। सांवले रंग के लोगों को नीचा दिखाने और उन्हें कमतर साबित करने वाले विज्ञापनों के विरुद्ध इस अभियान ने ' एडवरटाइजिंग स्टैण्डर्ड कॉउंसिल ' को अपनी आपत्ति भी दर्ज कराई। जवाब में कॉउन्सिल ने  विज्ञापनों के लिए एक गाइड लाइन जारी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली । भ्रामक और नस्लभेदी विज्ञापन आज भी बदस्तूर जारी है । 
यद्यपि चुनिदा ही सही कुछ सितारे इस विषय की गंभीरता को समझ कर और लुभावनी रकम ठुकरा कर गोरा बनाने वाली क्रीम का विज्ञापन करने से इंकार कर चुके है । उल्लेखनीय सितारों मैं रणवीर कपूर , रणदीप हुड्डा , कंगना राणावत और अनुष्का शर्मा प्रमुख नाम है । 
निसंदेह गोरे रंग का प्रचार करने में फिल्मो की अहम भूमिका रही है । हिंदी फिल्मों के अधिकांश गीत गोरे रंग का ही महिमा मंडन करते रहे है ।आर्क लाइट में दमकते नायिका के सौंदर्य ने देश की नवयुवतियों को वैसा ही बनने के लिए प्रेरित किया है । परंतु एक अपवाद भी है । गोरे रंग के हल्ले के बावजूद  1963 में बनी ' बंदिनी ' के एक गीत ' मोरा गोरा रंग लेइले , मोहे श्याम रंग दयीदे ' गा कर सांवली हो जाने की गुजारिश करती महान नूतन इकलौती नायिका नजर आती है। 

Thursday, April 11, 2019

सीमेंट की दरारों में उगा पीपल

जीवन सरल है या वजन है ? यह हमारी सोंच से तय होता है। सकारात्मक सोंच हमारी जीवन यात्रा की लय बदल सकती है। यधपि जीवन अनिश्चित है परन्तु यह पूरी तरह हम पर निर्भर है कि इसकी  बिखरी लड़ियों को समेट कर इसे संगीत की स्वरलिपि बनाये या डरावने सिस्मिक ग्राफ की शक्ल देवे। लेखक और साहित्यकार सरदार  खुशवंत सिंह ने सफल  जीवन जीने के कुछ सूत्र अपने अनुभव से विकसित किये थे। उनके सूत्रों में उल्लेखनीय थे -बचत की आदत डालना , गुस्सा नहीं होना , जीवन में समझदार जीवन साथी या दोस्त का हमेशा होना , जो आगे निकल गए उनसे ईर्ष्या नहीं करना और मन रमाने के लिए एक शौक जरूर होना। बेबाक बाते कहने के लिए मशहूर खुशवंत सिंह के जीवन में ये सारी बाते स्पस्ट झलकती थी। दुनिया में  कभी पहले या दूसरे नंबर के अमीर रहे विख्यात निवेशक वारेन बफे का मूलमंत्र था ' कभी क्रेडिट कार्ड का उपयोग मत करो ' महज तेरह  वर्ष की उम्र में स्टॉक मार्केट का रुख करने वाले बफे आज भी अपने पुश्तैनी घर में ही रहते है। बगैर तड़क भड़क के जीवन जीना भी एक मिसाल हो सकता है यह वारेन बफे से सीखा जा सकता है। पैसा साधन है साध्य नहीं , यह बात भी वारेन बफे और बिल गेट्स ने अपनी सम्पति का बड़ा हिस्सा परमार्थ में लगाकर दुनिया को दिखाई।    
जीवन को अलग नजरिए से देखना भी एक कला है जिसे थोड़े से प्रयास से आत्मसात किया जा सकता है। सिनेमाई इतिहास की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक ' फारेस्ट गंप ' का नायक आम लोगों से थोड़ा ' धीमा ' है। वह
मानसिक रूप से कमजोर है परन्तु अपने आसपास के लोगों के सिर्फ सकारात्मक पहलुओं को ही देखता है। वह उनके बाहरी रूप पर कोई राय नहीं बनाता , वे जैसे है उसी रूप में उन्हें स्वीकारता है।  वह चाहता है कि दुनिया में कोई किसी का शोषण न करे ! 
स्टीव जॉब ने जिन विकट परिस्तिथियों में अपने कैरियर की शुरुआत की थी वैसे हालात लगभग  सभी की जिंदगी में आते है। कुछ लोग धैर्य बनाये रखते हुए अपने व्यवहार को संतुलित रखते है परंतु कुछ झुँझला जाते है। झुंझलाहट दरअसल अधीरता की निशानी है जिसके बढ़ने का मतलब है कि वह व्यक्ति अपनी सरलता को खोता जा रहा है। एक बार यह चक्र आरंभ हुआ तो आप नैसर्गिकता से दूर होते जाते है जो  सफल जीवन की अनिवार्यता है। 
                 सरल और सकारात्मक दृष्टिकोण  से ही रोजमर्रा के जीवन में खुशियां आती है। हमें यह बात मानकर चलना चाहिए कि खुशियां यु ही रास्ते में पड़ी हुई नहीं मिलती, या तो उन्हें कमाना पड़ता है या फिर उनके लिए कुछ  कीमत अदा करनी होती है। हमने सीमेंट की दरारों में पीपल को पनपते देखा है। विपरीत परिस्तिथियों में खुद को थामे रखना आसान नहीं है। परंतु जो ऐसा कर जाते है वे ही जीवन की सुंदरता का आनंद ले पाते है।  एक और कालजयी फिल्म ' परसुइट ऑफ़ हैप्पीनेस ' का  नायक क्रिस गार्डनर अकल्पनीय मुश्किल स्थितियों के बावजूद जिस तरह संयत रहता है वह प्रेरणादायी है। पत्नी उसे इसलिए छोड़ देती है कि उसका जॉब अच्छा नहीं है।पत्नी के साथ ही घर और कार भी चली जाती है।  छे वर्ष के बेटे की जिम्मेदारी के साथ उसे  काम भी तलाशना है  और रात को सोने के लिए आसरा भी ढूँढना है लेकिन क्रिस हार  नहीं मानता उसे दुनिया से ज्यादा खुद पर विश्वास है। अपनी छोटी छोटी सफलता को वह उत्सव की तरह मनाता है।   वास्तविक कथानक पर आधारित यह फिल्म जीवन के कई सबक एक साथ दे जाती है। भविष्य अनिश्चित है , नयी शुरुआत करने की कोई निश्चित उम्र नहीं है , जब तक आप प्रयास करना नहीं छोड़ते उम्मीद आपका दामन थामे रहती है - इन सबसे गुजरकर जो भाव हमें महसूस होता है वही सफल जीवन है , वही खुशियां है , यह वही है जिसकी सबको तलाश है। 

Sunday, April 7, 2019

चॉकलेट का डिब्बा है जिंदगी !

जिंदगी सरल हो सकती है - अगर हम चाहे तो ! यह एक पंक्ति हमारी जीवन यात्रा की लय बदल सकती है। यह एक सर्व स्वीकार्य तथ्य है कि जीवन एक अबूझ पहेली है। इस पहेली को जीवन जीते हुए ही सुलझाया जा सकता है। न तो इसका फिक्स सिलेबस है न ही इसके लिए कोई हैंड बुक बनी है।  ' फारेस्ट गंप ' ऐसी ही एक फिल्म है जो हमें जीवन जीने के तरीके सिखाती है। 1994 में प्रदर्शित यह अमेरिकन  फिल्म श्रेष्ठ्तम फिल्मो में शामिल हो चुकी है। फारेस्ट गंप ' ऐसे व्यक्ति की जिंदगी  को दर्शाती है जिसे जीवन से कुछ नहीं चाहिए। वह सिर्फ वात्सल्य , स्नेह और अन्वेषण के लिए ही जी रहा है। वह कभी नहीं चाहता है कि दुनिया में कोई किसी का शोषण करे ! उसे देखते हुए लगता है मानो वह एक यात्रा पर है जिसे हम लोग जीवन कहते है। यद्धपि वह हमारी तरह तेज नहीं है। हम उसे मंद बुद्धि भी कह सकते है परन्तु उसकी यही एक कमी उसे कमतर नहीं  बेहतर बनाती है । उसे देखते हुए कई बार महसूस होता है कि हम नाहक ही गैर जरुरी चीजों के लिए दौड़ लगा रहे है।  
विंस्टन ग्रोव के लिखे उपन्यास ' फारेस्ट गंप (1986) पर रोबर्ट ज़ेमेकिस ने 1994 में फिल्म बनाई और फारेस्ट की काया में उतरे अड़तीस वर्षीय टॉम हेंक। 1994 का साल हॉलीवुड के लिए कई मायनो में उल्लेखनीय रहा है। इसी एक वर्ष में फारेस्ट गंप के अलावा पल्प फिक्शन , शॉसांक रेडमशन , स्पीड और ' द लायन किंग ' जैसी फिल्मे रिलीज़ हुई थी जिन्हे सुपर हिट भी होना था और ट्रेंड भी सेट करना था। यह गजब का संयोग है कि इन सभी फिल्मों ने अपने जॉनर में मिसाल कायम की है। 
फारेस्ट गंप की बचपन से लेकर अधेड़ होने तक की कहानी दर्शक के सामने से गुजरती है। वह मंदबुद्धि है परंतु कांच की तरह पारदर्शी मन का भोला भाला व्यक्ति है। अपने बचपन की दोस्त जेनी उसका इकलौता प्यार है जिसे जेनी की बेवफाई के बावजूद वह अंत तक निभाता है। बचपन में ' एल्विस प्रेस्ले ' उसका पडोसी है।वह कॉलेज फूटबाल का चैम्पियन बनता है  बड़ा होकर वह बहुचर्चित ' वियतनाम युद्ध ' में हिस्सा लेता है। युद्ध के दौरान उसका अश्वेत दोस्त ' बूबा ' मारा जाता है जिसका सपना झींगा मछली का बिज़नेस करने का होता है।  युद्ध से लौटकर फारेस्ट राष्ट्रपति मैडल से सम्मानित होता है और झींगा मछली का बिज़नेस शुरू करता है। इस काम में सफल होकर वह पूरी कंपनी बूबा के परिवार को सौंप देता है। पूरी फिल्म के दौरान हम फारेस्ट को बीसवीं सदी के अमेरिकी इतिहास की बड़ी घटनाओ का साक्षी होते देखते है। वह जॉन ऍफ़ केनेडी से मुलाकात करता है और ' बीटल्स ' के  जॉन लेनन से भी मिलता है। वह क्रॉस कंट्री दौड़ भी लगाता है और पिंग पांग ' खेलते हुए चीन के खिलाडी को भी हराता है। कुख्यात वाटरगेट स्कैंडल के भंडाफोड़ का भी वह चश्मदीद बनता है । इस दौरान जेनी उसके जीवन में आती जाती रहती है। वह हरबार उसके विवाह के प्रस्ताव को ठुकराती है। अंत में एक गंभीर बीमारी से ग्रसित होकर वह फारेस्ट के पास लौटती है। विवाह के एक वर्ष बाद  बेटे को जन्म देकर उसकी मृत्यु हो जाती है। 
टॉम हेंक फारेस्ट गंप के किरदार के लिए निर्माता की पहली पसंद नहीं थे।  उनसे पहले जॉन ट्रावोल्टा , बिल मुर्रे और जॉन गुडमैन को प्रस्ताव दिया गया था परंतु तीनों ने ही इसे नकार दिया। इसी तरह जेनी की भूमिका के लिए डेमी मूर और निकोल किडमैन जैसी ख्यातनाम तारिकाओं से संपर्क किया गया  और उनके इंकार के बाद आखिरकार रोबिन राइट पेन को चुना गया। कंप्यूटर जनित दृश्यों के सुंदर उपयोग  ने इस काल्पनिक कथानक को हकीकत के एकदम नजदीक पहुंचा दिया है। 
अपने सजीव अभिनय से टॉम हेंक ने इस फिल्म के लिए ' बेस्ट एक्टर ' का ऑस्कर कमाया और फिल्म को ' बेस्ट पिक्चर ' के ऑस्कर से नवाजा गया। 
 "जीवन चॉकलेट के डिब्बे की तरह है , आप कभी नही जान पाते कि आपको क्या मिलने वाला है  " इस फ़िल्म का बहुचर्चित संवाद इस कहानी  का सारांश है ।
 आमिर खान ने अपने चौपनवे जन्मदिन पर घोषणा की है कि उन्होंने फारेस्ट गंप के अधिकार खरीद लिए है और इसे  हिंदी में ' लाल सिंह चड्ढा ' के नाम से बनाया जाएगा। निसंदेह शीर्षक भूमिका वे ही निभायेंगे। किसी भी किरदार में उतरने के लिए आमिर जितने जतन करते है उसे देखते हुए उम्मीद की जा सकती है कि वे इस जटिल पात्र को हूबहू स्क्रीन पर उतार भी  देंगे। परंतु इस फिल्म के विवादास्पद होने की संभावना भी बन सकती है। ' लाल सिंह चड्ढा ' एक सिख युवक होगा और किसी सिख का मंदबुद्धि होना इस समुदाय के लोग कितना पचा पाएंगे , देखने वाली बात होगी। इसी तरह वह  कौनसे दिवंगत प्रधानमंत्रियों से मुलाक़ात करेगा यह बात भी कइयों को बैचेन कर देगी !
बहरहाल 'लाल  सिंह चड्ढा ' को आने में समय लगेगा तब तक आप ' फारेस्ट गंप ' देख सकते है। इस फ़िल्म के कई प्रसंग आपको अंदर तक भिगो सकते हैं । एक सुन्दर हृदय स्पर्शीय फिल्म देखना यादगार अनुभव हो सकता है। 

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...