Tuesday, February 26, 2019

सिनेमा के परदे पर युद्ध की विभीषिका



रक्षा मामलों के कुछ विशेषज्ञों  का  मानना है कि भारत पाकिस्तान के मध्य अगर युद्ध हुआ तो यह विश्व युद्ध का रूप ले लेगा। वे इस बात पर भी जोर देते है कि दोनों ही देश युद्ध को अंतिम विकल्प के रूप में ही चुनना पसंद करेंगे। खबर है कि पुलवामा हादसे के पांच दिन पूर्व ही पाकिस्तान ने अपनी सेना को सतर्क करना आरम्भ कर दिया था। इसके बाद भी अगर सत्तर सालों में अपने पड़ोसी का चाल चलन और नियत हम नहीं समझ पाए तो यह हमारी नादानी ही मानी जाएगी।
 बावजूद जबानी जंग के अगर युद्ध होता भी है तो उसके परिणामो का आकलन कर लिया जाना चाहिए। यह पहला ऐसा युद्ध होगा जो सिर्फ सरहद पर नहीं लड़ा जाएगा। देश की सीमाओं से  दूर बसे शहरी क्षेत्र इसकी जद में होंगे। परिणाम स्वरुप जान माल के नुकसान का सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है । यह भी तय है कि  हथियारों के ढेर पर बैठे दोनों ही देश अपने सामान्य नागरिकों की हानि स्वीकार नहीं करेंगे। 
भारत में बंटवारे के बाद से ही युद्ध की विभीषिका पर फिल्मे बनती रही है और साहित्य लिखा जाता रहा है।
बहुत से वरिष्ठ साहित्यकारों ने बंटवारे के दौरान भोगे यथार्थ को अपने शब्द दिए है। आतंक , उत्पीड़न और नफरत से जानवर बनते मनुष्य के उदाहरणों के दृश्यों ,  शब्दों से गुजरते हुए साठ सत्तर के दशक के बाद जन्मा  वह पाठक भी सिहर जाता है जिसने बंटवारे को देखा नहीं है , सिर्फ सुना है । खुशवंत सिंह की कृति ' ट्रैन टू पाकिस्तान ' भीष्म साहनी की ' तमस ' और अमृता प्रीतम की ' पिंजर ' साहित्य होते हुए भी ऐतिहासिक दस्तावेज है। इन कहानियों को पढ़ते हुए पाठक जिस मानसिक  त्रासदी से गुजरता है उसके बाद वह नफरत शब्द से ही नफरत करने लग जाता है। 
इन तीनो ही कृतियों को सिनेमाई माध्यम में बदला गया है और उल्लेखनीय बात यह है कि किताब की ही तरह यह कहानियां परदे पर भी उतना ही सटीक प्रभाव उत्पन्न करने में सफल रही है। समय समय पर बनी युद्ध  फिल्मों और देशभक्ति के गीतों ने भी राष्ट्र प्रेम की भावना को बढ़ाने में महती भूमिका निभाई है। यधपि दर्जनों युद्ध फिल्मों में से कुछ ही फिल्मे वास्तविकता और तथ्यों के नजदीक रही है। 1964 में चेतन आनंद निर्देशित ' हकीकत ' चीन के साथ युद्ध की घटनाओ पर आधारित थी। युद्ध  को ही केंद्र में रखकर रची गई कुछ फिल्मों में से ' बॉर्डर ' जे पी दत्ता की सर्वाधिक सफल फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म के प्रदर्शन के साथ एक कड़वी याद भी  जुडी हुई है।1997 की गर्मियों में  दिल्ली के उपहार थिएटर में इस  फिल्म के प्रदर्शन के दौरान आगजनी की वजह से 59 दर्शक अपनी जान गँवा बैठे थे। 
दुनिया भर का इतिहास युद्ध के  रक्तरंजित किस्सों से भरा हुआ है। इन किस्सों की कहानियाँ साहित्य का भी महत्वपूर्ण अंग बन चुकी है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ही दुनिया ने पहला विश्व युद्ध देख लिया था। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत ने दुनिया को परमाणु बम के प्रभावों से अवगत कराया । इतिहास की यही त्रासदी है कि कोई उससे सबक नहीं लेता है। इन युद्धों को केंद्र में रखकर यूरोप और अमेरिका में बहुत अच्छी फिल्मे बनी है। अकेले हॉलीवुड ने ही  इस विषय पर कालजयी फिल्मे बनाई है। उल्लेखनीय फिल्मों में ' द ब्रिजेस ऑन  रिवर क्वाई (1957) द गन्स ऑफ़ नवरोन (1961) द लांगेस्ट डे (1962) द ग्रेट एस्केप (1963) द पियानिस्ट (2002) हर्ट लॉकर(2008 ) युद्ध की विभीषिका और आम नागरिक पर पड़ने वाले शारीरिक और मानसिक यंत्रणा  का सटीक चित्रण करती है। 2001 में 'लगान ' को परास्त कर ऑस्कर जीतने वाली ' नो मेंस लैंड ' युद्ध के दौरान सैनिकों की मानसिकता और सरकारों की असंवेदनशीलता बगैर लाग लपेट के उजागर कर देती है।
 
फ्रेंच भाषा के शब्द ' देजा वू ' का मतलब है भविष्य को वर्तमान में देख लेना या महसूस कर लेना। मनोविज्ञान के इस भाव को लेकर अमेरिकी टीवी चैनल सी बी एस ने 1958 में विज्ञान फंतासी लेखक रॉड सेरलिंग की कहानियों पर आधारित धारावाहिक 'द टाइम एलिमेंट 'प्रसारित किया था। कहानी के नायक को आभास हो जाता है कि अगले दिन अमेरिकी नौसेना के बंदरगाह ' पर्ल हार्बर ' पर जापानी विमान हमला करने वाले है। वह सबको सचेत करने की कोशिश करता है परन्तु कोई उसकी बात पर विश्वास नहीं करता। अगले दिन वाकई हमला होता है और वह भी उस हमले में  मारा जाता है। पर्ल हार्बर हादसे के जख्म ने ही अमेरिका को जापान पर परमाणु बम गिराने के लिए मजबूर किया था। यह ऐसा युद्ध था जिसके निशान मानव जाति के शरीर और आत्मा दोनों पर आज भी नजर आते है। 

Wednesday, February 20, 2019

गर फिरदौस बर रुए जमीं अस्त ..!



पुलवामा की घटना के बाद माहौल में है -  शोक ! निराशा !  नाराजगी ! और स्तब्धता ! यह मान लिया गया था कि सब कुछ ठीक है। सुरक्षाबलों की नियमित चलने वाली  कार्रवाई से ढाई सौ दशहत गर्दों को परलोक रवाना कर दिया गया था। कश्मीर शांत लगने लगा था। परन्तु यह तूफ़ान के पहले की शांति थी। एक ऐसी पटकथा लिखी जा रही थी जिसके जख्म जल्दी नहीं भरने थे। लगभग ऐसा ही हुआ जैसा आतंक के रहनुमाओ ने सोंचा था। कश्मीर की फ़िज़ाए हमेशा की तरह मनभावन थी। वातावरण में कोहरा और पार्श्व में आसमान छूते चिनार के दरख़्त। कोई और समय होता तो इस पल ली हुई सेल्फी जीवन भर अलबम के साथ यादों में दर्ज रहती। परन्तु ऐसा बिलकुल नहीं था। यह एक स्वप्न के टूटने की तरह था। जिस वाहन में जवान थे वह विस्फोट के बाद स्टील  की टूटी फ्रेम के ढेर में बदल चूका था। चवालीस बदन बिखर चुके थे। जिस किसी ने भी इस दृश्य को अपने टेलीविज़न  स्क्रीन पर देखा है उसके मानस में यह पल एक दुःस्वप्न की तरह टंक गया है। 
सोशल मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया पर इस नृशंस नरसंहार के विरोध में गुस्सा महसूस किया जा सकता है । देश का साधारण नागरिक भी अपने सुझाव इस उम्मीद से सरकार की तरफ  सरका रहा है कि कैसे
करके भी इस समस्या का समाधान होना चाहिए। इस समाधान के लिए कुछ अलग तरह की सोंच और कड़े कदम उठाये जाने चाहिए। हम मानकर चलते है कि आतंक की सभी घटनाओ में  पाकिस्तान का अदृश्य हाथ मौजूद रहा है । हमें यह भी मान लेना चाहिए कि पाकिस्तान कभी भी अपनी प्रवृति नहीं बदलने वाला है। भले ही आप कितनी ही सदाशयता दिखालो वह अपना स्वभाव नहीं  बदलने वाला। हमें इसी बिंदु से अपनी रणनीति की शुरुआत करनी होगी। 
लोकप्रिय टीवी धारावाहिक ' गेम ऑफ़ थ्रोन ' की कई समानांतर कहानियों में से एक कहानी की नायिका सांसा स्टार्क नेत्रहीन है।  एक दृश्य में खलनायिका सांसा को लकड़ियों से पीटती है। निरीह सांसा उससे जान की भीख मांगते हुए कहती है - कम से कम मेरे अंधेपन पर तो रहम करो , में अपना बचाव भी नहीं कर सकती। खलनायिका वास्प का जवाब होता है ' तुम्हारा अंधापन तुम्हारी समस्या है ! मेरी नहीं ! पाकिस्तान तो अपने मंसूबे हर हाल में पुरे करेगा ही , हमें ही  सजग रहकर उसकी चाल को निष्फल करना है। 
हमें याद रखना चाहिए कि एक जमाने में पंजाब भी कुछ इसी तरह से आतंक के चुंगल में था। उसका समाधान पंजाब में ही तलाशा गया था।  हमेशा की तरह सरहद पार से खालिस्तानियों को दाना पानी मिलता रहा था। जब भारत अफगानिस्तान में तालिबान से बातचीत के अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों को समर्थन देता है तो भारत सरकार कश्मीर पर बात करने से क्यों घबराती है। भारत सरकार को उतरी आयरलैण्ड से सबक लेना चाहिए जिसने हिंसक हो जाने की हदे पार करदी थी। ब्रिटेन सरकार ने इस समस्या को सौहाद्रपूर्ण तरीके से ही सुलझाया था। कश्मीर समस्या का हल कश्मीर से ही निकलेगा।वहां हुर्रियत जैसा राजनीतिक समूह और
मजबूत सिविल सोसाइटी के लोग भी है जिन्होंने इस विवाद पर शांतिपूर्ण पहल की है।  अब तक की समस्त  सरकारों ने मान लिया था कि आतंक को खत्म करने के लिए आतंकियों का सफाया जरुरी है। इस नीति ने आतंकियों को तो कम किया परन्तु भारतीय फौज का भी काफी  नुक़सान किया लेकिन  नए हथियार उठाने वालों को हतोत्साहित नहीं कर पाये।   
कश्मीर चुनावी समस्या नहीं है जिसे चुनाव बाद हाशिये पर रख दिया जाए। न ही इसे किसी युद्ध से सुलझाने की जोखिम ली जा सकती है। भारत पाकिस्तान दोनों का ही परमाणु संपन्न होना युद्ध को किस विस्फोटक अंत की और ले जा सकता है , सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। मोस्ट फेवर्ड नेशन ' का दर्जा पाकिस्तान से वापस लेकर भारत ने देर से ही सही, एक सही दिशा में कदम उठाया है। अब इसे आतंकवादी राष्ट्र घोषित करने का साहस और कर लेना चाहिए। यह न हो सके तो  कम से कम सिंधु जल संधि को ही निरस्त कर देना चाहिए। जब तक आप अपनी ताकत नहीं दिखाएंगे तब तक कमजोर ही समझे जायेगे।  
भारत के नेताओ को एक बात और समझ लेनी चाहिए कि ' शी जिनपिंग ' को झूला झुलाने , नवाज शरीफ के पारिवारिक विवाह में बिन बुलाये  शामिल  होने या डोनाल्ड ट्रंप से गले मिलना  उन्हें ख़बरों में तो ला देता है परन्तु कूटनीतिक बढ़त नहीं दिलाता है। 
सनद रहे ! 1989 से 2018 तक 47000 लोग कश्मीर में आतंकवाद का शिकार हो चुके है। गायब हुए या पलायन कर गए लोगों की संख्या इसमें शामिल नहीं है। मानवाधिकार संगठन इस संख्या को तिगुनी बताते है। नरक बन चुके इस राज्य को मुख्यधारा में लाने के लिए कड़े कदम उठाने ही होंगे।
  बहादुर शाह जफ़र ने कश्मीर के लिए  कभी फ़ारसी में  यु ही नहीं कहा था ' गर फिरदौस बर रुए जमीं अस्त , हमीं अस्त ओ हमीं अस्त ओ ! ( धरती पर कही स्वर्ग है तो वह यही है यही है ) अपनी जन्नत में आग लगाने वालों को हम माफ नही करेंगे । अपने सुरक्षाबलों के जीवन की रक्षा के लिए हर मुमकिन ताकत का इस्तेमाल करेंगे !   यह संकल्प सरकार का भी है और इस देश के आम नागरिक का भी ! 

Wednesday, February 13, 2019

अभिनय की आधी सदी : अमिताभ बच्चन

तारीखों के साथ घटनाएं न जुडी हो तो वे सिर्फ कोरी  तारीख ही रहती है। किसी प्रसंग के जुड़ने से तारीखे  इतिहास बन जाया करती है। 15 फरवरी एक ऐसी ही तारीख है जिसने अमिताभ बच्चन की जिंदगी तय कर दी थी। अमिताभ अपनी अच्छी भली नौकरी छोड़ ख्वाजा अहमद अब्बास के दर पर इस उम्मीद से पहुंचे थे कि यहाँ जरूर काम मिल जाएगा।  परन्तु इतना आसान नहीं था। ख्वाजा साहब ने उन्हें यह कह कर लौटा दिया कि साहबजादे ! पहले अपने वालिद से फिल्मों में काम करने के लिए  लिखित अनुमति की चिट्ठी लेकर आओ। चिट्ठी आई और अमिताभ नाम मात्र की फीस पर ' सात हिन्दुस्तानी ' के लिए अनुबंधित कर लिए गए। तारीख थी 15 फ़रवरी 1969 ! महानायक 15 फ़रवरी 2019 को फिल्मोद्योग में अपनी अभिनय यात्रा के  पचास वर्ष पूर्ण कर रहे है।  
परदे पर आने से  पहले मृणाल सेन उनकी आवाज भुवन शोम ' में उपयोग कर चुके थे । यह वही आवाज थी जिसे आल इंडिया रेडियो ने खारिज कर दिया था । यहां अमीन सयानी ने अमिताभ को पीछे छोड़ कर एनाउंसर की नॉकरी हासिल की थी । ' जुरासिक पार्क ' में सैम निल एक जगह कहते हैं ' जिंदगी अपना रास्ता ढूंढ लेती है ' अमिताभ के संदर्भ में आज हम कह सकते हैं कि नियति अपना रास्ता तलाश लेती है ।  उस दौर की परिस्थितियों का  अगर आज आकलन किया जाय तो समझ आता है कि कायनात उन्हें सफल और लोकप्रिय  होते देखना चाहती थी ! 
' सात हिन्दुस्तानी ' शुरुआत थी एक बड़े सफर की जिसमे आगे कई उतार चढ़ाव आना थे। अगली ही फिल्म में वे उन लोगों के साथ काम कर रहे थे जो उस दौर के बड़े नाम थे।  वहीदा रहमान की सुंदरता पर मोहित अमिताभ को ' रेशमा और शेरा ' में अपनी चहेती  नायिका के साथ एक ही फ्रेम में आना पुरूस्कार से कम नहीं था। आज भी जब  उनसे दुनिया की सबसे सुंदर महिला का नाम पूछा जाता है तो वे आदर के साथ वहीदा रहमान का ही जिक्र करते है।
 ' आनंद ' का घटना इस लिहाज से भी  महत्वपूर्ण था कि यह  ऋषिकेश मुखर्जी जैसे निर्देशक के साथ नये रिश्ते की नींव रखने की शुरुआत थी जिसकी वजह से अमिताभ की कुछ कालजयी फिल्मे इस दौर में सामने आई। साथ ही सामने आया अमिताभ का भावप्रणय अभिनय। वक्त के कई मुकाम ऐसे भी आये जब अमिताभ अपनी राह से भटकने लगे या यह कहे कि ' एंग्री यंग ' के मुखोटे ने उनकी ' इंटेंस एक्टिंग ' पर ग्रहण लगा दिया तब तब उनके लिए दुआ की जाने लगी कि उन्हें ऋषि दा जैसे निर्देशक के यहाँ हाथ जोड़कर काम माँगना चाहिए। ऋषिकेश मुखर्जी इकलौते निर्देशक थे जिन्होंने बच्चन जी को दस फिल्मों में निर्देशित किया था। इन सभी फिल्मों की विशेषता थी शानदार कहानी , लाजवाब अभिनय और मीनिंगफुल माधुर्य से सजे गीत। उनकी लोकप्रिय ब्लॉकबस्टर से उलट इन फिल्मों में  वे  किसी खलनायक की कुटाई पिटाई करते नजर नहीं आते। समय के बहाव और उनकी मेहनत से  गढ़ी छवि ने बाद के वर्षों में अभिनय की इस रेंज को लील लिया। यधपि उनके इंटेंस अभिनय के शेड  रह रहकर सामने आते रहे है , फिर चाहे  वे ' ब्लैक ' के देवराज सहाय के रूप में हो या ' पा ' के आरो के रूप में  या ' सरकार ' के सुभाष नागरे के रूप में।शुक्र है !  जब जब सितारा अमिताभ उन पर हावी होने लगता है तब तब अभिनेता अमिताभ उन्हें आलोचना से बचाने सामने आ जाता है। 
सलीम खान ने ' जंजीर ' लिखी थी और क्रेडिट्स में जावेद अख्तर का नाम दिया । इस लेखक जोड़ी ने राजेश खन्ना की ' हाथी मेरे साथी ' भी लिखी थी। समय का यह ऐसा दौर था जब राजेश खन्ना खुद  को भगवान मान चुके थे और  निसंदेह वे लोकप्रियता के आसमान पर थे । उनके अहं की कोई इंतेहाँ नहीं थी। काका के अहंकार ने सबसे पहले सलीम जावेद को आहत किया था। इस घटना के बाद इन दोनों ने तय कर लिया कि वे बच्चन को खन्ना से बड़ा स्टार बनायेगे। समस्या यह थी कि सत्तर के दशक का कोई भी अभिनेता इस फिल्म को करने को राजी नहीं था धरमजी , देव साहब , राजकुमार तो दूर नवीन निश्चल जैसे एक्टर भी इस कहानी का हिस्सा बनने को तैयार नहीं थे। चरित्र अभिनेता प्राण और ओमप्रकाश की सिफारिश पर अनमने मन से प्रकाश मेहरा ने ' जंजीर ' बनाई।  बस उसके बाद का इतिहास बताने की जरुरत नहीं है। 


 सलीम जावेद की जोड़ी ने अमिताभ बच्चन के लिए अपनी पार्टनरशिप शुरू की थी और उनके लिए ही लिखी स्क्रिप्ट को लेकर मतभेद के चलते उसे ख़त्म किया। ' मि इंडिया ' की पटकथा अमिताभ को ध्यान में रखकर लिखी गई थी परन्तु उनके इनकार के बाद पनपी  गलतफहमियों ने इस सुपरहिट जोड़ी को अलग कर दिया।
  हरेक उतार के बाद जिस तरह अमिताभ ने वापसी की है यह उनके  सहज व्यक्तित्व की उपलब्धि रही है। लोग हमेशा जानने को उत्सुक रहे है कि क्या चीज है जो उन्हें अमिताभ बच्चन बनाती है। टूटकर भी न बिखरना उनके डी एन ए में ही घुला हुआ है संभवतः। डॉ हरिवंशराय बच्चन ने एक साक्षात्कार में अपने पुत्र के व्यक्तित्व को कुछ इस तरह परिभाषित किया था कि अमिताभ चीजों को गहराई तक उतर कर समझने की कोशिश करते है फिर वह चाहे आधुनिक कविता हो या जिंदगी , शायद इसीलिए वे हार नहीं मानते। यही समझ उन्हें उस समय और  परिपक्व बना देती है जब वे शादीशुदा होते हुए प्रेम करने का दुस्साहस कर बैठते है और बात बिगड़े उससे पूर्व अपने घर लौट आते है। 
अमिताभ के प्रशंसकों को अक्सर इस बात का गिला रहा है कि उनका इतना प्रभाव और पहुँच होने के बाद भी उन्होंने भारतीय सिनेमा के  ख्यातनाम निर्देशकों के साथ काम नहीं किया। यधपि उन्होंने अब तक दो सौ से अधिक फिल्मों में काम किया है परन्तु बिमल रॉय , बासु चटर्जी , राजकपूर , सत्यजीत रे एवं गुलजार   के साथ उनकी एक भी फिल्म नहीं है। गुलजार साहब ने तो कोशिश भी की थी परन्तु पटकथा से आगे बात नहीं बढ़ पाई। सत्यजीत रे उनके लिए फिल्म बनाना चाहते थे परन्तु संकोच के चलते पहल नहीं कर पाए। उन्होंने जया बच्चन को अपनी हिचकिचाहट कुछ इस तरह बताई थी कि ' में जमाई बाबू को लेकर एक फिल्म बनाना चाहता हु परन्तु उनकी मार्केट प्राइस अदा करने की मेरी हैसियत नहीं है !
 फोर्ब्स पत्रिका के धनाढ्यों की सूची में टॉप टेन में रहे अमिताभ अपनी सिनेमाई छवि में 'अभिजात्य विरोधी ' भूमिकाओं में ज्यादा सराहे गए। मेगा स्टार , मिलेनियम स्टार जैसे विशेषणों के बावजूद उनके पैर हमेशा  जमीन पर नजर आये है। के बी सी में सामान्य से प्रतियोगी को विशिष्ट होने का अहसास दिलाती उनकी ' बॉडी लैंग्वेज ' हो  या फिर उनके ब्लॉग पर आने वाले पाठकों को सहजता से  जवाब देने की शैली , उन्हें देश विदेश के आमजन में ऐसे ही लोकप्रिय नहीं बनाती। इन सबसे जुदा एक गुण जो उन्हें अपने समकालीन अभिनेताओं से अलग खड़ा करता है वह है अनुशासन ! काम के प्रति समर्पण ! फिल्मों से इतर जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी उनके इस गुण को सराहा अपनाया जाता है।  जनमानस में इतनी लोकप्रियता और स्नेह अन्य सितारों के लिए अब भी एक स्वप्न से कम नहीं है।
उनके लाखों प्रशंसकों की यही कामना है कि अपने हॉलीवुड के समकालीनों मॉर्गन फ्रीमेन , जैक निकोलसन , क्लिंट ईस्टवूड और रोबर्ट रेडफोर्ड की तरह वे नए चरित्रों में उतर कर सिनेमाई माध्यम को पचास साला सफर के बाद भी रोशन करते रहे। 

Saturday, February 9, 2019

बेगानी शादी का ऑस्कर


कई दशकों तक हम फिल्मे देखने वालों को ' ऑस्कर ' से लगाव नहीं था।  हम हमारे ' फिल्म फेयर ' से खुश थे। परन्तु 2001 में ' लगान ' का ऑस्कर की विदेशी भाषा श्रेणी में चयन होना हमारी महत्वकांक्षाओ को पंख लगा गया। यद्धपि ' लगान ' पिछड़ गई परन्तु हमारे फिल्मकारों को एक सुनहरा सपना दिखा गई। न सिर्फ फिल्मकार वरन आम दर्शक भी यही चाहने लगा कि लॉस एंजेलेस के कोडक थिएटर के रेड कार्पेट पर भारतीय अभिनेताओं को चहल कदमी करता देखे। इस दिवा स्वप्न के आकार लेने की एकमात्र वजह थी भारतीय फिल्मों को वैश्विक स्वीकार्यता मिलती देखने की लालसा क्योंकि भारत आज भी हर वर्ष  दुनिया भर में बनने वाली कुल फिल्मों की संख्या की आधी फिल्मे बनाता है। अगर संख्या के आधार पर ही ऑस्कर मिलता तो हम निश्चित रूप से सबसे आगे होते , बदकिस्मती से ऐसा संभव नहीं है। 
हमारे लिए यह जानना जरुरी है कि ' ऑस्कर ' सिर्फ और सिर्फ अमेरिकी फिल्मों के लिए है। 1929 से आरम्भ हुए इस  फ़िल्मी पुरूस्कार में विदेशी भाषा की फिल्मों को शामिल करने की शुरुआत 1956 में हुई थी।  ठीक इसी के आसपास भारत में फिल्म फेयर अवार्ड्स शुरू हुए थे। 1958 में ' मदर इंडिया ' पहली भारतीय फिल्म बनी जिसे विदेशी भाषा श्रेणी में पुरुस्कृत होने का गौरव मिला था।  चूँकि नब्बे के दशक के आते आते टेलीविज़न ने सेटेलाइट के जरिये  अपना दायरा फैलाना आरम्भ कर दिया था तो ऑस्कर समारोह का प्रसारण अमरीकी महाद्वीप से निकलकर खुद ब खुद पूरी दुनिया को मोहित करने लगा था। भव्यता , अनूठापन , ताजगी और चकाचौंध से लबरेज यह समारोह दुनिया के साथ भारत को भी अपने आकर्षण में बाँध चूका था। देश में ऑस्कर को लेकर जूनून बढ़ने की एक वजह यह भी थी कि  नब्बे के दशक आते आते ' फिल्म फेयर ' अपनी साख गंवाने लगे थे। नए टीवी चैनल खुद अपने ही अवार्ड्स बांटने लगे थे। प्रतिभा और गुणवत्ता की जगह चमक धमक शीर्ष पर आगई थी। रेवड़ियों की तरह बटने वाले पुरुस्कारों ने फ़िल्मी पुरुस्कारों की विश्वसनीयता को धरातल पर ला दिया था। फिल्म फेयर की साख 1993 में उस समय रसातल में चली गई थी जब स्टेज पर  डिम्पल कपाड़िया ने बगैर लिफाफा खोले अनिल कपूर को बेस्ट एक्टर घोषित कर दिया था जबकि कयास आमिर खान के लगाए जा रहे थे।
   यद्धपि हालात आज भी ज्यादा नहीं बदले है। आज भी इन पुरुस्कारों को इतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता जितनी उत्सुकता से ऑस्कर का इंतजार किया जाता है। भारत की और से अभी तक 50  फिल्मे इस समारोह में हिस्सा ले चुकी है। 2019 के लिए भारत की और से भेजी गई असमी भाषा की फिल्म ' विलेज रॉकस्टार ' इस क्रम में इक्क्यावनवी फिल्म थी जो अगले राउंड में जाने के लिए उपयुक्त वोट हासिल न कर सकी और बाहर हो गई। भारत की और से इस श्रेणी में भेजी जाने वाली फिल्मों का चयन भी उनके फ़ाइनल में न पहुँचने की बड़ी वजह रहा है। पक्षपात और अपनों को  उपकृत करने के खेल ने कई अच्छी फिल्मों को ऑस्कर नहीं पहुँचने दिया है। 
ऑस्कर के लिए भारत से भेजी जाने वाली फिल्मों का चयन फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इंडिया द्वारा नियुक्त एक स्वतंत्र जूरी करती है जिसमे ग्यारह सदस्य है। यह जूरी कब फिल्मे देखती है और कब उनका चयन करती है यह बहुत बड़ा रहस्य है। क्योंकि फ़िल्मी दुनिया के वरिष्ठ और धाकड़ लोगों को भी ठीक ठीक पता नहीं है कि इस जूरी में कौन कौन लोग है। अतीत में जिस तरह की फिल्मे ऑस्कर के लिए भेजी गई है उससे इस चयन प्रक्रिया पर ही सवाल उठते रहे है। 1996 में इंडियन ' 1998 में ऐश्वर्या अभिनीत ' जींस ' 2007 में ' एकलव्य ' 2012 में ' बर्फी ' जैसे कुछ उदहारण है जो बताते है कि राजनीति और भाई भतीजावाद की भांग यहाँ भी घुली  हुई है। 
आगामी 24 फ़रवरी को जब समारोह पूर्वक ये पुरूस्कार वितरित किये जाएंगे तब हम सिने प्रेमी ' बेगानी शादी ' में ताकझांक करते शख्स की तरह टीवी पर नजरे गढ़ाए आहे भर रहे होंगे। हम और कर भी क्या सकते है ! 

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...