ख़ुशी क्या है ? इस सवाल को तलाशने निकले तो हर शख्श अपनी परिभाषा और उम्मीदे लिए मिलेगा . एक पल को अपने आस पास नजर दौडाए तो हरेक इसी की बाते करता नजर आएगा जबकि अधिकांश के लिए ख़ुशी सर पर रखी टोपी की तरह है जिसे लोग बेतहाशा ईधर उधर तलाश रहे है . कुछ के लिए इसकी तलाश जीवन को चलायमान रखने का महज बहाना भर है . कुछ के लिए ख़ुशी जीवन की सार्थकता और कुछ के लिए भाग्य का एक कतरा भर ......अमरिकी स्वतंत्रता के घोषणा पत्र (Declaration of Independence )में थॉमस जेफ़र्सन ने एक पंक्ति जोड़ी थी कि ....
“हमें जीने और खुशियों को तलाशने का अधिकार एवं आजादी है “ शायद वे कहना चाहते थे कि मुकम्मल ख़ुशी हमें भले ही न मिल पाए परन्तु उसके लिए प्रयास करने का हमें पूरा अधिकार है . दुसरे शब्दों में ख़ुशी कोई मुकाम नहीं है यह अंतहीन कोशिशों का सफ़र है .
बहरहाल , में बात कर रहा हु
2006 में निर्मित और विल स्मिथ द्वारा अभिनीत फिल्म the pursuit of happiness की .
फिल्म क्रिस गार्डनर के दुर्भाग्यों और विकटतम गरीबी के अनुभवों की सच्ची घटना पर आधारित है कि किस तरह एक अफ्रीकन
अमेरिकन आदमी को उसके पिता बाल्यकाल में ही त्याग देते है और वह तय करता है कि वह अपने
पुत्र के जीवन में हर पल मौजूद रहेगा . दुर्भाग्य क्रिस गार्डनर का पीछा कभी नहीं
छोड़ता . अभाव और गरीबी के चलते उसकी पत्नी भी उसे छोड़ देती है परन्तु क्रिस अपना
संतुलन नहीं खोता . पांच वर्ष के बेटे को अकेले
पालते हुए गरीबी के चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता तलाशता रहता है . उसे हर
बार निराशा हाथ लगती है परन्तु वह घुटने नहीं टेकता . हर असफलता उसके व्यवहार और
वाणी को तराशती जाती है और अंत में वह अपनी मंजिल पा लेता है . 117 मिनट की फिल्म
सिर्फ निराशा और नेराश्य की बात नहीं करती
वरन मनुष्य की जिजीविषा को परत दर परत उघाडती चलती है . जिन लोगों को लगता है कि
उनके लिए संभावना के सारे रास्ते बंद हो गए है उन लोगों के लिए क्रिस की जीवन
यात्रा प्रेरणा का काम कर सकती है . यही नहीं , प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने
मनोभावों को नियंत्रण में रखते हुए व्यक्तित्व को केसे एकजुट रखा जाय – सबक इस
फिल्म की जान है . पिता पुत्र रिश्तों पर भी यह एक बेहतर फिल्म है .
इस फिल्म को देखना जीवन में सफल और असफल दोनों ही तरह के लोगों के लिए यादगार
उपहार है .
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