Saturday, March 23, 2019

भ्रम को वास्तविकता में बदलते कॉस्ट्यूम

फिल्म को डायरेक्टर का माध्यम यूँ ही नहीं कहा जाता। दर्शक वही देखता है जो डायरेक्टर उसे दिखाना चाहता है।  एक विचार के द्रश्य में बदलने की लंबी प्रक्रिया के दौरान फिल्म का कथानक उसके अंतस में कई दोहराव लेता है। हर द्रश्य की बारीकियां सबसे पहले उसके मानस में चित्रों का निर्माण करती है।  चूँकि यह माध्यम सामूहिक सहयोग पर आधारित होता है तो सिनेमेटोग्राफर , आर्ट डायरेक्टर ,प्रोडक्शन डिज़ाइनर , कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर जैसे आमतौर पर दर्शक के नोटिस में न आने वाले तत्वों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। ये लोग डायरेक्टर की ही सोंच को आगे बढ़ाते हुए  अपने श्रेष्ठतम प्रयासों से निर्जीव स्क्रीनप्ले को जीवन प्रदान करते है। 
कोई भी फिल्म सिनेमैटिक भाषा का प्रयोग करते हुए अपनी कहानी सुनाती है। उसके पात्रो द्वारा पहने हुए कपडे दर्शक को कहानी से जोड़ने  का आधा काम आसान कर देते है। किसी द्रश्य का निर्माण करना एक भ्रम का निर्माण करना होता है और चरित्रों के पहने हुए कपडे इस भ्रम को वास्तविकता के नजदीक पहुँचाने में महती भूमिका अदा करते है। 
पिछले दिनों प्रदर्शित ' द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर ' अन्य बातों के अलावा अपने वास्तविक लगते कलाकारों और उनके पहने कपड़ों के लिए खासी सराही गई। इस फिल्म के अधिकांश पात्र , लोकेशन और घटनाए सीधे जिंदगी से उठकर आये थे। फिल्म के चरित्र आमजन के लिए अनजान नहीं थे। लोग टेलीविज़न और पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से इन लोगों की हर नैसर्गिक आदतों से परिचित थे। ऐसे में उन्हें हूबहू स्क्रीन पर उतारना कास्टिंग डायरेक्टर के साथ कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर के लिए भी चुनौती भरा काम था। फिल्म की कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर अभिलाषा श्रीवास्तव ने अपने शोध और अनुभव से  इस काम को कुशलता से अंजाम दिया है। कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर का महत्व संभवतः आम दर्शक को इससे पहले कभी समझ नहीं आया होगा।  
कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर शब्द हांलाकि काफी बाद में चलन में आया है परन्तु इसका महत्त्व भारत की बनी पहली फिल्म ' राजा हरिश्चन्द्र ' से ही स्पस्ट हो गया था। दादा साहेब फालके ने  अपने पुरुष पात्रो का  महिला वेश कॉस्ट्यूम की मदद से ही रचा था। सत्तर के दशक तक इस विधा को वैसा क्रेडिट नहीं मिला जिसकी यह तलबगार थी। फिल्मो के अंत में टाइटल क्रेडिट में ड्रेसवाला ' या वार्डरोब कर्टसी ' डालकर काम चला दिया जाता था। आशा पारेख की म्यूजिकल  फिल्म ' कारावान (1971) से  लीना दारु का नाम सामने आया जिन्होंने मुंबई के जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स से बाकायदा कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग में ग्रेजुएशन किया था। इस लिहाज से लीना दारु बॉलीवुड की पहली घोषित डिज़ाइनर मानी गई। कारावान से आरंभ उनका सफर ' सीता और गीता , खूबसूरत ,उत्सव , उमरावजान ,लम्हे , चांदनी , सिलसिला ' जैसे यादगार पड़ावों से गुजरते हुए फिल्मो का शतक लगा गया है। 
शशिकपूर  निर्मित  पीरियड फिल्म ' उत्सव (1984 ) का कथानक दो सदी ईसा पूर्व में शूद्रक के संस्कृत में लिखे नाटक ' मृछकटिका ' पर आधारित था। यह समय सामाजिक  खुलेपन और आधुनिक पहनावे का माना जाता था।  उस दौर की कल्पना को साकार करने के लिए लीना ने अजंता के शिल्पों से प्रेरणा ली थी। इस फिल्म को आज भी इसके मादक मधुर गीतों और  बेहतरीन कॉस्ट्यूम की बेमिसाल जुगलबंदी के लिए  याद किया जाता है। 
 
लीना दो दशकों तक रेखा के लिए ड्रेस डिज़ाइन करती रही थी।  इस दौरान उन्होंने किसी और के लिए काम नहीं किया।  रेखा ने सिनेमा को खुद के रूप में एक सर्व स्वीकार  सामजिक चेहरा दिया है जिसमे भारतीय परंपरा एवं  सदाबहार सेन्सुअलिटी के साथ ग्लैमर भी जुड़ा हुआ था।  लीना की डिज़ाइन की हुई साड़ियां रेखा को एक अलग ही स्तर पर ले गई है।  उन्होंने साड़ियों को एक आकर्षक पहनावे के अलावा आकर्षक और पारंपारिक भी बना दिया है।  अपने समय की नायिकाओ से इतर रेखा ने चित्ताकर्षक दक्षिण भारतीय सिल्क साड़ियों को लोकप्रिय बनाने में अप्रतिम योगदान किया है , शायद इसलिए उन्हें आज भी एक स्टाइल आइकॉन के रूप में  याद किया जाता है। 
सिनेमाई मील का पत्थर ' मुग़ले आजम ' की बात  करते समय आज भी विशेषण कम पड़ते है।फिल्मों के  श्वेत श्याम युग में भव्य मुग़लकालीन दौर का अहसास दिलाना के. आसिफ के लिए आसान नहीं था। कल्पना को वास्तविकता में उतारने के लिए वास्तविक चीजों का ही  सहारा लिया गया था। शाही चरित्रों को पात्र की काया में उतारने के लिए दिल्ली मुंबई  के अनाम दर्जियों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। एम्ब्रॉयडरी और जरदोजी के सिद्धस्त दर्जियों को मुंबई लाया गया था जहाँ के. आसिफ ने अपने मार्गदर्शन में हरेक पात्र के कपडे डिज़ाइन कराये थे। जरी के काम के लिए सूरत के टेलर मास्टरों की मदद ली गई और सोने के धागों की कारीगरी हैदराबाद के सुनारों के योगदान से संभव हुई। 
तीन बार की ऑस्कर विजेता ब्रिटिश कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर सैंडी पॉवेल का मानना है कि किसी फिल्म के चरित्र को उभारने  में कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग खासा महत्वपूर्ण काम है। इस काम को पूर्णता के साथ अंजाम देने के लिए डिज़ाइनर को कम से कम तीन बार कहानी और पटकथा को पढ़ना जरुरी होता है। तब कही जाकर वह पात्रों के वास्तविक अक्स अपने मस्तिष्क में साकार कर पाता है। कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग के लिए हद से ज्यादा समर्पित सैंडी का कौशल विश्वस्तर पर सराही गई कई फिल्मों में झलकता है। भारतीय दर्शकों को भी लुभा चुकी ' शेक्सपीअर इन लव (1998) द एविएटर (2004) मेमोर्स ऑफ़ गीशा (2006) एवं ' द यंग विक्टोरिया (2009) उनकी उल्लेखनीय फिल्मे है। 
अक्सर स्क्रीन पर नजर आ रहा अभिनेता दर्शक के लिए जाना पहचाना होता है परन्तु अपने परिधान से वह दर्शक को तुरंत ही उस काल खंड में ले जाता है जिसके बारे में फिल्म बात कर रही होती है । उसके लुक  को फिल्म के कथानक के हिसाब से ' मोल्ड ' करने में मेकअप आर्टिस्ट के साथ कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर की रचनाशीलता का अपना महत्व  होता है। कॉस्ट्यूम न सिर्फ दर्शक को बताता कि अमुक चरित्र कौन है व किस काल का है , बल्कि अभिनेता को भी महसूस कराता है कि उसे धारण करने के बाद वह किस तरह पात्र को व्यक्त कर सकता है। इस विचार को पकड़कर भारतीय  सिनेमा को वैश्विक सरहद पर ले जाने वाली  भानु अथैया ने सौ से अधिक फिल्मों के लिए कॉस्ट्यूम डिज़ाइन किये है।  वे उन बिरले डिज़ाइनर में शामिल है जिन्हे शीर्ष निर्देशकों गुरुदत्त , राजकपूर , यश चोपड़ा ,आशुतोष गवारिकर, विधु विनोद चोपड़ा  व रिचर्ड एटेनबरो के मार्ग दर्शन में अपना हुनर तराशने का मौका मिला है। कहना न होगा भानु अथैया को  लगभग चार दशक पहले ' गांधी ' के लिए  मिला ऑस्कर भारतीय डिज़ाइनरो के लिए उत्साह जनक प्रेरणा बना हुआ है। एक अन्य  पीरियड फिल्म ' 1942 ए लव स्टोरी ' के लिए जितनी मेहनत सेट डिज़ाइन करने में की गई थी उतनी ही कवायद भानु ने  1942 के दौर में पात्रों के पहने जाने वाले कपड़ों के लिए भी की । विशेष रूप से मनीषा कोइराला द्वारा पहनी गई अधिकांश साड़ियां हाथ से बुनी गई थी।   
बॉलीवुड के ही एक और अग्रणी  नाम का जिक्र किये बगैर इस बात को खत्म नहीं किया जा सकता। ये नीता लुल्ला है। मुंबई में ही जन्मी और सोशल सर्किल का हिस्सा रही नीता के लिए कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग सबसे आसान काम रहा है। अबतक तीन सौ फिल्मों के लिए ड्रेस डिज़ाइन कर चुकी नीता के कौशल को सार्थकता तब मिली जब संजय लीला भंसाली की  ' देवदास ' के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरूस्कार से सम्मानित किया गया था । उनके लिए चुनौती भरा काम ' जोधा अकबर ' के रूप में सामने आया । यह फिल्म भी ' मुग़लेआजम ' की तरह भव्य थी। नीता ने ऐश्वर्या और ऋतिक रोशन के कॉस्ट्यूम डिज़ाइन करने के अलावा इस फिल्म में ऐश्वर्या द्वारा पहने गए गहने भी डिज़ाइन किये थे जो उनकी गहन शोध का परिणाम है।  इन्हे  देश के प्रसिद्ध ज्वेलरी ब्रांड के साथ मिलकर  डिज़ाइन किया गया  था। विवादों और प्रशंसा से सरोबार ' जोधा अकबर ' अपने गहनों के लिए आज भी सिफारिश की जाती है। 
अंग्रेजी के एक बड़े टीवी चैनल एच बी ओ द्वारा  प्रसारित भव्य धारावाहिक  ' गेम ऑफ़ थ्रोन ' को भारत में सर्वाधिक बार  पायरेटेड रूप से देखा और सराहा गया है। तीन महाद्वीपों में फैले कथानक और सैंकड़ों पात्रों से सज्जित इस कहानी के अधिकांश  मध्यकालीन कॉस्ट्यूम दिल्ली के पास नॉएडा में निर्मित किये गए है। फिल्मों से कही अधिक वीएफएक्स, अनूठे कॉस्ट्यूम और विशाल सेट्स की वजह से ' गेम ऑफ़ थ्रोन ' दुनिया भर में लोकप्रियता की हद पार कर गया है। हम भारतीय इस बात पर इतरा सकते है कि कही न कही हमारे कुछ अनाम कारीगर  भी इसकी सफलता का हिस्सा है। 
 कॉस्ट्यूम के महत्व को रेखांकित करता हॉलीवुड के वरिष्ठ डिज़ाइनर जेराड स्मिथ का कथन गौरतलब है कि ' एक डिज़ाइनर के काम का मतलब सिर्फ ध्यान आकर्षित करना नहीं होता वरन दर्शक को उस सम्पूर्ण प्रस्तुति का हिस्सा बनाना होता है जो उसके मस्तिष्क में ताउम्र के लिए दर्ज होने वाली है !

Thursday, March 14, 2019

कल्पना के रेशों में भविष्य के संकेत



ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष  के अनुसार इंसिडेंट ( घटना ) का मतलब -कुछ हो रहा है या कुछ हुआ है , है। घटनाए मनुष्य के साथ जुडी हुई है , एक तरह से वे जीवन का अंग बन चुकी है।  तमाम सावधानियों के बाद भी वे घटती रहती है। जिन घटनाओ के कारणों का समाधान मिल जाता है वे संदर्भो के रूप में इतिहास में जोड़ दी जाती है और जो अनसुलझी रह जाती है वे समय बीतने के बावजूद भी  शीतकाल की धुंध की तरह रहस्यमयी आवरण लपेटे रहती है। 
ठीक पांच वर्ष पूर्व मलेशिया एयरलाइन के जहाज एम् एच 370 का अपने 189 यात्रियों सहित अचानक से गुम हो जाना तकनीक के शिखर पर खड़े विश्व की असफलता का बिरला उदहारण है। ऐसी घटना जिसकी कल्पना सिर्फ आभासी दुनिया में ही संभव है - एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह बनकर आधुनिक विकास के दंभ को चुनौती दे रही है। 
                  दर्शनशास्त्र के विद्धानों का मानना है कि हमेशा से ही अनगिनत विचार हमारे आसपास के वातावरण में मौजूद रहे है।  मस्तिष्क की तरंगो की हद में आते ही ये विचार मनुष्य की कल्पना को जाग्रत करने का काम करते है। इन्ही विचारो को विस्तार देकर रचनात्मक माध्यमों से लेखन नाटक शिल्प जैसे अभिव्यक्ति के साधन  साकार होते है। सुनने में अजीब लग सकता है कि ' टाइटेनिक ' के दुर्घटना ग्रस्त होने के दो दशक पूर्व ही एक अंग्रेज पत्रकार डब्ल्यू टी स्टेड ने अपने काल्पनिक उपन्यास ' द सिंकिंग ऑफ़ मॉडर्न लाइनर (1886) में टाइटेनिक के साथ हुए हादसे और परिस्तिथियों का सटीक वर्णन कर दिया था। स्टेड के  उपन्यास में जहाज लिवरपुल से न्यूयोर्क के सफर पर ढाई हजार यात्रियों को लेकर रवाना होता है।  जहाज का वजन , लम्बाई चौड़ाई , लाइफ बोट्स की संख्या ,लगभग समान थी। 1898 में अमेरिकी लेखक मॉर्गन रॉबर्ट्सन का लिखा ' द रेक ऑफ़ द टाइटन ' और मॅकडॉनेल बेड किन के लिखे उपन्यास ' द शिप्स रन्स
(1908) ने जहाज की गति 22 नॉट बताई थी जो  एकदम सटीक थी।  इन तीनो ही कहानियों में जहाज उतरी अटलांटिक सागर में ही डूबता बताया था। डब्लु टी स्टेड ने तो एक तरह से अपने कहानी से अपनी नियति तय कर दी थी। 1912 में टाइटेनिक हादसे के शिकार मृतकों में उनका भी नाम था ! 
नाइजेरियन धर्मगुरु टी बी जोशुआ ने 2013 में भविष्यवाणी की कि एक एशियाई देश का विमान अपने यात्रियों के साथ गायब हो जाएगा। उस समय उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया गया।  शायद उनका इशारा एम् एच 370 की और ही था। आज भी यह पूरी तरह से स्पस्ट नहीं हुआ है कि  विमान में सवार  उन जिंदगियों का क्या हश्र हुआ है। विमानन नियमों के अनुसार जब तक किसी विमान का मलबा नहीं मिलता तबतक उसे गुमशुदा ही माना जाता है !
विकटतम परिस्तिथियों में भी जीवन की आस नहीं छोड़ना मनुष्य की बुनियादी प्रवृति है। इतिहास साक्षी है कि दुर्गम वातावरण में भी मानव जाति ने खुद को बचाए रखा है। मनुष्य की  इस जीवटता को केंद्र में रखकर रोबर्ट ज़ेमेकिस ने अदभुत फिल्म बनाई ' कास्ट अवे (2000) नायक थे टॉम हेंक। एक अकेले व्यक्ति के प्लेन क्रैश के बाद  एक वीरान द्धीप पर चार साल तक फंसे रहने और जीवित रहने के संघर्ष की यह प्रेरणा दायी कहानी भविष्य में होने वाली घटनाओ के पूर्वानुमान लगाने के लिए मानस तैयार कर देती है।कास्ट अवे ' सिर्फ अपने कथानक के लिए ही नहीं वरन अन्य बातों के लिए भी सराही जाती है। एक सौ तैतालिस मिनिट अवधि की इस फिल्म में आधे घंटे तक एक भी संवाद नहीं है। इस फिल्म का अंतिम द्रश्य  सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ दस द्रश्यों में शामिल किया गया है। 
 कास्ट अवे ' की भव्य सफलता ने इसी विषय पर टीवी धारावाहिक ' लोस्ट ' (2004 से 2010 ) का मार्ग प्रशस्त किया। स्क्रीन राइटर जेफ्री लाइबर फिल्मकार जैकब अब्राम और डेमोन लिंडेलोफ ने एक सुनसान द्धीप पर एक यात्री विमान के क्रैश होने  और बचे हुए यात्रियों की जद्दोजहद की काल्पनिक कहानी बुनी। अमेरिकी टेलीविज़न पर प्रसारित  इस धारावाहिक में अनोखी बात यह थी कि इसके हरेक पात्र की एक बैकस्टोरी थी जिसे ' फ़्लैश इन 'तकनीक से दर्शाया गया था। 
                        मनुष्य की कल्पना को ज्योतिष विज्ञान ने मान्यता नहीं दी है। परन्तु अघटित घटनाओ को फिल्मों के  विषय बनाना भविष्यवाणी करने जैसा ही है। 

Thursday, March 7, 2019

मनमौजी मिजाज का दर्शक !

एक अच्छी और लोकप्रिय फिल्म में क्या अंतर है ? अक्सर यह सवाल दर्शक के साथ फिल्म समीक्षकों को भी हैरान करता रहा है। अच्छी फिल्म को लोकप्रिय होना चाहिए परन्तु अमूमन होती नहीं है ठीक वैसे ही लोकप्रिय फिल्म एक बड़े दर्शक वर्ग को लुभा जाती है परन्तु समीक्षक उसे नकार चुके होते है। हाल ही में संपन्न हुए ऑस्कर समारोह के बाद ' बेस्ट फिल्म ' को लेकर भी प्रतिकूल टिप्पणियों ने ऑस्कर जूरी पर सवाल खड़े करना आरम्भ कर दिए है। इस वर्ष ' ग्रीन बुक ' ने इस श्रेणी में सम्मान पाया है परन्तु कयास ' रोमा ' के लगाए जा रहे थे। वैसे यह पहली बार नहीं हुआ है जब ऑस्कर इस तरह से विवादों में आया है। इस समारोह के शुरूआती दिनों से लेकर अब तक दस बार इस तरह की घटना हो चुकी है जब आम दर्शकों और सिने समीक्षकों की राय ऑस्कर जूरी से अलहदा रही है। 1941 में सिटीजन केन ' के बजाए ' हाउ ग्रीन वास् माय वेली ' चुनी गई थी। 2010 में फेसबुक के जनक मार्क जकरबर्ग के जीवन पर बनी ' द सोशल नेटवर्क ' को दरकिनार कर ' द किंग्स स्पीच ' विजेता घोषित की गई। इसी प्रकार प्रतिभाशाली क्रिस्टोफर नोलन की ' द डार्क नाईट ' के बदले ' स्लमडॉग मिलेनियर ' को नवाजा गया। इस जैसे  सैंकड़ों उदाहरण ऑस्कर के अलावा भी मौजूद है जब बेहतर फिल्मों को पार्श्व में धकेलकर औसत फिल्मों को मंच दिया गया। इस तरह से  यद्धपि अच्छी फिल्मों को तात्कालिक नुक्सान जरूर हुआ परन्तु देर से ही सही वे सराहना हासिल करने में सफल भी हुई और कालजयी भी साबित हुई।
 ऐसा नहीं है कि इस समस्या से सिर्फ हॉलीवुड ही ग्रस्त है , हमारा देसी सिनेमा भी इसी तरह के विकारों से ग्रसित रहा है। हमारे पुरुस्कारों के बारे में  बात करना इसलिए  बेमानी है क्योंकि सबको पता होता है कि किसको क्या मिलने वाला है ! यहाँ प्रतिभा के बजाए शक्ल देखकर तिलक लगाने का रिवाज रहा है। 
अच्छी फिल्मों को सराहना न  मिलने के एक से अधिक  कारण रहते रहे है। जो दीखता है वही बिकता है या शोर मचाकर कुछ भी बेचा जा सकता है के सिद्धांत फिल्मों की मार्केटिंग पर भी लागू होते है। निर्देशक का विज़न दर्शक से जुदा होना , कहानी का दर्शक के सर पर से निकल जाना , कथानक का मौजूदा समय या परिस्तिथियों से तार्किक सम्बन्ध न होना , दर्शक का सब्जेक्ट को लेकर परिपक्व न होना , नए विषय को सही ढंग से समझा न पाना या समय से आगे निकल जाने का दुस्साहस करना कुछ ऐसे कारण रहे है जो अच्छी फिल्मों को अपेक्षित सफलता नहीं दिला पाए है।
 
इस परिभाषा के दायरे में आने वाली बहुत सी फिल्मे राष्ट्रीय पुरुस्कारों से लादी गई व विदेशी फिल्मोत्सवों में देश के झंडे फहरा आई परन्तु घरेलु जमीन पर दर्शकों को सिनेमाघरों में नहीं खींच पाई। ज्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है , सन दो हजार से लेकर अब तक की फिल्मों को ही सूचिबद्ध किया जाए तो हमें अहसास होगा कि दर्शक कितने कीमती सिनेमाई माणिकों से वंचित रह गया है। रघु रोमियो (2003)  द ब्लू अम्ब्रेला (2005) 15 पार्क एवेन्यू (2005) मानसून वेडिंग (2001) मि एंड मिसेज अय्यर(2002) रेनकोट (2004) फंस गए रे ओबामा (2010) ऐसी ही फिल्मे है जो चलताऊ व्यावसायिक फिल्मों के सामने  असफल मानी गई है।परन्तु इनका कंटेंट इतना पावरफुल था कि संजीदा  दर्शक आज भी इन्हे यूट्यूब पर तलाशते नजर आजाते है। 
                 
    सौ करोड़ का आंकड़ा ' शब्द सफलता का पैमाना मान लिया गया है। एक सौ पांच करोड़ की लागत में बनी ' टोटल धमाल ' ने सौ करोड़ कमा लिए ! इस बात का इस तरह प्रचार किया जा रहा है मानो अनूठी घटना घट गई हो। कई बार दोहराये हुए कथानक पर आधारित उबाऊ कॉमेडी अगर अपनी लागत भी निकाल लेती है तो रूककर सोंचने की आवश्यकता है। दर्शकों के मिजाज पर सर्वेक्षण करने की जरुरत है। 

Tuesday, February 26, 2019

सिनेमा के परदे पर युद्ध की विभीषिका



रक्षा मामलों के कुछ विशेषज्ञों  का  मानना है कि भारत पाकिस्तान के मध्य अगर युद्ध हुआ तो यह विश्व युद्ध का रूप ले लेगा। वे इस बात पर भी जोर देते है कि दोनों ही देश युद्ध को अंतिम विकल्प के रूप में ही चुनना पसंद करेंगे। खबर है कि पुलवामा हादसे के पांच दिन पूर्व ही पाकिस्तान ने अपनी सेना को सतर्क करना आरम्भ कर दिया था। इसके बाद भी अगर सत्तर सालों में अपने पड़ोसी का चाल चलन और नियत हम नहीं समझ पाए तो यह हमारी नादानी ही मानी जाएगी।
 बावजूद जबानी जंग के अगर युद्ध होता भी है तो उसके परिणामो का आकलन कर लिया जाना चाहिए। यह पहला ऐसा युद्ध होगा जो सिर्फ सरहद पर नहीं लड़ा जाएगा। देश की सीमाओं से  दूर बसे शहरी क्षेत्र इसकी जद में होंगे। परिणाम स्वरुप जान माल के नुकसान का सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है । यह भी तय है कि  हथियारों के ढेर पर बैठे दोनों ही देश अपने सामान्य नागरिकों की हानि स्वीकार नहीं करेंगे। 
भारत में बंटवारे के बाद से ही युद्ध की विभीषिका पर फिल्मे बनती रही है और साहित्य लिखा जाता रहा है।
बहुत से वरिष्ठ साहित्यकारों ने बंटवारे के दौरान भोगे यथार्थ को अपने शब्द दिए है। आतंक , उत्पीड़न और नफरत से जानवर बनते मनुष्य के उदाहरणों के दृश्यों ,  शब्दों से गुजरते हुए साठ सत्तर के दशक के बाद जन्मा  वह पाठक भी सिहर जाता है जिसने बंटवारे को देखा नहीं है , सिर्फ सुना है । खुशवंत सिंह की कृति ' ट्रैन टू पाकिस्तान ' भीष्म साहनी की ' तमस ' और अमृता प्रीतम की ' पिंजर ' साहित्य होते हुए भी ऐतिहासिक दस्तावेज है। इन कहानियों को पढ़ते हुए पाठक जिस मानसिक  त्रासदी से गुजरता है उसके बाद वह नफरत शब्द से ही नफरत करने लग जाता है। 
इन तीनो ही कृतियों को सिनेमाई माध्यम में बदला गया है और उल्लेखनीय बात यह है कि किताब की ही तरह यह कहानियां परदे पर भी उतना ही सटीक प्रभाव उत्पन्न करने में सफल रही है। समय समय पर बनी युद्ध  फिल्मों और देशभक्ति के गीतों ने भी राष्ट्र प्रेम की भावना को बढ़ाने में महती भूमिका निभाई है। यधपि दर्जनों युद्ध फिल्मों में से कुछ ही फिल्मे वास्तविकता और तथ्यों के नजदीक रही है। 1964 में चेतन आनंद निर्देशित ' हकीकत ' चीन के साथ युद्ध की घटनाओ पर आधारित थी। युद्ध  को ही केंद्र में रखकर रची गई कुछ फिल्मों में से ' बॉर्डर ' जे पी दत्ता की सर्वाधिक सफल फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म के प्रदर्शन के साथ एक कड़वी याद भी  जुडी हुई है।1997 की गर्मियों में  दिल्ली के उपहार थिएटर में इस  फिल्म के प्रदर्शन के दौरान आगजनी की वजह से 59 दर्शक अपनी जान गँवा बैठे थे। 
दुनिया भर का इतिहास युद्ध के  रक्तरंजित किस्सों से भरा हुआ है। इन किस्सों की कहानियाँ साहित्य का भी महत्वपूर्ण अंग बन चुकी है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ही दुनिया ने पहला विश्व युद्ध देख लिया था। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत ने दुनिया को परमाणु बम के प्रभावों से अवगत कराया । इतिहास की यही त्रासदी है कि कोई उससे सबक नहीं लेता है। इन युद्धों को केंद्र में रखकर यूरोप और अमेरिका में बहुत अच्छी फिल्मे बनी है। अकेले हॉलीवुड ने ही  इस विषय पर कालजयी फिल्मे बनाई है। उल्लेखनीय फिल्मों में ' द ब्रिजेस ऑन  रिवर क्वाई (1957) द गन्स ऑफ़ नवरोन (1961) द लांगेस्ट डे (1962) द ग्रेट एस्केप (1963) द पियानिस्ट (2002) हर्ट लॉकर(2008 ) युद्ध की विभीषिका और आम नागरिक पर पड़ने वाले शारीरिक और मानसिक यंत्रणा  का सटीक चित्रण करती है। 2001 में 'लगान ' को परास्त कर ऑस्कर जीतने वाली ' नो मेंस लैंड ' युद्ध के दौरान सैनिकों की मानसिकता और सरकारों की असंवेदनशीलता बगैर लाग लपेट के उजागर कर देती है।
 
फ्रेंच भाषा के शब्द ' देजा वू ' का मतलब है भविष्य को वर्तमान में देख लेना या महसूस कर लेना। मनोविज्ञान के इस भाव को लेकर अमेरिकी टीवी चैनल सी बी एस ने 1958 में विज्ञान फंतासी लेखक रॉड सेरलिंग की कहानियों पर आधारित धारावाहिक 'द टाइम एलिमेंट 'प्रसारित किया था। कहानी के नायक को आभास हो जाता है कि अगले दिन अमेरिकी नौसेना के बंदरगाह ' पर्ल हार्बर ' पर जापानी विमान हमला करने वाले है। वह सबको सचेत करने की कोशिश करता है परन्तु कोई उसकी बात पर विश्वास नहीं करता। अगले दिन वाकई हमला होता है और वह भी उस हमले में  मारा जाता है। पर्ल हार्बर हादसे के जख्म ने ही अमेरिका को जापान पर परमाणु बम गिराने के लिए मजबूर किया था। यह ऐसा युद्ध था जिसके निशान मानव जाति के शरीर और आत्मा दोनों पर आज भी नजर आते है। 

Wednesday, February 20, 2019

गर फिरदौस बर रुए जमीं अस्त ..!



पुलवामा की घटना के बाद माहौल में है -  शोक ! निराशा !  नाराजगी ! और स्तब्धता ! यह मान लिया गया था कि सब कुछ ठीक है। सुरक्षाबलों की नियमित चलने वाली  कार्रवाई से ढाई सौ दशहत गर्दों को परलोक रवाना कर दिया गया था। कश्मीर शांत लगने लगा था। परन्तु यह तूफ़ान के पहले की शांति थी। एक ऐसी पटकथा लिखी जा रही थी जिसके जख्म जल्दी नहीं भरने थे। लगभग ऐसा ही हुआ जैसा आतंक के रहनुमाओ ने सोंचा था। कश्मीर की फ़िज़ाए हमेशा की तरह मनभावन थी। वातावरण में कोहरा और पार्श्व में आसमान छूते चिनार के दरख़्त। कोई और समय होता तो इस पल ली हुई सेल्फी जीवन भर अलबम के साथ यादों में दर्ज रहती। परन्तु ऐसा बिलकुल नहीं था। यह एक स्वप्न के टूटने की तरह था। जिस वाहन में जवान थे वह विस्फोट के बाद स्टील  की टूटी फ्रेम के ढेर में बदल चूका था। चवालीस बदन बिखर चुके थे। जिस किसी ने भी इस दृश्य को अपने टेलीविज़न  स्क्रीन पर देखा है उसके मानस में यह पल एक दुःस्वप्न की तरह टंक गया है। 
सोशल मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया पर इस नृशंस नरसंहार के विरोध में गुस्सा महसूस किया जा सकता है । देश का साधारण नागरिक भी अपने सुझाव इस उम्मीद से सरकार की तरफ  सरका रहा है कि कैसे
करके भी इस समस्या का समाधान होना चाहिए। इस समाधान के लिए कुछ अलग तरह की सोंच और कड़े कदम उठाये जाने चाहिए। हम मानकर चलते है कि आतंक की सभी घटनाओ में  पाकिस्तान का अदृश्य हाथ मौजूद रहा है । हमें यह भी मान लेना चाहिए कि पाकिस्तान कभी भी अपनी प्रवृति नहीं बदलने वाला है। भले ही आप कितनी ही सदाशयता दिखालो वह अपना स्वभाव नहीं  बदलने वाला। हमें इसी बिंदु से अपनी रणनीति की शुरुआत करनी होगी। 
लोकप्रिय टीवी धारावाहिक ' गेम ऑफ़ थ्रोन ' की कई समानांतर कहानियों में से एक कहानी की नायिका सांसा स्टार्क नेत्रहीन है।  एक दृश्य में खलनायिका सांसा को लकड़ियों से पीटती है। निरीह सांसा उससे जान की भीख मांगते हुए कहती है - कम से कम मेरे अंधेपन पर तो रहम करो , में अपना बचाव भी नहीं कर सकती। खलनायिका वास्प का जवाब होता है ' तुम्हारा अंधापन तुम्हारी समस्या है ! मेरी नहीं ! पाकिस्तान तो अपने मंसूबे हर हाल में पुरे करेगा ही , हमें ही  सजग रहकर उसकी चाल को निष्फल करना है। 
हमें याद रखना चाहिए कि एक जमाने में पंजाब भी कुछ इसी तरह से आतंक के चुंगल में था। उसका समाधान पंजाब में ही तलाशा गया था।  हमेशा की तरह सरहद पार से खालिस्तानियों को दाना पानी मिलता रहा था। जब भारत अफगानिस्तान में तालिबान से बातचीत के अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों को समर्थन देता है तो भारत सरकार कश्मीर पर बात करने से क्यों घबराती है। भारत सरकार को उतरी आयरलैण्ड से सबक लेना चाहिए जिसने हिंसक हो जाने की हदे पार करदी थी। ब्रिटेन सरकार ने इस समस्या को सौहाद्रपूर्ण तरीके से ही सुलझाया था। कश्मीर समस्या का हल कश्मीर से ही निकलेगा।वहां हुर्रियत जैसा राजनीतिक समूह और
मजबूत सिविल सोसाइटी के लोग भी है जिन्होंने इस विवाद पर शांतिपूर्ण पहल की है।  अब तक की समस्त  सरकारों ने मान लिया था कि आतंक को खत्म करने के लिए आतंकियों का सफाया जरुरी है। इस नीति ने आतंकियों को तो कम किया परन्तु भारतीय फौज का भी काफी  नुक़सान किया लेकिन  नए हथियार उठाने वालों को हतोत्साहित नहीं कर पाये।   
कश्मीर चुनावी समस्या नहीं है जिसे चुनाव बाद हाशिये पर रख दिया जाए। न ही इसे किसी युद्ध से सुलझाने की जोखिम ली जा सकती है। भारत पाकिस्तान दोनों का ही परमाणु संपन्न होना युद्ध को किस विस्फोटक अंत की और ले जा सकता है , सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। मोस्ट फेवर्ड नेशन ' का दर्जा पाकिस्तान से वापस लेकर भारत ने देर से ही सही, एक सही दिशा में कदम उठाया है। अब इसे आतंकवादी राष्ट्र घोषित करने का साहस और कर लेना चाहिए। यह न हो सके तो  कम से कम सिंधु जल संधि को ही निरस्त कर देना चाहिए। जब तक आप अपनी ताकत नहीं दिखाएंगे तब तक कमजोर ही समझे जायेगे।  
भारत के नेताओ को एक बात और समझ लेनी चाहिए कि ' शी जिनपिंग ' को झूला झुलाने , नवाज शरीफ के पारिवारिक विवाह में बिन बुलाये  शामिल  होने या डोनाल्ड ट्रंप से गले मिलना  उन्हें ख़बरों में तो ला देता है परन्तु कूटनीतिक बढ़त नहीं दिलाता है। 
सनद रहे ! 1989 से 2018 तक 47000 लोग कश्मीर में आतंकवाद का शिकार हो चुके है। गायब हुए या पलायन कर गए लोगों की संख्या इसमें शामिल नहीं है। मानवाधिकार संगठन इस संख्या को तिगुनी बताते है। नरक बन चुके इस राज्य को मुख्यधारा में लाने के लिए कड़े कदम उठाने ही होंगे।
  बहादुर शाह जफ़र ने कश्मीर के लिए  कभी फ़ारसी में  यु ही नहीं कहा था ' गर फिरदौस बर रुए जमीं अस्त , हमीं अस्त ओ हमीं अस्त ओ ! ( धरती पर कही स्वर्ग है तो वह यही है यही है ) अपनी जन्नत में आग लगाने वालों को हम माफ नही करेंगे । अपने सुरक्षाबलों के जीवन की रक्षा के लिए हर मुमकिन ताकत का इस्तेमाल करेंगे !   यह संकल्प सरकार का भी है और इस देश के आम नागरिक का भी ! 

Wednesday, February 13, 2019

अभिनय की आधी सदी : अमिताभ बच्चन

तारीखों के साथ घटनाएं न जुडी हो तो वे सिर्फ कोरी  तारीख ही रहती है। किसी प्रसंग के जुड़ने से तारीखे  इतिहास बन जाया करती है। 15 फरवरी एक ऐसी ही तारीख है जिसने अमिताभ बच्चन की जिंदगी तय कर दी थी। अमिताभ अपनी अच्छी भली नौकरी छोड़ ख्वाजा अहमद अब्बास के दर पर इस उम्मीद से पहुंचे थे कि यहाँ जरूर काम मिल जाएगा।  परन्तु इतना आसान नहीं था। ख्वाजा साहब ने उन्हें यह कह कर लौटा दिया कि साहबजादे ! पहले अपने वालिद से फिल्मों में काम करने के लिए  लिखित अनुमति की चिट्ठी लेकर आओ। चिट्ठी आई और अमिताभ नाम मात्र की फीस पर ' सात हिन्दुस्तानी ' के लिए अनुबंधित कर लिए गए। तारीख थी 15 फ़रवरी 1969 ! महानायक 15 फ़रवरी 2019 को फिल्मोद्योग में अपनी अभिनय यात्रा के  पचास वर्ष पूर्ण कर रहे है।  
परदे पर आने से  पहले मृणाल सेन उनकी आवाज भुवन शोम ' में उपयोग कर चुके थे । यह वही आवाज थी जिसे आल इंडिया रेडियो ने खारिज कर दिया था । यहां अमीन सयानी ने अमिताभ को पीछे छोड़ कर एनाउंसर की नॉकरी हासिल की थी । ' जुरासिक पार्क ' में सैम निल एक जगह कहते हैं ' जिंदगी अपना रास्ता ढूंढ लेती है ' अमिताभ के संदर्भ में आज हम कह सकते हैं कि नियति अपना रास्ता तलाश लेती है ।  उस दौर की परिस्थितियों का  अगर आज आकलन किया जाय तो समझ आता है कि कायनात उन्हें सफल और लोकप्रिय  होते देखना चाहती थी ! 
' सात हिन्दुस्तानी ' शुरुआत थी एक बड़े सफर की जिसमे आगे कई उतार चढ़ाव आना थे। अगली ही फिल्म में वे उन लोगों के साथ काम कर रहे थे जो उस दौर के बड़े नाम थे।  वहीदा रहमान की सुंदरता पर मोहित अमिताभ को ' रेशमा और शेरा ' में अपनी चहेती  नायिका के साथ एक ही फ्रेम में आना पुरूस्कार से कम नहीं था। आज भी जब  उनसे दुनिया की सबसे सुंदर महिला का नाम पूछा जाता है तो वे आदर के साथ वहीदा रहमान का ही जिक्र करते है।
 ' आनंद ' का घटना इस लिहाज से भी  महत्वपूर्ण था कि यह  ऋषिकेश मुखर्जी जैसे निर्देशक के साथ नये रिश्ते की नींव रखने की शुरुआत थी जिसकी वजह से अमिताभ की कुछ कालजयी फिल्मे इस दौर में सामने आई। साथ ही सामने आया अमिताभ का भावप्रणय अभिनय। वक्त के कई मुकाम ऐसे भी आये जब अमिताभ अपनी राह से भटकने लगे या यह कहे कि ' एंग्री यंग ' के मुखोटे ने उनकी ' इंटेंस एक्टिंग ' पर ग्रहण लगा दिया तब तब उनके लिए दुआ की जाने लगी कि उन्हें ऋषि दा जैसे निर्देशक के यहाँ हाथ जोड़कर काम माँगना चाहिए। ऋषिकेश मुखर्जी इकलौते निर्देशक थे जिन्होंने बच्चन जी को दस फिल्मों में निर्देशित किया था। इन सभी फिल्मों की विशेषता थी शानदार कहानी , लाजवाब अभिनय और मीनिंगफुल माधुर्य से सजे गीत। उनकी लोकप्रिय ब्लॉकबस्टर से उलट इन फिल्मों में  वे  किसी खलनायक की कुटाई पिटाई करते नजर नहीं आते। समय के बहाव और उनकी मेहनत से  गढ़ी छवि ने बाद के वर्षों में अभिनय की इस रेंज को लील लिया। यधपि उनके इंटेंस अभिनय के शेड  रह रहकर सामने आते रहे है , फिर चाहे  वे ' ब्लैक ' के देवराज सहाय के रूप में हो या ' पा ' के आरो के रूप में  या ' सरकार ' के सुभाष नागरे के रूप में।शुक्र है !  जब जब सितारा अमिताभ उन पर हावी होने लगता है तब तब अभिनेता अमिताभ उन्हें आलोचना से बचाने सामने आ जाता है। 
सलीम खान ने ' जंजीर ' लिखी थी और क्रेडिट्स में जावेद अख्तर का नाम दिया । इस लेखक जोड़ी ने राजेश खन्ना की ' हाथी मेरे साथी ' भी लिखी थी। समय का यह ऐसा दौर था जब राजेश खन्ना खुद  को भगवान मान चुके थे और  निसंदेह वे लोकप्रियता के आसमान पर थे । उनके अहं की कोई इंतेहाँ नहीं थी। काका के अहंकार ने सबसे पहले सलीम जावेद को आहत किया था। इस घटना के बाद इन दोनों ने तय कर लिया कि वे बच्चन को खन्ना से बड़ा स्टार बनायेगे। समस्या यह थी कि सत्तर के दशक का कोई भी अभिनेता इस फिल्म को करने को राजी नहीं था धरमजी , देव साहब , राजकुमार तो दूर नवीन निश्चल जैसे एक्टर भी इस कहानी का हिस्सा बनने को तैयार नहीं थे। चरित्र अभिनेता प्राण और ओमप्रकाश की सिफारिश पर अनमने मन से प्रकाश मेहरा ने ' जंजीर ' बनाई।  बस उसके बाद का इतिहास बताने की जरुरत नहीं है। 


 सलीम जावेद की जोड़ी ने अमिताभ बच्चन के लिए अपनी पार्टनरशिप शुरू की थी और उनके लिए ही लिखी स्क्रिप्ट को लेकर मतभेद के चलते उसे ख़त्म किया। ' मि इंडिया ' की पटकथा अमिताभ को ध्यान में रखकर लिखी गई थी परन्तु उनके इनकार के बाद पनपी  गलतफहमियों ने इस सुपरहिट जोड़ी को अलग कर दिया।
  हरेक उतार के बाद जिस तरह अमिताभ ने वापसी की है यह उनके  सहज व्यक्तित्व की उपलब्धि रही है। लोग हमेशा जानने को उत्सुक रहे है कि क्या चीज है जो उन्हें अमिताभ बच्चन बनाती है। टूटकर भी न बिखरना उनके डी एन ए में ही घुला हुआ है संभवतः। डॉ हरिवंशराय बच्चन ने एक साक्षात्कार में अपने पुत्र के व्यक्तित्व को कुछ इस तरह परिभाषित किया था कि अमिताभ चीजों को गहराई तक उतर कर समझने की कोशिश करते है फिर वह चाहे आधुनिक कविता हो या जिंदगी , शायद इसीलिए वे हार नहीं मानते। यही समझ उन्हें उस समय और  परिपक्व बना देती है जब वे शादीशुदा होते हुए प्रेम करने का दुस्साहस कर बैठते है और बात बिगड़े उससे पूर्व अपने घर लौट आते है। 
अमिताभ के प्रशंसकों को अक्सर इस बात का गिला रहा है कि उनका इतना प्रभाव और पहुँच होने के बाद भी उन्होंने भारतीय सिनेमा के  ख्यातनाम निर्देशकों के साथ काम नहीं किया। यधपि उन्होंने अब तक दो सौ से अधिक फिल्मों में काम किया है परन्तु बिमल रॉय , बासु चटर्जी , राजकपूर , सत्यजीत रे एवं गुलजार   के साथ उनकी एक भी फिल्म नहीं है। गुलजार साहब ने तो कोशिश भी की थी परन्तु पटकथा से आगे बात नहीं बढ़ पाई। सत्यजीत रे उनके लिए फिल्म बनाना चाहते थे परन्तु संकोच के चलते पहल नहीं कर पाए। उन्होंने जया बच्चन को अपनी हिचकिचाहट कुछ इस तरह बताई थी कि ' में जमाई बाबू को लेकर एक फिल्म बनाना चाहता हु परन्तु उनकी मार्केट प्राइस अदा करने की मेरी हैसियत नहीं है !
 फोर्ब्स पत्रिका के धनाढ्यों की सूची में टॉप टेन में रहे अमिताभ अपनी सिनेमाई छवि में 'अभिजात्य विरोधी ' भूमिकाओं में ज्यादा सराहे गए। मेगा स्टार , मिलेनियम स्टार जैसे विशेषणों के बावजूद उनके पैर हमेशा  जमीन पर नजर आये है। के बी सी में सामान्य से प्रतियोगी को विशिष्ट होने का अहसास दिलाती उनकी ' बॉडी लैंग्वेज ' हो  या फिर उनके ब्लॉग पर आने वाले पाठकों को सहजता से  जवाब देने की शैली , उन्हें देश विदेश के आमजन में ऐसे ही लोकप्रिय नहीं बनाती। इन सबसे जुदा एक गुण जो उन्हें अपने समकालीन अभिनेताओं से अलग खड़ा करता है वह है अनुशासन ! काम के प्रति समर्पण ! फिल्मों से इतर जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी उनके इस गुण को सराहा अपनाया जाता है।  जनमानस में इतनी लोकप्रियता और स्नेह अन्य सितारों के लिए अब भी एक स्वप्न से कम नहीं है।
उनके लाखों प्रशंसकों की यही कामना है कि अपने हॉलीवुड के समकालीनों मॉर्गन फ्रीमेन , जैक निकोलसन , क्लिंट ईस्टवूड और रोबर्ट रेडफोर्ड की तरह वे नए चरित्रों में उतर कर सिनेमाई माध्यम को पचास साला सफर के बाद भी रोशन करते रहे। 

Saturday, February 9, 2019

बेगानी शादी का ऑस्कर


कई दशकों तक हम फिल्मे देखने वालों को ' ऑस्कर ' से लगाव नहीं था।  हम हमारे ' फिल्म फेयर ' से खुश थे। परन्तु 2001 में ' लगान ' का ऑस्कर की विदेशी भाषा श्रेणी में चयन होना हमारी महत्वकांक्षाओ को पंख लगा गया। यद्धपि ' लगान ' पिछड़ गई परन्तु हमारे फिल्मकारों को एक सुनहरा सपना दिखा गई। न सिर्फ फिल्मकार वरन आम दर्शक भी यही चाहने लगा कि लॉस एंजेलेस के कोडक थिएटर के रेड कार्पेट पर भारतीय अभिनेताओं को चहल कदमी करता देखे। इस दिवा स्वप्न के आकार लेने की एकमात्र वजह थी भारतीय फिल्मों को वैश्विक स्वीकार्यता मिलती देखने की लालसा क्योंकि भारत आज भी हर वर्ष  दुनिया भर में बनने वाली कुल फिल्मों की संख्या की आधी फिल्मे बनाता है। अगर संख्या के आधार पर ही ऑस्कर मिलता तो हम निश्चित रूप से सबसे आगे होते , बदकिस्मती से ऐसा संभव नहीं है। 
हमारे लिए यह जानना जरुरी है कि ' ऑस्कर ' सिर्फ और सिर्फ अमेरिकी फिल्मों के लिए है। 1929 से आरम्भ हुए इस  फ़िल्मी पुरूस्कार में विदेशी भाषा की फिल्मों को शामिल करने की शुरुआत 1956 में हुई थी।  ठीक इसी के आसपास भारत में फिल्म फेयर अवार्ड्स शुरू हुए थे। 1958 में ' मदर इंडिया ' पहली भारतीय फिल्म बनी जिसे विदेशी भाषा श्रेणी में पुरुस्कृत होने का गौरव मिला था।  चूँकि नब्बे के दशक के आते आते टेलीविज़न ने सेटेलाइट के जरिये  अपना दायरा फैलाना आरम्भ कर दिया था तो ऑस्कर समारोह का प्रसारण अमरीकी महाद्वीप से निकलकर खुद ब खुद पूरी दुनिया को मोहित करने लगा था। भव्यता , अनूठापन , ताजगी और चकाचौंध से लबरेज यह समारोह दुनिया के साथ भारत को भी अपने आकर्षण में बाँध चूका था। देश में ऑस्कर को लेकर जूनून बढ़ने की एक वजह यह भी थी कि  नब्बे के दशक आते आते ' फिल्म फेयर ' अपनी साख गंवाने लगे थे। नए टीवी चैनल खुद अपने ही अवार्ड्स बांटने लगे थे। प्रतिभा और गुणवत्ता की जगह चमक धमक शीर्ष पर आगई थी। रेवड़ियों की तरह बटने वाले पुरुस्कारों ने फ़िल्मी पुरुस्कारों की विश्वसनीयता को धरातल पर ला दिया था। फिल्म फेयर की साख 1993 में उस समय रसातल में चली गई थी जब स्टेज पर  डिम्पल कपाड़िया ने बगैर लिफाफा खोले अनिल कपूर को बेस्ट एक्टर घोषित कर दिया था जबकि कयास आमिर खान के लगाए जा रहे थे।
   यद्धपि हालात आज भी ज्यादा नहीं बदले है। आज भी इन पुरुस्कारों को इतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता जितनी उत्सुकता से ऑस्कर का इंतजार किया जाता है। भारत की और से अभी तक 50  फिल्मे इस समारोह में हिस्सा ले चुकी है। 2019 के लिए भारत की और से भेजी गई असमी भाषा की फिल्म ' विलेज रॉकस्टार ' इस क्रम में इक्क्यावनवी फिल्म थी जो अगले राउंड में जाने के लिए उपयुक्त वोट हासिल न कर सकी और बाहर हो गई। भारत की और से इस श्रेणी में भेजी जाने वाली फिल्मों का चयन भी उनके फ़ाइनल में न पहुँचने की बड़ी वजह रहा है। पक्षपात और अपनों को  उपकृत करने के खेल ने कई अच्छी फिल्मों को ऑस्कर नहीं पहुँचने दिया है। 
ऑस्कर के लिए भारत से भेजी जाने वाली फिल्मों का चयन फिल्म फेडरेशन ऑफ़ इंडिया द्वारा नियुक्त एक स्वतंत्र जूरी करती है जिसमे ग्यारह सदस्य है। यह जूरी कब फिल्मे देखती है और कब उनका चयन करती है यह बहुत बड़ा रहस्य है। क्योंकि फ़िल्मी दुनिया के वरिष्ठ और धाकड़ लोगों को भी ठीक ठीक पता नहीं है कि इस जूरी में कौन कौन लोग है। अतीत में जिस तरह की फिल्मे ऑस्कर के लिए भेजी गई है उससे इस चयन प्रक्रिया पर ही सवाल उठते रहे है। 1996 में इंडियन ' 1998 में ऐश्वर्या अभिनीत ' जींस ' 2007 में ' एकलव्य ' 2012 में ' बर्फी ' जैसे कुछ उदहारण है जो बताते है कि राजनीति और भाई भतीजावाद की भांग यहाँ भी घुली  हुई है। 
आगामी 24 फ़रवरी को जब समारोह पूर्वक ये पुरूस्कार वितरित किये जाएंगे तब हम सिने प्रेमी ' बेगानी शादी ' में ताकझांक करते शख्स की तरह टीवी पर नजरे गढ़ाए आहे भर रहे होंगे। हम और कर भी क्या सकते है ! 

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...