Saturday, March 23, 2019

भ्रम को वास्तविकता में बदलते कॉस्ट्यूम

फिल्म को डायरेक्टर का माध्यम यूँ ही नहीं कहा जाता। दर्शक वही देखता है जो डायरेक्टर उसे दिखाना चाहता है।  एक विचार के द्रश्य में बदलने की लंबी प्रक्रिया के दौरान फिल्म का कथानक उसके अंतस में कई दोहराव लेता है। हर द्रश्य की बारीकियां सबसे पहले उसके मानस में चित्रों का निर्माण करती है।  चूँकि यह माध्यम सामूहिक सहयोग पर आधारित होता है तो सिनेमेटोग्राफर , आर्ट डायरेक्टर ,प्रोडक्शन डिज़ाइनर , कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर जैसे आमतौर पर दर्शक के नोटिस में न आने वाले तत्वों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। ये लोग डायरेक्टर की ही सोंच को आगे बढ़ाते हुए  अपने श्रेष्ठतम प्रयासों से निर्जीव स्क्रीनप्ले को जीवन प्रदान करते है। 
कोई भी फिल्म सिनेमैटिक भाषा का प्रयोग करते हुए अपनी कहानी सुनाती है। उसके पात्रो द्वारा पहने हुए कपडे दर्शक को कहानी से जोड़ने  का आधा काम आसान कर देते है। किसी द्रश्य का निर्माण करना एक भ्रम का निर्माण करना होता है और चरित्रों के पहने हुए कपडे इस भ्रम को वास्तविकता के नजदीक पहुँचाने में महती भूमिका अदा करते है। 
पिछले दिनों प्रदर्शित ' द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर ' अन्य बातों के अलावा अपने वास्तविक लगते कलाकारों और उनके पहने कपड़ों के लिए खासी सराही गई। इस फिल्म के अधिकांश पात्र , लोकेशन और घटनाए सीधे जिंदगी से उठकर आये थे। फिल्म के चरित्र आमजन के लिए अनजान नहीं थे। लोग टेलीविज़न और पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से इन लोगों की हर नैसर्गिक आदतों से परिचित थे। ऐसे में उन्हें हूबहू स्क्रीन पर उतारना कास्टिंग डायरेक्टर के साथ कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर के लिए भी चुनौती भरा काम था। फिल्म की कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर अभिलाषा श्रीवास्तव ने अपने शोध और अनुभव से  इस काम को कुशलता से अंजाम दिया है। कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर का महत्व संभवतः आम दर्शक को इससे पहले कभी समझ नहीं आया होगा।  
कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर शब्द हांलाकि काफी बाद में चलन में आया है परन्तु इसका महत्त्व भारत की बनी पहली फिल्म ' राजा हरिश्चन्द्र ' से ही स्पस्ट हो गया था। दादा साहेब फालके ने  अपने पुरुष पात्रो का  महिला वेश कॉस्ट्यूम की मदद से ही रचा था। सत्तर के दशक तक इस विधा को वैसा क्रेडिट नहीं मिला जिसकी यह तलबगार थी। फिल्मो के अंत में टाइटल क्रेडिट में ड्रेसवाला ' या वार्डरोब कर्टसी ' डालकर काम चला दिया जाता था। आशा पारेख की म्यूजिकल  फिल्म ' कारावान (1971) से  लीना दारु का नाम सामने आया जिन्होंने मुंबई के जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स से बाकायदा कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग में ग्रेजुएशन किया था। इस लिहाज से लीना दारु बॉलीवुड की पहली घोषित डिज़ाइनर मानी गई। कारावान से आरंभ उनका सफर ' सीता और गीता , खूबसूरत ,उत्सव , उमरावजान ,लम्हे , चांदनी , सिलसिला ' जैसे यादगार पड़ावों से गुजरते हुए फिल्मो का शतक लगा गया है। 
शशिकपूर  निर्मित  पीरियड फिल्म ' उत्सव (1984 ) का कथानक दो सदी ईसा पूर्व में शूद्रक के संस्कृत में लिखे नाटक ' मृछकटिका ' पर आधारित था। यह समय सामाजिक  खुलेपन और आधुनिक पहनावे का माना जाता था।  उस दौर की कल्पना को साकार करने के लिए लीना ने अजंता के शिल्पों से प्रेरणा ली थी। इस फिल्म को आज भी इसके मादक मधुर गीतों और  बेहतरीन कॉस्ट्यूम की बेमिसाल जुगलबंदी के लिए  याद किया जाता है। 
 
लीना दो दशकों तक रेखा के लिए ड्रेस डिज़ाइन करती रही थी।  इस दौरान उन्होंने किसी और के लिए काम नहीं किया।  रेखा ने सिनेमा को खुद के रूप में एक सर्व स्वीकार  सामजिक चेहरा दिया है जिसमे भारतीय परंपरा एवं  सदाबहार सेन्सुअलिटी के साथ ग्लैमर भी जुड़ा हुआ था।  लीना की डिज़ाइन की हुई साड़ियां रेखा को एक अलग ही स्तर पर ले गई है।  उन्होंने साड़ियों को एक आकर्षक पहनावे के अलावा आकर्षक और पारंपारिक भी बना दिया है।  अपने समय की नायिकाओ से इतर रेखा ने चित्ताकर्षक दक्षिण भारतीय सिल्क साड़ियों को लोकप्रिय बनाने में अप्रतिम योगदान किया है , शायद इसलिए उन्हें आज भी एक स्टाइल आइकॉन के रूप में  याद किया जाता है। 
सिनेमाई मील का पत्थर ' मुग़ले आजम ' की बात  करते समय आज भी विशेषण कम पड़ते है।फिल्मों के  श्वेत श्याम युग में भव्य मुग़लकालीन दौर का अहसास दिलाना के. आसिफ के लिए आसान नहीं था। कल्पना को वास्तविकता में उतारने के लिए वास्तविक चीजों का ही  सहारा लिया गया था। शाही चरित्रों को पात्र की काया में उतारने के लिए दिल्ली मुंबई  के अनाम दर्जियों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। एम्ब्रॉयडरी और जरदोजी के सिद्धस्त दर्जियों को मुंबई लाया गया था जहाँ के. आसिफ ने अपने मार्गदर्शन में हरेक पात्र के कपडे डिज़ाइन कराये थे। जरी के काम के लिए सूरत के टेलर मास्टरों की मदद ली गई और सोने के धागों की कारीगरी हैदराबाद के सुनारों के योगदान से संभव हुई। 
तीन बार की ऑस्कर विजेता ब्रिटिश कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर सैंडी पॉवेल का मानना है कि किसी फिल्म के चरित्र को उभारने  में कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग खासा महत्वपूर्ण काम है। इस काम को पूर्णता के साथ अंजाम देने के लिए डिज़ाइनर को कम से कम तीन बार कहानी और पटकथा को पढ़ना जरुरी होता है। तब कही जाकर वह पात्रों के वास्तविक अक्स अपने मस्तिष्क में साकार कर पाता है। कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग के लिए हद से ज्यादा समर्पित सैंडी का कौशल विश्वस्तर पर सराही गई कई फिल्मों में झलकता है। भारतीय दर्शकों को भी लुभा चुकी ' शेक्सपीअर इन लव (1998) द एविएटर (2004) मेमोर्स ऑफ़ गीशा (2006) एवं ' द यंग विक्टोरिया (2009) उनकी उल्लेखनीय फिल्मे है। 
अक्सर स्क्रीन पर नजर आ रहा अभिनेता दर्शक के लिए जाना पहचाना होता है परन्तु अपने परिधान से वह दर्शक को तुरंत ही उस काल खंड में ले जाता है जिसके बारे में फिल्म बात कर रही होती है । उसके लुक  को फिल्म के कथानक के हिसाब से ' मोल्ड ' करने में मेकअप आर्टिस्ट के साथ कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर की रचनाशीलता का अपना महत्व  होता है। कॉस्ट्यूम न सिर्फ दर्शक को बताता कि अमुक चरित्र कौन है व किस काल का है , बल्कि अभिनेता को भी महसूस कराता है कि उसे धारण करने के बाद वह किस तरह पात्र को व्यक्त कर सकता है। इस विचार को पकड़कर भारतीय  सिनेमा को वैश्विक सरहद पर ले जाने वाली  भानु अथैया ने सौ से अधिक फिल्मों के लिए कॉस्ट्यूम डिज़ाइन किये है।  वे उन बिरले डिज़ाइनर में शामिल है जिन्हे शीर्ष निर्देशकों गुरुदत्त , राजकपूर , यश चोपड़ा ,आशुतोष गवारिकर, विधु विनोद चोपड़ा  व रिचर्ड एटेनबरो के मार्ग दर्शन में अपना हुनर तराशने का मौका मिला है। कहना न होगा भानु अथैया को  लगभग चार दशक पहले ' गांधी ' के लिए  मिला ऑस्कर भारतीय डिज़ाइनरो के लिए उत्साह जनक प्रेरणा बना हुआ है। एक अन्य  पीरियड फिल्म ' 1942 ए लव स्टोरी ' के लिए जितनी मेहनत सेट डिज़ाइन करने में की गई थी उतनी ही कवायद भानु ने  1942 के दौर में पात्रों के पहने जाने वाले कपड़ों के लिए भी की । विशेष रूप से मनीषा कोइराला द्वारा पहनी गई अधिकांश साड़ियां हाथ से बुनी गई थी।   
बॉलीवुड के ही एक और अग्रणी  नाम का जिक्र किये बगैर इस बात को खत्म नहीं किया जा सकता। ये नीता लुल्ला है। मुंबई में ही जन्मी और सोशल सर्किल का हिस्सा रही नीता के लिए कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग सबसे आसान काम रहा है। अबतक तीन सौ फिल्मों के लिए ड्रेस डिज़ाइन कर चुकी नीता के कौशल को सार्थकता तब मिली जब संजय लीला भंसाली की  ' देवदास ' के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरूस्कार से सम्मानित किया गया था । उनके लिए चुनौती भरा काम ' जोधा अकबर ' के रूप में सामने आया । यह फिल्म भी ' मुग़लेआजम ' की तरह भव्य थी। नीता ने ऐश्वर्या और ऋतिक रोशन के कॉस्ट्यूम डिज़ाइन करने के अलावा इस फिल्म में ऐश्वर्या द्वारा पहने गए गहने भी डिज़ाइन किये थे जो उनकी गहन शोध का परिणाम है।  इन्हे  देश के प्रसिद्ध ज्वेलरी ब्रांड के साथ मिलकर  डिज़ाइन किया गया  था। विवादों और प्रशंसा से सरोबार ' जोधा अकबर ' अपने गहनों के लिए आज भी सिफारिश की जाती है। 
अंग्रेजी के एक बड़े टीवी चैनल एच बी ओ द्वारा  प्रसारित भव्य धारावाहिक  ' गेम ऑफ़ थ्रोन ' को भारत में सर्वाधिक बार  पायरेटेड रूप से देखा और सराहा गया है। तीन महाद्वीपों में फैले कथानक और सैंकड़ों पात्रों से सज्जित इस कहानी के अधिकांश  मध्यकालीन कॉस्ट्यूम दिल्ली के पास नॉएडा में निर्मित किये गए है। फिल्मों से कही अधिक वीएफएक्स, अनूठे कॉस्ट्यूम और विशाल सेट्स की वजह से ' गेम ऑफ़ थ्रोन ' दुनिया भर में लोकप्रियता की हद पार कर गया है। हम भारतीय इस बात पर इतरा सकते है कि कही न कही हमारे कुछ अनाम कारीगर  भी इसकी सफलता का हिस्सा है। 
 कॉस्ट्यूम के महत्व को रेखांकित करता हॉलीवुड के वरिष्ठ डिज़ाइनर जेराड स्मिथ का कथन गौरतलब है कि ' एक डिज़ाइनर के काम का मतलब सिर्फ ध्यान आकर्षित करना नहीं होता वरन दर्शक को उस सम्पूर्ण प्रस्तुति का हिस्सा बनाना होता है जो उसके मस्तिष्क में ताउम्र के लिए दर्ज होने वाली है !

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