Thursday, March 7, 2019

मनमौजी मिजाज का दर्शक !

एक अच्छी और लोकप्रिय फिल्म में क्या अंतर है ? अक्सर यह सवाल दर्शक के साथ फिल्म समीक्षकों को भी हैरान करता रहा है। अच्छी फिल्म को लोकप्रिय होना चाहिए परन्तु अमूमन होती नहीं है ठीक वैसे ही लोकप्रिय फिल्म एक बड़े दर्शक वर्ग को लुभा जाती है परन्तु समीक्षक उसे नकार चुके होते है। हाल ही में संपन्न हुए ऑस्कर समारोह के बाद ' बेस्ट फिल्म ' को लेकर भी प्रतिकूल टिप्पणियों ने ऑस्कर जूरी पर सवाल खड़े करना आरम्भ कर दिए है। इस वर्ष ' ग्रीन बुक ' ने इस श्रेणी में सम्मान पाया है परन्तु कयास ' रोमा ' के लगाए जा रहे थे। वैसे यह पहली बार नहीं हुआ है जब ऑस्कर इस तरह से विवादों में आया है। इस समारोह के शुरूआती दिनों से लेकर अब तक दस बार इस तरह की घटना हो चुकी है जब आम दर्शकों और सिने समीक्षकों की राय ऑस्कर जूरी से अलहदा रही है। 1941 में सिटीजन केन ' के बजाए ' हाउ ग्रीन वास् माय वेली ' चुनी गई थी। 2010 में फेसबुक के जनक मार्क जकरबर्ग के जीवन पर बनी ' द सोशल नेटवर्क ' को दरकिनार कर ' द किंग्स स्पीच ' विजेता घोषित की गई। इसी प्रकार प्रतिभाशाली क्रिस्टोफर नोलन की ' द डार्क नाईट ' के बदले ' स्लमडॉग मिलेनियर ' को नवाजा गया। इस जैसे  सैंकड़ों उदाहरण ऑस्कर के अलावा भी मौजूद है जब बेहतर फिल्मों को पार्श्व में धकेलकर औसत फिल्मों को मंच दिया गया। इस तरह से  यद्धपि अच्छी फिल्मों को तात्कालिक नुक्सान जरूर हुआ परन्तु देर से ही सही वे सराहना हासिल करने में सफल भी हुई और कालजयी भी साबित हुई।
 ऐसा नहीं है कि इस समस्या से सिर्फ हॉलीवुड ही ग्रस्त है , हमारा देसी सिनेमा भी इसी तरह के विकारों से ग्रसित रहा है। हमारे पुरुस्कारों के बारे में  बात करना इसलिए  बेमानी है क्योंकि सबको पता होता है कि किसको क्या मिलने वाला है ! यहाँ प्रतिभा के बजाए शक्ल देखकर तिलक लगाने का रिवाज रहा है। 
अच्छी फिल्मों को सराहना न  मिलने के एक से अधिक  कारण रहते रहे है। जो दीखता है वही बिकता है या शोर मचाकर कुछ भी बेचा जा सकता है के सिद्धांत फिल्मों की मार्केटिंग पर भी लागू होते है। निर्देशक का विज़न दर्शक से जुदा होना , कहानी का दर्शक के सर पर से निकल जाना , कथानक का मौजूदा समय या परिस्तिथियों से तार्किक सम्बन्ध न होना , दर्शक का सब्जेक्ट को लेकर परिपक्व न होना , नए विषय को सही ढंग से समझा न पाना या समय से आगे निकल जाने का दुस्साहस करना कुछ ऐसे कारण रहे है जो अच्छी फिल्मों को अपेक्षित सफलता नहीं दिला पाए है।
 
इस परिभाषा के दायरे में आने वाली बहुत सी फिल्मे राष्ट्रीय पुरुस्कारों से लादी गई व विदेशी फिल्मोत्सवों में देश के झंडे फहरा आई परन्तु घरेलु जमीन पर दर्शकों को सिनेमाघरों में नहीं खींच पाई। ज्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है , सन दो हजार से लेकर अब तक की फिल्मों को ही सूचिबद्ध किया जाए तो हमें अहसास होगा कि दर्शक कितने कीमती सिनेमाई माणिकों से वंचित रह गया है। रघु रोमियो (2003)  द ब्लू अम्ब्रेला (2005) 15 पार्क एवेन्यू (2005) मानसून वेडिंग (2001) मि एंड मिसेज अय्यर(2002) रेनकोट (2004) फंस गए रे ओबामा (2010) ऐसी ही फिल्मे है जो चलताऊ व्यावसायिक फिल्मों के सामने  असफल मानी गई है।परन्तु इनका कंटेंट इतना पावरफुल था कि संजीदा  दर्शक आज भी इन्हे यूट्यूब पर तलाशते नजर आजाते है। 
                 
    सौ करोड़ का आंकड़ा ' शब्द सफलता का पैमाना मान लिया गया है। एक सौ पांच करोड़ की लागत में बनी ' टोटल धमाल ' ने सौ करोड़ कमा लिए ! इस बात का इस तरह प्रचार किया जा रहा है मानो अनूठी घटना घट गई हो। कई बार दोहराये हुए कथानक पर आधारित उबाऊ कॉमेडी अगर अपनी लागत भी निकाल लेती है तो रूककर सोंचने की आवश्यकता है। दर्शकों के मिजाज पर सर्वेक्षण करने की जरुरत है। 

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