Tuesday, February 26, 2019

सिनेमा के परदे पर युद्ध की विभीषिका



रक्षा मामलों के कुछ विशेषज्ञों  का  मानना है कि भारत पाकिस्तान के मध्य अगर युद्ध हुआ तो यह विश्व युद्ध का रूप ले लेगा। वे इस बात पर भी जोर देते है कि दोनों ही देश युद्ध को अंतिम विकल्प के रूप में ही चुनना पसंद करेंगे। खबर है कि पुलवामा हादसे के पांच दिन पूर्व ही पाकिस्तान ने अपनी सेना को सतर्क करना आरम्भ कर दिया था। इसके बाद भी अगर सत्तर सालों में अपने पड़ोसी का चाल चलन और नियत हम नहीं समझ पाए तो यह हमारी नादानी ही मानी जाएगी।
 बावजूद जबानी जंग के अगर युद्ध होता भी है तो उसके परिणामो का आकलन कर लिया जाना चाहिए। यह पहला ऐसा युद्ध होगा जो सिर्फ सरहद पर नहीं लड़ा जाएगा। देश की सीमाओं से  दूर बसे शहरी क्षेत्र इसकी जद में होंगे। परिणाम स्वरुप जान माल के नुकसान का सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है । यह भी तय है कि  हथियारों के ढेर पर बैठे दोनों ही देश अपने सामान्य नागरिकों की हानि स्वीकार नहीं करेंगे। 
भारत में बंटवारे के बाद से ही युद्ध की विभीषिका पर फिल्मे बनती रही है और साहित्य लिखा जाता रहा है।
बहुत से वरिष्ठ साहित्यकारों ने बंटवारे के दौरान भोगे यथार्थ को अपने शब्द दिए है। आतंक , उत्पीड़न और नफरत से जानवर बनते मनुष्य के उदाहरणों के दृश्यों ,  शब्दों से गुजरते हुए साठ सत्तर के दशक के बाद जन्मा  वह पाठक भी सिहर जाता है जिसने बंटवारे को देखा नहीं है , सिर्फ सुना है । खुशवंत सिंह की कृति ' ट्रैन टू पाकिस्तान ' भीष्म साहनी की ' तमस ' और अमृता प्रीतम की ' पिंजर ' साहित्य होते हुए भी ऐतिहासिक दस्तावेज है। इन कहानियों को पढ़ते हुए पाठक जिस मानसिक  त्रासदी से गुजरता है उसके बाद वह नफरत शब्द से ही नफरत करने लग जाता है। 
इन तीनो ही कृतियों को सिनेमाई माध्यम में बदला गया है और उल्लेखनीय बात यह है कि किताब की ही तरह यह कहानियां परदे पर भी उतना ही सटीक प्रभाव उत्पन्न करने में सफल रही है। समय समय पर बनी युद्ध  फिल्मों और देशभक्ति के गीतों ने भी राष्ट्र प्रेम की भावना को बढ़ाने में महती भूमिका निभाई है। यधपि दर्जनों युद्ध फिल्मों में से कुछ ही फिल्मे वास्तविकता और तथ्यों के नजदीक रही है। 1964 में चेतन आनंद निर्देशित ' हकीकत ' चीन के साथ युद्ध की घटनाओ पर आधारित थी। युद्ध  को ही केंद्र में रखकर रची गई कुछ फिल्मों में से ' बॉर्डर ' जे पी दत्ता की सर्वाधिक सफल फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म के प्रदर्शन के साथ एक कड़वी याद भी  जुडी हुई है।1997 की गर्मियों में  दिल्ली के उपहार थिएटर में इस  फिल्म के प्रदर्शन के दौरान आगजनी की वजह से 59 दर्शक अपनी जान गँवा बैठे थे। 
दुनिया भर का इतिहास युद्ध के  रक्तरंजित किस्सों से भरा हुआ है। इन किस्सों की कहानियाँ साहित्य का भी महत्वपूर्ण अंग बन चुकी है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ही दुनिया ने पहला विश्व युद्ध देख लिया था। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत ने दुनिया को परमाणु बम के प्रभावों से अवगत कराया । इतिहास की यही त्रासदी है कि कोई उससे सबक नहीं लेता है। इन युद्धों को केंद्र में रखकर यूरोप और अमेरिका में बहुत अच्छी फिल्मे बनी है। अकेले हॉलीवुड ने ही  इस विषय पर कालजयी फिल्मे बनाई है। उल्लेखनीय फिल्मों में ' द ब्रिजेस ऑन  रिवर क्वाई (1957) द गन्स ऑफ़ नवरोन (1961) द लांगेस्ट डे (1962) द ग्रेट एस्केप (1963) द पियानिस्ट (2002) हर्ट लॉकर(2008 ) युद्ध की विभीषिका और आम नागरिक पर पड़ने वाले शारीरिक और मानसिक यंत्रणा  का सटीक चित्रण करती है। 2001 में 'लगान ' को परास्त कर ऑस्कर जीतने वाली ' नो मेंस लैंड ' युद्ध के दौरान सैनिकों की मानसिकता और सरकारों की असंवेदनशीलता बगैर लाग लपेट के उजागर कर देती है।
 
फ्रेंच भाषा के शब्द ' देजा वू ' का मतलब है भविष्य को वर्तमान में देख लेना या महसूस कर लेना। मनोविज्ञान के इस भाव को लेकर अमेरिकी टीवी चैनल सी बी एस ने 1958 में विज्ञान फंतासी लेखक रॉड सेरलिंग की कहानियों पर आधारित धारावाहिक 'द टाइम एलिमेंट 'प्रसारित किया था। कहानी के नायक को आभास हो जाता है कि अगले दिन अमेरिकी नौसेना के बंदरगाह ' पर्ल हार्बर ' पर जापानी विमान हमला करने वाले है। वह सबको सचेत करने की कोशिश करता है परन्तु कोई उसकी बात पर विश्वास नहीं करता। अगले दिन वाकई हमला होता है और वह भी उस हमले में  मारा जाता है। पर्ल हार्बर हादसे के जख्म ने ही अमेरिका को जापान पर परमाणु बम गिराने के लिए मजबूर किया था। यह ऐसा युद्ध था जिसके निशान मानव जाति के शरीर और आत्मा दोनों पर आज भी नजर आते है। 

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