अधिकांश न्यूज़ चैनल मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा अविश्सनीयता के माहौल से गुजर रहे है। चार पांच साल पहले भी खबरे बाकायदा प्लांट की जाती थी। दर्शकों की मानसिकता को किस और मोड़ना है इस पर गहन शोध होता था। परन्तु यह सब काम एक सिमित दायरे में और लुके छिपे तरीके से होता था। वर्तमान में यह सब काम धड़ल्ले से और खुलकर हो रहा है। फेक न्यूज़ ' शब्द जितना अब प्रचलन में आया है उतना पहले कभी नहीं रहा। ख़बरों के प्रस्तुतीकरण से तय किया जाने लगा है कि दर्शक के अवचेतन में कोनसा विचार रोपना है ताकि समय आने पर उसे बरगलाने में ज्यादा कवायद न करना पड़े।
पेशे से सिविल इंजीनियर और विडिओ लाइब्रेरी चलाकर फिल्म उधोग में आये रामगोपाल वर्मा ने अपनी पहली ही फिल्म से ऐसा समां बाँधा था कि क्या दक्षिण और क्या बॉलीवुड सभी उनके कायल होगए। रामगोपाल वर्मा ने फिल्म मेकिंग की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली है। अपनी विडिओ लाइब्रेरी में फिल्मे देखकर और एक ही दृश्य को दर्जनों बार रिवाइंड कर उन्होंने निर्देशन और स्क्रिप्ट राइटिंग के गुर सीखे थे। अपने समकालीन निर्देशकों से उलट वर्मा ने अपनी खुद की फिल्म मेकिंग शैली निर्मित की। उनकी फिल्मे मूलतः तीन महत्वपूर्ण स्तंभों पर टिकी होती है - सधी हुई स्क्रिप्ट , केमेरे का एंगल और सलीके से की गई एडिटिंग। उनकी फिल्मो की बुनावट पर खासतौर से आइन रेंड , और जेम्स हेडली चेस का प्रभाव महसूस किया जा सकता है। 1992 में उनकी निर्देशित सुपर नेचुरल थ्रिलर ' रात ' का ओपनिंग सीन महज संगीत और कैमरे के मूवमेंट से ही दर्शक को सिहरा देता है। बाद में आगे चलकर यही प्रयोग उन्होंने ' भूत ' ( 2003 ) डरना मना है ( 2003 ) डरना जरुरी है (2006 ) में भी किया। स्क्रिप्ट राइटर या डायरेक्टर या प्रोडूसर के रूप में उनका नाम अस्सी से ज्यादा फिल्मों के साथ जुड़ा है। उनकी सत्या , शिवा , कंपनी , सरकार , अब तक छप्पन जैसी फिल्मे मील का पत्थर मानी जाती है। उनकी सभी फिल्मों की बात करने के लिए यह कॉलम बहुत छोटा है। इस लेख की शुरुआत में हमने पक्षपाती न्यूज़ चैनल की भूमिका पर सवाल उठाये थे। 2010 में राम गोपाल वर्मा ने इस तरह के असाधारण विषय पर ' रण ' निर्देशित की थी। यह पोलिटिकल थ्रिलर फिल्म इस मायने में भी जुदा थी कि इस तरह की फिल्मों के लिए दर्शक अपना मानस अभी हॉलीवुड की तरह परिपक्व नहीं कर पाया है। दूसरा , इस तरह की फिल्म बनाना जिसके किरदार सीधे वास्तविक जीवन से उठकर आरहे हो , वाकई में जोखिम और साहस का काम है। एक लड़खड़ा कर चल रहे न्यूज़ चैनल का मालिक आइन रैंड के उपन्यास ' फाउंटेन हेड ' के नायक हॉवर्ड रॉक की तरह आदर्शवादी है। उसूल उसके जीवन की प्राथमिकता है। उसका बेटा और दामाद एक भ्रष्ट राजनेता की मदद से अपने न्यूज़ चैनल पर फेक न्यूज़ चला कर ईमानदार प्रधानमंत्री को सत्ता से हटा देते है। उद्योगपति -राजनेता -न्यूज़ चैनल का गठजोड़ कैसे हरेक परिस्तिथि को अपने पक्ष में मोड़ लेता है , यह फिल्म उसका सुन्दर उदहारण है। आठ वर्ष पुरानी यह फिल्म देखते हुए दर्शक को महसूस होता है जैसे वर्तमान को हूबहू स्क्रीन पर उतार दिया गया हो। विश्वसनीयता की आखरी पायदान पर खड़े न्यूज़ चैनल , औद्योगिक घरानों के लालच , राजनैतिक हत्याए , कपड़ों की तरह बदलती वफ़ादारी - ' रण ' हमारे समाज को आईना दिखाती है। यह कड़वा सच भी दर्शाती है कि निष्पक्षता के रास्ते पर चलने वाले चेनलों को दर्शकों का भी सहारा नही मिलता । टीआरपी का खेल उन्हें आर्थिक रूप से तंगहाल कर देता है ।
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