मनोहर श्याम जोशी ने फिल्मों के कथानक की खोज के संबंध में दिलचस्प बात कही थी कि अक्सर कहानियों का जन्म किसी आइडिया से होता है। कोई सवाल दिमाग में लहराता है कि ऐसा होता तो क्या होता ? वे बात को आगे बढ़ाते हुए कहते है कि अक्सर एक आइडिया से दूसरा आईडीया निकलता है। और कभी कभी दो आइडिया जोड़ देने पर तीसरा आइडिया निकल आता है। कभी किसी आइडिया को उलट देने पर भी कोई नया आइडिया निकल आता है।
अपनी युवा अवस्था में ' मदर इंडिया ' देखते हुए निर्माता निर्देशक रमेश सिप्पी को विचार सुझा कि जिस तरह मदर इंडिया ' माँ बेटो के संबंधों पर आधारित आदर्शवादी फिल्म थी उसी प्रकार आदर्शवादी पिता और उसके गुमराह बेटे के कथानक पर आधारित फिल्म बनाई जानी चाहिए। समय के प्रवाह के साथ यह विचार उनके मानस में बना रहा। उनकी निर्देशित ' शोले ' की घनघोर सफलता के बाद और ' शान ' की नाकामयाबी के साथ उस विचार ने एक बार फिर जोर मारना आरंभ किया। अब तक उनके पास सिर्फ आइडिया था कहानी नहीं थी। इसी दौरान तमिल महानायक ' शिवाजी गणेशन की एक फिल्म ने उन्हें प्रभावित किया और उस फिल्म के अधिकार खरीद लिए गए। लेखक जोड़ी ' सलीम जावेद ' ने भी फिल्म को देखा लेकिन उन्हें सिर्फ उसका अंत प्रभावित कर पाया जहाँ एक आदर्शवादी पिता अपने अपराधी पुत्र को जान से मार देता है ! इसी एक लाइन को पकड़ कर कहानी लिखी गई जिसने 1982 की सर्दियों में सिनेमाघर का मुंह देखा। फिल्म थी ' शक्ति ' ! समय के गलियारों में गुम हो जाने के बाद भी कुछ फिल्मे कुछ विशेष कारणों से दर्शकों की स्मृतियों में बनी रहती है। ' शक्ति ' को याद रखने की भी ऐसी ही वजहें है। हिंदी फिल्मों के इतिहास में यह दूसरी बार हुआ था जब बुजुर्ग होती पीढ़ी का पसंदीदा नायक और युवा पीढ़ी का लोकप्रिय नायक एक साथ नजर आये थे। दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन इस फिल्म में पहली और आखरी बार साथ काम कर रहे थे। पहली बार इसी तरह का संयोग ' मुगले आजम ' में बना था जब पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार पिता पुत्र के रूप में आमने सामने आये थे।
इस फिल्म को इस लिहाज से भी याद किया जाता है कि भारतीय सिनेमा के लिए झकझोर देने वाले कथानक लिखने वाली सफल लेखक जोड़ी ' सलीम जावेद ' शक्ति के बाद जुदा हो गए थे।
अपनी युवा अवस्था में ' मदर इंडिया ' देखते हुए निर्माता निर्देशक रमेश सिप्पी को विचार सुझा कि जिस तरह मदर इंडिया ' माँ बेटो के संबंधों पर आधारित आदर्शवादी फिल्म थी उसी प्रकार आदर्शवादी पिता और उसके गुमराह बेटे के कथानक पर आधारित फिल्म बनाई जानी चाहिए। समय के प्रवाह के साथ यह विचार उनके मानस में बना रहा। उनकी निर्देशित ' शोले ' की घनघोर सफलता के बाद और ' शान ' की नाकामयाबी के साथ उस विचार ने एक बार फिर जोर मारना आरंभ किया। अब तक उनके पास सिर्फ आइडिया था कहानी नहीं थी। इसी दौरान तमिल महानायक ' शिवाजी गणेशन की एक फिल्म ने उन्हें प्रभावित किया और उस फिल्म के अधिकार खरीद लिए गए। लेखक जोड़ी ' सलीम जावेद ' ने भी फिल्म को देखा लेकिन उन्हें सिर्फ उसका अंत प्रभावित कर पाया जहाँ एक आदर्शवादी पिता अपने अपराधी पुत्र को जान से मार देता है ! इसी एक लाइन को पकड़ कर कहानी लिखी गई जिसने 1982 की सर्दियों में सिनेमाघर का मुंह देखा। फिल्म थी ' शक्ति ' ! समय के गलियारों में गुम हो जाने के बाद भी कुछ फिल्मे कुछ विशेष कारणों से दर्शकों की स्मृतियों में बनी रहती है। ' शक्ति ' को याद रखने की भी ऐसी ही वजहें है। हिंदी फिल्मों के इतिहास में यह दूसरी बार हुआ था जब बुजुर्ग होती पीढ़ी का पसंदीदा नायक और युवा पीढ़ी का लोकप्रिय नायक एक साथ नजर आये थे। दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन इस फिल्म में पहली और आखरी बार साथ काम कर रहे थे। पहली बार इसी तरह का संयोग ' मुगले आजम ' में बना था जब पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार पिता पुत्र के रूप में आमने सामने आये थे।
इस फिल्म को इस लिहाज से भी याद किया जाता है कि भारतीय सिनेमा के लिए झकझोर देने वाले कथानक लिखने वाली सफल लेखक जोड़ी ' सलीम जावेद ' शक्ति के बाद जुदा हो गए थे।
निर्देशक रमेश सिप्पी इस फिल्म को एक अलग ही स्तर पर ले जाना चाहते थे लिहाजा इसकी कास्टिंग में ही चौकाने वाले तत्व डाले गए। शान ' के खलनायक कुलभूषण खरबंदा इस फिल्म में अमिताभ पर स्नेह लुटाते नजर आये वही ' कभी कभी ' में अमिताभ की प्रेमिका बनी राखी यहाँ उनकी माँ के किरदार में थी। यह तथ्य भी दिलचस्प है कि अमिताभ की लोकप्रियता को देखते हुए उनके इस फिल्म में होने की कल्पना भी नहीं की गई थी। संपूर्ण फिल्म दिलीप कुमार के चरित्र को ध्यान में रखकर लिखी गई थी और उनका रोल वजनदार भी था। राजबब्बर ने स्क्रीन टेस्ट दिया परंतु वे फ़ैल हो गए। जब यह खबर अमिताभ तक पहुंची तो उन्होंने खुद आगे बढ़कर इस फिल्म से जुड़ने की मंशा जाहिर की , जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया।
कथानक को आगे बढ़ाने के लिए शक्ति में सिर्फ चार गाने पिरोये गए थे जिन्हे आनद बक्षी ने शब्द दिए थे। फिल्म का संगीत आर डी बर्मन का था और आवाजे थी लता मंगेशकर , किशोर कुमार और महेंद्र कपूर की। चार गीतों में से दो गीत ' हमने सनम को खत लिखा ' एवं ' जाने कैसे कब कहाँ इकरार हो गया ' आज भी बजते सुनाई देते है। पिता पुत्र संबंधों पर अनेकों फिल्मे बनी है परंतु इस फिल्म में उनके बीच भावनाओ की तीव्रता बखूबी महसूस की जा सकती है। बॉक्स ऑफिस पर शक्ति का प्रदर्शन उम्मीद भरा नहीं था लेकिन समालोचको से इसे काफी सराहना मिली थी। यह तथ्य फिल्म फेयर अवार्ड्स में भी नजर आया। शक्ति ने चार अवार्ड बटोरे। बेस्ट फिल्म , बेस्ट साउंड एडिटिंग , बेस्ट एक्टर ( दिलीप कुमार ) एवं बेस्ट स्क्रीनप्ले। यधपि अमिताभ भी बेस्ट एक्टर केटेगरी में नॉमिनेट हुए थे परन्तु उन्हें खाली हाथ घर लौटना पड़ा !
फिल्म में स्मिता पाटिल और अमरीशपुरी की भी प्रभावशाली भूमिका थी। उल्लेखनीय था अनिल कपूर का छोटा सा रोल जिसमे वे अमिताभ बच्चन के पुत्र के रूप में दिलीपकुमार के साथ स्क्रीन शेयर करते नजर आये थे। तब तक अनिल कपूर की कोई भी हिंदी फिल्म बतौर नायक नहीं आई थी।
फिल्म में स्मिता पाटिल और अमरीशपुरी की भी प्रभावशाली भूमिका थी। उल्लेखनीय था अनिल कपूर का छोटा सा रोल जिसमे वे अमिताभ बच्चन के पुत्र के रूप में दिलीपकुमार के साथ स्क्रीन शेयर करते नजर आये थे। तब तक अनिल कपूर की कोई भी हिंदी फिल्म बतौर नायक नहीं आई थी।
आश्चर्य की बात है कि रीमेक बनाने वालों की नजर इस फिल्म पर आज तक नहीं पड़ी है !
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