कोई भी रचनाकार जिस माहौल में अपना लड़कपन गुजारता है उसकी झलक उनकी रचनाओं में स्वाभाविक रूप से प्रतिबिंबित होने लगती है। उनका भोगा हुआ यथार्थ अनजाने ही उनकी लेखनी में उतर आता है। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद , मेक्सिम गोर्की या फ्रेंज़ काफ्का की अधिकांश रचनाओं में पाठक जीवन की मधुरता व कटुताओं के साथ उस दौर की सामाजिक बुनावट को भी महसूस कर सकते है। इसी तरह के अनुभव महान फिल्मकारों की नजर को भी आकार देते है। कोई भी फ़िल्म परदे पर आने से पहले कई बार उनके मानस में गुजरती है । तंगहाली में गुजारे समय का निचोड़ अनजाने ही उनके अनुभवों में दर्ज हो जाता है । खुद भोगे यथार्थ की पूंजी से संचित उनका अनुभव उनकी कृतियों में साफ़ झलकता है। ऐसे ही एक फिल्मकार है माजिद मजीदी। इस ईरानी फिल्मकार ने 1979 की प्रसिद्द ईरानी क्रांति को नजदीक से देखा है जिसमे पहलवी वंश को हटाकर कट्टरपंथी अयातुल्लाह खोमेनी ने देश पर इस्लामिक शासन लाद दिया था। माजिद मजीदी और उनकी तरह के लिबरल फिल्मकारों की वजह से अस्सी नब्बे के दशक को दूसरी सांस्कृतिक क्रांति के रूप में याद किया जाता है। यह वह दौर था जब ईरानी फिल्मे वैश्विक फलक पर अपनी छाप छोड़ रही थी। फिल्मकारों के सामने अक्सर दो विकल्प रहते है। एक , या तो वे लोकप्रिय सिनेमा बनाये , जिससे उनकी तिजोरी भरती रहे , दूसरा वैश्विक सोंच वाला सिनेमा बनाये जो सिनेमाई माध्यम को समृद्ध करते हुए कलात्मक सिनेमा को एक नई उचाई पर ले जाये । अपने पेंतीस साल के सफर में माजिद मजीदी ने उन्नीस फिल्मे और डॉक्यूमेंटरीया निर्देशित कर अपने को दूसरी श्रेणी में स्थापित किया है।
मानवतावाद मजीदी की फिल्मों का महत्वपूर्ण पहलु रहा है। यद्धपि उनकी फिल्मों की थीम समसामयिक होती है परन्तु कहानी में आधुनिक और प्राचिन जीवन शैली दोस्ताना ढंग से गुथी हुई साथ साथ चलती है। उनकी फिल्मों में सूफी संस्कृति की गंध महसूस की जा सकती है जो पूरी दुनिया की नजर में ईरान की सांस्कृतिक पहचान है। मजीदी दर्शक को बाध्य कर देते कि वह मानवीय अनुभवों को काव्यात्मक लहजे में महसूस करे।
अपनी फिल्म ' चिल्ड्रन ऑफ़ हेवन ' से ऑस्कर अकादमी की दहलीज पर ईरान के पहले कदम रखाने वाले मजीदी की फिल्मे हमें अपने मुंशी प्रेमचंद की कहानियों के गाँव की सैर करा देती है। जैसे जैसे आप शहर की उलझन भरी जिंदगी से दूर होने लगते है आपको भोले भाले लोग मिलना आरम्भ हो जाते है। ये वे लोग होते है जो शहरों की दिखावटी और बनावटी जिंदगी से दूर सुरक्षित बच गए है। ऐसी ही एक खूबसूरत बुनी हुई फिल्म ' सांग ऑफ़ स्पैरो ' है। यह फिल्म हमें ठहरकर सोंचने को मजबूर करती है कि हम आधुनिकता को तजकर मानवीय मूल्यों और मानवीयता को सहेज सकते है अन्यथा 'रोबोट ' बनने से हमें कोई नहीं रोक सकता।
चीन सरकार के निमंत्रण पर एक डॉक्यूमेंट्री बना चुके मजीदी पैगम्बर ' मोहम्मद ' ( 2015 ) पर भी फिल्म बना चुके है। सत्यजीत रे और श्याम बेनेगल से प्रभावित इस फिल्मकार ने हालिया रिलीज़ हिंदी फिल्म ' बियॉन्ड द क्लाउड्स ' को निर्देशित किया है।
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