यह सिर्फ संयोग है या किसी अनहोनी के संकेत कि भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी की खबरे सितंबर माह में हवा से भी तेज चलने लगी है। नब्बे बरस पहले ( 4 सितंबर 1929 ) वैश्विक मंदी की शुरुआत अमेरिका से ही हुई थी। इसका पहला लक्षण शेयर बाजार के बुरी तरह धराशायी होने के रूप में सामने आया था। अगले क्रम में बैंको को ताश के पत्तों की तरह बिखरते देखा गया। इसीके साथ आम जनता की क्रय शक्ति ख़त्म हो गईऔर भरपूर उत्पादन का ढेर खड़ा हो गया लेकिन ग्राहक बाजार से नदारद थे । परिणाम स्वरुप बड़े पैमाने पर लोगों को नौकरियों से निकाला जाने लगा। इस मंदी को ' ग्रेट डिप्रेशन ' का नाम दिया गया। मंदी का पहला शिकार उच्च वर्ग हुआ बाद में मध्यम वर्ग की बारी आई और अंत में निम्न वर्ग और किसान इसकी चपेट में आये।
अगले पंद्रह साल चलने वाली त्रासदी की यह शुरुआत थी जो पच्चीस प्रतिशत अमरीकियों को बेरोजगार बनाने वाली थी। रातों रात सड़क पर आये संपन्न वर्ग को अपमान के साथ जीवित रहना सीखना था। लेकिन इस काले असहनीय अध्याय का एक उजला पक्ष भी सामने आने वाला था। एक बड़ी आबादी के लिए वर्तमान की कठोर वास्तविकता से क्षणिक छुटकारा पाने के लिए सिनेमा एकमात्र विकल्प बचा था। संयोग से यह घटना हॉलीवुड के ' गोल्डन ऐज ' से गुजरने के दौरान हुई थी जिसकी शुरुआत 1915 मे हो चुकी थी।
' ग्रेट डिप्रेशन ' के दौरान अगर किसी को फायदा हुआ तो सिर्फ फिल्मों और उससे जुड़े लोगों को। बेकारी से जूझते लोगों के पास थिएटर का रुख करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। टिकिट दरे न्यूनतम हुआ करती थी। परंतु यह भी आम आदमी को भारी पड़ती थी। सिर्फ एक ' निकल ' ( एक डॉलर का बीसवाँ भाग ) में अगर दर्शक अपने वर्तमान से दूर तीन घंटे हँसते मुस्कुराते गुजार सके इससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता था। ऐतिहासिक तथ्य बताते है कि इन वर्षों में औसतन 6 करोड़ अमरीकी हर हफ्ते सिनेमा देखने जाया करते थे जबकि उस समय अमेरिका की जनसँख्या 9 करोड़ हुआ करती थी। मंदी के पहले पांच वर्षों में अर्थव्यवस्था पचास प्रतिशत सिकुड़ चुकी थी फलस्वरूप 690 बैंक बंद हो गए और हजारों कंपनिया दिवालिया हो गई।
लेकिन हॉलीवुड इस विपरीत परिस्तिथि में भी फलता फूलता रहा। यधपि मंदी का असर बड़े स्टूडियो पर भी हुआ और उनका मुनाफा चौथाई रह गया। बड़े नामों में ट्वेंटीथ सेंचुरी फॉक्स, एमजीएम , वार्नर ब्रदर , पैरामाउंट , वाल्ट डिज्नी जैसे स्टूडियो ही इस मंदी में टिके रहे अन्यथा बंद होने वाले स्टूडियो की संख्या इससे कही अधिक थी। चलचित्रो के संचालकों ने अपने यहाँ भीड़ बनाये रखने के लिए नए तरीके ईजाद कर लिए थे। एक बड़ी फिल्म के साथ एक शार्ट फिल्म बोनस के रूप में दिखाई जाती थी , एक टिकिट को दो बार उपयोग किया जा सकता था , या फिल्म को ऐसी जगह रोक दिया जाता था जहाँ से दर्शक की उत्सुकता उफान पर आ चुकी हो , शेष हिस्सा देखने के लिए उसे अगले हफ्ते आना जरुरी हो जाता था। इस तरह के प्रयोग ' बी- ग्रेड ' फिल्मों या अनजान अभिनेताओं अभिनेत्रियों की फिल्मों के साथ अक्सर किये जाते थे।
इस समय तक फिल्मों की श्रेणियाँ अस्तित्व में नहीं आई थी। लेकिन इस बारे में विचार बनना आरंभ हो गए थे अधिकांश फिल्मे कॉमेडी , गैंगस्टर , डाकू मारधाड़ , म्यूजिकल , हॉरर , थ्रिलर जैसे विषयों पर आधारित थी। इसी दौर में अधिकांश फिल्म निर्माता ' साइलेंट फिल्मों ' से सवाक फिल्मों की और रुख करते नजर आ रहे थे। यहाँ भी विडंबना हो रही थी। साइलेंट फिल्मों में सितारा हैसियत पा चुके अभिनेता ' बोलती ' फिल्मों में खुद को एडजस्ट नहीं कर पा रहे थे। बदलती टेक्नोलॉजी कई लोगों को अकारण बेरोजगार बना रही थी तो कइयों को अवसर दे रही थी। चार्ली चैप्लिन की व्यवस्था और मशीन पर तंज करती कॉमेडी ' मॉडर्न टाइम ' इस अंधियारे समय की वजह से ही संभव हुई। वाल्ट डिज्नी की सफलता की शुरुआत भी लगभग इस समय हुई। उनकी कार्टून फिल्म ' द थ्री लिटिल पिग ' और ' विज़ार्ड ऑफ़ ओज़ ' ने अमरीकियों को जो छूट गया उसे भुला कर नई शुरुआत करने करने के लिए प्रेरित किया। ' विज़ार्ड ऑफ़ ओज़ ' का गीत ' हु इज अफ्रेड ऑफ़ द बिग बेड वुल्फ ' लोकप्रिय होकर देशभर में डूबते आत्मविश्वास को संजोये रखने में सहायता कर रहा था।
आर्थिक विपन्नता से जूझ रहा जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा सिनेमा के परदे पर चुनचुनाती रौशनी में जीवन के मायने तलाश रहा था। सिनेमा न सिर्फ पलायन की वजह बना वरन नई राहे तलाशने में भी मदद कर रहा था। फिल्मों में उन चीजों पर ज्यादा फोकस किया जा रहा था जो लोगों से छूट गई थी या जिसे पाने की कल्पना वे कर रहे थे। ग्रेट डिप्रेशन के दर्शक इस तरह फिल्मों से खुद को जोड़कर देख रहे थे।
इस मंदी से निकलने में अमरीका को पच्चीस बरस लगे। ध्वस्त शेयर बाजार और बैंक दूसरे विश्व युद्ध के बाद ही संभल पाये। पहले विश्व युद्ध से आरंभ हुआ हॉलीवुड का गोल्डन एरा साठ के दशक तक चला। इस कालावधि में हॉलीवुड मे अनगिनत ' क्लासिक ' रचे गए , दर्जनों अभिनेताओं को अपनी प्रतिभा से ' लीजेंड ' बनने का अवसर मिला । मानवीय गलतियों से आई आर्थिक विपन्नता ने भले ही एक पीढ़ी का जीवन नारकीय बना दिया हो परंतु उसी अवधि में कालातीत साहित्य और सिनेमा भी रचा गया । बीसवीं सदी के कई विरोधाभासो में ' ग्रेट डिप्रेशन और सिनेमा ' शीर्ष पर रहेगा।
अगले पंद्रह साल चलने वाली त्रासदी की यह शुरुआत थी जो पच्चीस प्रतिशत अमरीकियों को बेरोजगार बनाने वाली थी। रातों रात सड़क पर आये संपन्न वर्ग को अपमान के साथ जीवित रहना सीखना था। लेकिन इस काले असहनीय अध्याय का एक उजला पक्ष भी सामने आने वाला था। एक बड़ी आबादी के लिए वर्तमान की कठोर वास्तविकता से क्षणिक छुटकारा पाने के लिए सिनेमा एकमात्र विकल्प बचा था। संयोग से यह घटना हॉलीवुड के ' गोल्डन ऐज ' से गुजरने के दौरान हुई थी जिसकी शुरुआत 1915 मे हो चुकी थी।
' ग्रेट डिप्रेशन ' के दौरान अगर किसी को फायदा हुआ तो सिर्फ फिल्मों और उससे जुड़े लोगों को। बेकारी से जूझते लोगों के पास थिएटर का रुख करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। टिकिट दरे न्यूनतम हुआ करती थी। परंतु यह भी आम आदमी को भारी पड़ती थी। सिर्फ एक ' निकल ' ( एक डॉलर का बीसवाँ भाग ) में अगर दर्शक अपने वर्तमान से दूर तीन घंटे हँसते मुस्कुराते गुजार सके इससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता था। ऐतिहासिक तथ्य बताते है कि इन वर्षों में औसतन 6 करोड़ अमरीकी हर हफ्ते सिनेमा देखने जाया करते थे जबकि उस समय अमेरिका की जनसँख्या 9 करोड़ हुआ करती थी। मंदी के पहले पांच वर्षों में अर्थव्यवस्था पचास प्रतिशत सिकुड़ चुकी थी फलस्वरूप 690 बैंक बंद हो गए और हजारों कंपनिया दिवालिया हो गई।
लेकिन हॉलीवुड इस विपरीत परिस्तिथि में भी फलता फूलता रहा। यधपि मंदी का असर बड़े स्टूडियो पर भी हुआ और उनका मुनाफा चौथाई रह गया। बड़े नामों में ट्वेंटीथ सेंचुरी फॉक्स, एमजीएम , वार्नर ब्रदर , पैरामाउंट , वाल्ट डिज्नी जैसे स्टूडियो ही इस मंदी में टिके रहे अन्यथा बंद होने वाले स्टूडियो की संख्या इससे कही अधिक थी। चलचित्रो के संचालकों ने अपने यहाँ भीड़ बनाये रखने के लिए नए तरीके ईजाद कर लिए थे। एक बड़ी फिल्म के साथ एक शार्ट फिल्म बोनस के रूप में दिखाई जाती थी , एक टिकिट को दो बार उपयोग किया जा सकता था , या फिल्म को ऐसी जगह रोक दिया जाता था जहाँ से दर्शक की उत्सुकता उफान पर आ चुकी हो , शेष हिस्सा देखने के लिए उसे अगले हफ्ते आना जरुरी हो जाता था। इस तरह के प्रयोग ' बी- ग्रेड ' फिल्मों या अनजान अभिनेताओं अभिनेत्रियों की फिल्मों के साथ अक्सर किये जाते थे।
इस समय तक फिल्मों की श्रेणियाँ अस्तित्व में नहीं आई थी। लेकिन इस बारे में विचार बनना आरंभ हो गए थे अधिकांश फिल्मे कॉमेडी , गैंगस्टर , डाकू मारधाड़ , म्यूजिकल , हॉरर , थ्रिलर जैसे विषयों पर आधारित थी। इसी दौर में अधिकांश फिल्म निर्माता ' साइलेंट फिल्मों ' से सवाक फिल्मों की और रुख करते नजर आ रहे थे। यहाँ भी विडंबना हो रही थी। साइलेंट फिल्मों में सितारा हैसियत पा चुके अभिनेता ' बोलती ' फिल्मों में खुद को एडजस्ट नहीं कर पा रहे थे। बदलती टेक्नोलॉजी कई लोगों को अकारण बेरोजगार बना रही थी तो कइयों को अवसर दे रही थी। चार्ली चैप्लिन की व्यवस्था और मशीन पर तंज करती कॉमेडी ' मॉडर्न टाइम ' इस अंधियारे समय की वजह से ही संभव हुई। वाल्ट डिज्नी की सफलता की शुरुआत भी लगभग इस समय हुई। उनकी कार्टून फिल्म ' द थ्री लिटिल पिग ' और ' विज़ार्ड ऑफ़ ओज़ ' ने अमरीकियों को जो छूट गया उसे भुला कर नई शुरुआत करने करने के लिए प्रेरित किया। ' विज़ार्ड ऑफ़ ओज़ ' का गीत ' हु इज अफ्रेड ऑफ़ द बिग बेड वुल्फ ' लोकप्रिय होकर देशभर में डूबते आत्मविश्वास को संजोये रखने में सहायता कर रहा था।
आर्थिक विपन्नता से जूझ रहा जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा सिनेमा के परदे पर चुनचुनाती रौशनी में जीवन के मायने तलाश रहा था। सिनेमा न सिर्फ पलायन की वजह बना वरन नई राहे तलाशने में भी मदद कर रहा था। फिल्मों में उन चीजों पर ज्यादा फोकस किया जा रहा था जो लोगों से छूट गई थी या जिसे पाने की कल्पना वे कर रहे थे। ग्रेट डिप्रेशन के दर्शक इस तरह फिल्मों से खुद को जोड़कर देख रहे थे।
इस मंदी से निकलने में अमरीका को पच्चीस बरस लगे। ध्वस्त शेयर बाजार और बैंक दूसरे विश्व युद्ध के बाद ही संभल पाये। पहले विश्व युद्ध से आरंभ हुआ हॉलीवुड का गोल्डन एरा साठ के दशक तक चला। इस कालावधि में हॉलीवुड मे अनगिनत ' क्लासिक ' रचे गए , दर्जनों अभिनेताओं को अपनी प्रतिभा से ' लीजेंड ' बनने का अवसर मिला । मानवीय गलतियों से आई आर्थिक विपन्नता ने भले ही एक पीढ़ी का जीवन नारकीय बना दिया हो परंतु उसी अवधि में कालातीत साहित्य और सिनेमा भी रचा गया । बीसवीं सदी के कई विरोधाभासो में ' ग्रेट डिप्रेशन और सिनेमा ' शीर्ष पर रहेगा।
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