समय से पहले होने वाली किसी की भी मृत्यु प्रायः हमें स्तब्ध कर जाती है। इस देश में क्रिकेट और फिल्मों के लिए जुनूनी हद तक जूनून है। ये दोनों ही क्षेत्र ऐसे है जिनके नायको की हर गतिविधि पर अवाम की निगाहें उत्सुकता से जमी रहती है। यहाँ होने वाली सामान्य गतिविधि का भी कैमरे की नजर से गुजरना रस्म माना जाता है। सुपर सितारा श्रीदेवी का आकस्मिक अवसान सामान्य घटना नहीं थी। ऐसे में टीवी मीडिया का इस घटना पर टूट पड़ना स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। परन्तु मीडिया ने खबर को इस तरह से ट्रीट किया मानो यह ब्रम्हांड की इकलोती घटना हो। बाथटब में बैठा एंकर या स्टूडियों में बाथरूम के दृश्य कल्पना से परे थे। श्रीदेवी के अपने सौतेले पुत्र से कैसे सम्बन्ध थे या उनका पुनर्जन्म हो चूका है जैसी खबरे हैडलाइन में आ रही थी।
आम लोगों की आलोचना में आये समाचार प्रसारण का यह पहला वाकया नहीं था। समाचार के नाम पर ' भुत प्रेत ' रावण की लंका ' दो हजार के नोट में लगी माइक्रो चिप ' जैसे एक्सक्लूसिव पर दिन भर ख़बरों का स्क्रॉल चलाने वाला मीडिया आखिर हमें कहाँ ले जाना चाहता है ? जिन लोगों की स्मृति में अमेरिकी इतिहास के सबसे बड़े आतंकी हमले ' ट्विन टावर ' के ध्वस्त होने की यादे बरकरार है उन्हें उस वक्त के अमेरिकी टीवी प्रसारण की क्वालिटी और कंटेंट भी याद होंगे। 9 /11 के नाम से चर्चित इस हादसे ने लगभग तीन हजार जीवन लील लिए थे। उस समय अमेरिकी टीवी चैनलों ने लगातार 48 घंटे तक बगैर एक भी कमर्शियल ब्रेक लिए प्रसारण किया था। किसी भी मृतक का फोटो उसकी राष्ट्रीयता , जाति पर कोई बहस नहीं हुई। किसी भी न्यूज़ रीडर या एंकर ने इस्लाम या मुसलमानों के खिलाफ नफरत का एक शब्द नहीं कहा जबकि घटना के कुछ घंटों बाद ही लादेन का नाम सामने आगया था। यह भी तब जबकि अमेरिकी सरकार ने उन्हें किसी प्रकार का निर्देश नहीं दिया था। अपने देश और समाज के लिए अमेरिकी टीवी मीडिया की इस जिम्मेदारी की सराहना आज भी की जाती है। विकट विपरीत परिस्तिथि में मीडिया का शालीन व्यवहार मिसाल बनता है। अफ़सोस भारतीय मीडिया इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा।
एक दो अपवादों को छोड़ कर फटाफट न्यूज़ और सास बहु के किस्सों और धारावाहिकों की अनर्गल गॉसिप से पटा टीवी शायद ही कभी अपने क्वालिटी कंटेंट पर फोकस करता नजर आया है। अधकचरे ज्ञान से लबरेज रंगी पुती मशीनी एंकर समाचार के नाम पर सनसनी ज्यादा परोसती है। रेडियो के दौर में देवकीनंदन पांडे और बीबीसी के मार्क टूली को सुन चूका दर्शक कैसे इस तरह के अत्याचार को सहन कर रहा है, कल्पना ही की जा सकती है। समाचारों की हैडलाइन के भी प्रायोजक ढूंढ लेने वाले चैनल क्यों नहीं अपने कुछ संवाददाताओं को भारत भ्रमण पर भेज देते ? उन्हें वे खबरे मिलेगी जो इस अविश्वश्नीय भारत के कोने कुचाले में रोज घटती है। जिन्हे कोई माध्यम नहीं मिल पाता। टीवी को वे वास्तविक लोग मिलेगें जो महानगर की आभासी जिंदगी से उलट जीवन की हकीकतों का रोजाना सामना कर रहे है। नैतिकता और सदाचारिता की वे नजीर मिलेगी जो किसी किताब तक अब तक नहीं पहुंची है।
श्री देवी का यु अचानक चले जाना दुखद है। हम उनके बारे में जानना चाहते है। हम उनके फोटो देखना चाहते है , उस तरह नहीं जिस तरह दिखाए गए। हम खबर देखना चाहते है परन्तु उस दिन की यह अकेली खबर नहीं होगी जो दिन रात हमारा पीछा करे। हम चाहेंगे की हमारे न्यूज़ चैनल भी बीबीसी और सीएनएन की तरह गंभीर और व्यापक हो , जो हमें दृश्य के साथ विचार भी दे सके। वाशिंगटन पोस्ट जब हमारे मीडिया के बारे में लिखता है कि ' भारत में एक नायिका के साथ मीडिया की भी मौत हो गई ' या कोई मित्र जब फेसबुक पर स्टेटस डालता है कि ' देश में गिद्ध लुप्त नहीं हुए वे मीडिया में बदल गए है ' तो यकीन मानिये बहुत शर्म आती है यह सुन देख कर।
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