Sunday, March 4, 2018

हैंगओवर ..

रचनात्मक लोग प्रायः समय से आगे रहते है। आमतौर पर अपने संघर्ष के दिनों में वे कितनी ही विपरीत परिस्तिथियों से गुजरने के बावजूद अपना श्रेष्ठ दे जाते है। सिफर से शिखर  पर पहुंचे चित्रकार , संगीतकार , लेखक , एक्टर और फिल्मकारों की आत्मकथाओ में एक यही बात कॉमन रही है। ये लोग अपने टाइम झोन में रहते हुए कालजयी सृजन कर जाते है। अक्सर देखा गया है कि शिखर  पहुँच कर ये  खुद  को दोहराने का प्रयास करते है। दरअसल यह इशारा होता है कि उनका जोखिम उठाने का साहस अब चूक रहा है। जो मौजूद है उसे सहेजने में उनकी ऊर्जा जाया होने  लगती है। सफलता की कोई फोटो कॉपी मशीन नहीं होती -यह सच इन जैसे कई को देर से समझ आता है। 
 1998 में जावेद अख्तर के लिखे गीत को शंकर महादेवन ने  3 मिनिट तक बगैर सांस लिए एक ही बार में गाया था। ' ब्रेथलेस ' नाम का यह एल्बम उस दौर के सीमित मीडिया प्लेटफॉर्म के  बावजूद नेशनल लेवल पर संगीत प्रेमियों को रिझा गया था। इस गीत के बाद शंकर को कभी काम की कमी महसूस नहीं हुई। एहसान व लॉय के साथ मिलकर उन्होंने कई सफल फिल्मों का म्यूजिक कंपोज़ किया। अब दो दशक बाद कालचक्र घुमकर उन्हें वापस ' ब्रेथलेस ' पर ले आया है। अब वे ब्रेथलेस 2 बनाना चाहते है। समझने वाली बात है, अब उनके पास देने को नया कुछ नहीं है। वे चूक रहे है। शंकर भूल रहे है कि जिस पीढ़ी ने ब्रेथलेस को नंबर वन बनाया था उनकी उम्र में  बीस साल और जुड़ चुके है , अब उनकी पसंद बदल गई  है। संगीत भी बदल गया है और गायकी भी। 
गुजरे समय के सुनहरे लम्हों को पलटकर देखना सामान्य बात है। परन्तु हूबहू  वैसा ही वर्तमान में  घट जाने की कल्पना करना सपनों की दुनिया में वास करने जैसा है। इस सिंड्रोम से समाज के हर वर्ग के  लोग पीड़ित रहे है। चूँकि फिल्म से जुड़े लोग सीधे तौर पर मीडिया के फोकस में रहते तो उन पर इस सिंड्रोम का प्रभाव आसानी से  नजर आता है।
सदाबहार देवानंद हॉलीवुड एक्टर ग्रेगरी पैक और गेरी कूपर से प्रभावित थे। उनकी शुरूआती सफल फिल्मों में इस प्रभाव को आसानी से महसूस किया जा सकता है। देव साहब की आखरी हिट फिल्म ' देस परदेस ' (1978 ) थी। अपनी मृत्यु तक देवानंद फिल्मे बनाते रहे और खुद ही को युवा नायिकाओ के साथ  नायक के रूप में प्रस्तुत करते रहे। उन्होंने अपने आपको इतनी बार दोहराया कि दर्शक उनकी फिल्मों के नाम से ही चिढ़ने लगे। शम्मी कपूर जेम्स डीन से प्रभावित थे।  जब तक मोटापे ने उन्हें नहीं घेरा तब तक वे जेम्स की तरह अपने आपको ऊर्जावान और चुलबुला प्रस्तुत करते रहे। हल्की सी गर्दन झुकाकर आँख मिचमिचाते हुए संवाद अदायगी ने राजेश खन्ना को दर्शकों का चहेता बना दिया। वे देश के पहले सुपर स्टार के खिताब से नवाजे गये। राजेश खन्ना का जादू महज तीन साल चला परन्तु वे अपनी इमेज को बदल नहीं पाए और कोने में धकेल दिये  गये। काका को नजदीक से जानने वाले बताते है कि वे कभी स्वीकार ही नहीं कर पाए की वक्त बदल गया है। अमिताभ बच्चन काफी संघर्ष के बाद शिखर पर पहुंचे थे। एंग्री यंग मेन का लेवल उन पर ऐसा चिपका कि अपनी पहली पारी के उतार पर वे लगभग बेरोजगार हो गए। उन्हें जल्दी ही समझ आगया कि ' गुस्सैल युवा ' का समय समाप्त हो चुका है। कौन बनेगा करोड़पति ' ने उन्हें कर्ज से भी उबारा और एंग्री यंग मेन इमेज से भी। 
भारत की पहली सुपर स्टार देविका रानी ताउम्र खुद को युवा समझती रही। उनका करियर मात्र दस बरस  रहा परन्तु छयासी वर्ष की उम्र में भी श्रंगार से उनका मोह भंग नहीं हुआ था। अब इसी पड़ाव पर दिलीप कुमार , राजकपूर की नायिका रही वैजयंती माला को खड़ा  देख सकते है। 
तथाकथित इमेज के फेर में उम्र को धोखा देने का प्रयास मजाक का विषय बन जाया करता है। गुजरे समय के बारे में बात करना और गुजरे समय को दोहराने की कोशिश करना दो अलग बाते है। अतीत को थामे रखना यही सन्देश देता है कि आपके पास वक्त के साथ बदलने की सामर्थ्य  नहीं बची है या आपकी रचनात्मकता ख़त्म हो गई है। 
दिवार पर लिखी इस  इबारत को जिसने भी नजरअंदाज किया है उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ी है।

1 comment:

  1. सही कहा। मगर अपनी तय छवि से लोग बाहर आना ही नहीं चाहते। वक़्त बदल जाता है पर इन्हें पता भी नहीं चलता।

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