सत्तरवें कांन्स फिल्म फेस्टिवल की शुरुआत एक सुखद संयोग के साथ हुई। फ्रांस की जनता ने अपना सबसे युवा राष्ट्रपति चुना है - एम्मानुएल मैक्रॉन। 39 वर्षीय मैक्रॉन फ्रांस के ऐतिहासिक नेता नेपोलियन बोनापार्ट से भी छोटे है। फिल्मों के कथानक की तरह ही मैक्रॉन की निजी जिंदगी भी दिलचस्प है। महज पंद्रह बरस की उम्र में उन्हें अपने स्कूल की चालीस वर्षीया टीचर से प्रेम हुआ। परिवार की समझाइश के बावजूद उन्होंने अपना रिश्ता बरकरार रखा और विवाह भी रचाया । आज चोंसठ बरस की ब्रिजेट ट्रागनेक्स फ्रांस की फर्स्ट लेडी के सम्मान से नवाजी गई है। यहाँ पश्चिमी जगत के मीडिया सराहना की जाना चाहिए। चुनाव प्रचार के दौरान कहीं भी इस ' बेमेल ' जोड़े की निजी जिंदगी पर छींटा कशी नहीं की गई।यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सम्मान का श्रेष्ठ उदाहरण है।
बॉलीवुड हर वर्ष थोक में फिल्मे बनाता है परन्तु दो चार को छोड़ अधिकाँश घरेलु दर्शकों तक ही सिमटी रहती है। वजह स्पस्ट है , ये फिल्मे सिर्फ व्यावसायिक उद्देश्यों की ही पूर्ति करने के लिए बनाई जाती है । कला से इनका दूर का भी नाता नहीं होता। विगत दस बारह वर्षों में कुछ भारतीय फिल्मों ने अवश्य अपनी मौलिकता की वजह से कांन्स में जगह बनाई। ' लंचबॉक्स ' ' तितली ' ' मार्गेरिटा विथ स्ट्रॉ ' ' मुंबई चा राजा ' ' जल ' 'आई एम् कलाम ' 'मसान ' ऐसी फिल्मे है जिन्होंने डट कर सराहना बटोरी परन्तु प्रतियोगी खंड तक नहीं पहुँच सकी। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे कुछ प्रयोगधर्मी फिल्मकार बेहतर फिल्मे बना रहे है और उनकी वजह से भारत एक दिन कांन्स में अपनी जगह अवश्य बनाएगा न कि सोनम कपूर , दीपिका ऐश्वर्या राय के डिज़ाइनर गाउन की वजह से।
कांन्स फिल्म फेस्टिवल श्रेष्ठ कला फिल्मों का सामूहिक उत्सव है। इसे लेकर उतना ही उत्साह नजर आता है जितना ' ऑस्कर ' समारोह का पलक पांवड़े बिछा कर इंतजार किया जाता है। पिछले कई वर्षों से इस उत्सव में भारतीय फिल्मे भी शामिल होती रही है। यह बात दीगर है कि भारतीय मीडिया ने हमेशा हिंदी फिल्मों को ज्यादा तव्वजो दी और अच्छी रीजनल फिल्मो को नजरअंदाज कर दिया। कांन्स में दस्तक देने वाली भारतीय फिल्मों के साथ हमेशा से एक विडंबना रही है। इस महोत्सव में वे ही फिल्मे शामिल हुई जिन्हे भारत में पर्याप्त दर्शक नहीं मिले यद्धपि उनका कला पक्ष मजबूत था।
बॉलीवुड हर वर्ष थोक में फिल्मे बनाता है परन्तु दो चार को छोड़ अधिकाँश घरेलु दर्शकों तक ही सिमटी रहती है। वजह स्पस्ट है , ये फिल्मे सिर्फ व्यावसायिक उद्देश्यों की ही पूर्ति करने के लिए बनाई जाती है । कला से इनका दूर का भी नाता नहीं होता। विगत दस बारह वर्षों में कुछ भारतीय फिल्मों ने अवश्य अपनी मौलिकता की वजह से कांन्स में जगह बनाई। ' लंचबॉक्स ' ' तितली ' ' मार्गेरिटा विथ स्ट्रॉ ' ' मुंबई चा राजा ' ' जल ' 'आई एम् कलाम ' 'मसान ' ऐसी फिल्मे है जिन्होंने डट कर सराहना बटोरी परन्तु प्रतियोगी खंड तक नहीं पहुँच सकी। इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे कुछ प्रयोगधर्मी फिल्मकार बेहतर फिल्मे बना रहे है और उनकी वजह से भारत एक दिन कांन्स में अपनी जगह अवश्य बनाएगा न कि सोनम कपूर , दीपिका ऐश्वर्या राय के डिज़ाइनर गाउन की वजह से।
इस वर्ष कांन्स में हमें न कुछ खोना है न कुछ पाना क्योंकि हमारी एक भी फिल्म इस महोत्सव में शामिल नहीं हुई है। यद्धपि हमारे मीडिया ने ऐश्वर्या और दीपिका के ' रेड कारपेट वाक ' का ऐसा हाइप खड़ा किया है मानो 'स्वर्ण कमल ' भारत को ही मिलने वाला हो।
अच्छी रिपाेर्ट है। हमारी एक मासिक पत्रिका प्रकाशित हाेती है । जिसका नाम है मैं अपराजिता। उसके कुछ लेख हम अपने ब्लाग में भी प्रकाशित करते हैं। अगर आपकाे पत्रिका पसंद आए ताे आप उसे सब्सक्राइब कर सकते हैं। मेरा ईमेल पता है-
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आदरणीय अनुजा जी
Deleteसम्मान के लिए धन्यवाद्। में अवश्य सब्सक्राइब करूंगा।
स्नेह बनाये रखे।