Tuesday, January 31, 2017

सायोनारा !!

उगते सूरज के देश जापान में पिछले दिनों विचित्र घटना हुई। जापान के सम्राट अकिहितो ने पद त्यागने की इच्छा जाहिर की। सिसमिक झोन पर बसे जापान के निवासियों के लिए यह खबर बड़े भूकंप से कम नहीं थी।टेक्नोलॉजी का शिखर छू रहे देश के लोगों का इस तरह भावुक हो  जाना  अजीब लगता है। परंतु यही इस देश की विशेषता भी है। गौतम बुद्ध भारत में जन्मे परंतु जापान ने उन्हें आत्मसात किया। तरक्की की इन्तेहा ,अध्यात्म की गहराई और परम्पराओ का निर्वहन -आधुनिक जापान की जीवन शैली है।
जन मान्यता के अनुसार सम्राट अकिहितो के पूर्वज सूरज देवी के वंशज माने जाते है।(भारत में सूरज को देवता मानकर पूजा जाता है जापानी उन्हें स्त्री रूप मे पूजते है ) जापानी सम्राट को कोई संवैधानिक पद प्राप्त नहीं है परंतु बावजूद इसके वे देश के सर्वोच्च नागरिक माने जाते है। जो दर्जा भारत में  राष्ट्रपति को है वही स्थान सम्राट अकिहितो का है।
सम्राट के पद त्याग से जनता का यूँ व्याकुल हो जाना समझ में आता है। उनकी लोकप्रियता के कई कारणों में सबसे प्रमुख है किसी भी दुर्घटना के बाद उनका आम जनता के बीच पहुंचना। अपनी इसी खूबी की वजह से वे आज तक आमजन में अपनी जगह बनाये हुए है। तेरासी साल की उम्र में अकिहितो स्वास्थ कारणों से रिटायर होना चाहते है परंतु दो तिहाई  देश उन्हें बने रहने की मनुहार कर रहा है।
हम भारतीयों  को यह बात कभी समझ नहीं आएगी। हमने बहुत कम लोगों को पद त्याग करते देखा है। हमारे यहां कोई रिटायर नहीं होना चाहता। वानप्रस्थ की कल्पना हमारे यहाँ केवल आख्यानों में है। बुजुर्ग नेता अपमानित होने की अवस्था तक पद त्याग नहीं करना चाहते। कहने को हम लोकतंत्र का ऊंचा झंडा उठाये हुए है परंतु अनुसरण राजशाही का करते है। वयोवृद्ध राजनेता इस बात को जानते हुए भी कि उसके वारिस में काबलियत नहीं है , अपनी गद्दी पर बैठा देखना चाहते  है। इस परंपरा को चलाये रखने में अब तक गांधी परिवार बदनाम था परन्तु पिछले कुछ वर्षों में पचास से ज्यादा राजनीतिक परिवारों के नाम सामने आने लगे है। ठाकरे परिवार से लेकर यादव परिवार तक आप अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाने के लिए स्वतंत्र है।
जापानी सम्राट जैसे पद त्याग के उदाहरण हमारे लिए किस्से कहानियों से ज्यादा मायने नहीं रखते। हमारी मौजूदा राजनीतिक परिस्तिथिया भी  हमें इस तरह के कड़वे निर्णय लेने की इजाजत नहीं देती।
माफ़ करना सम्राट हम इस प्रसंग को भूल जाना चाहेंगे !!

Thursday, January 26, 2017

गॉड ब्लेस अमेरिका ! God Bless America ....

जिस समय जल्लिकट्टु तमिलनाडु में उफान ला रहा था और हमारे पसंदीदा सितारे कमल हासन और ए आर रहमान इस क्रूर और अमानवीय परंपरा को जारी रखने की मांग पर मुँह फुलाये बैठे थे ठीक उसी समय डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के 45 वे राष्ट्रपति  के रूप में शपथ ले रहे थे। आमतौर पर नए नवेले राष्ट्रपति को लेकर अमेरिका के साथ पूरी दुनिया में उत्सुकता व् उल्लास का वातावरण बनता रहा है। उनके प्रारंभिक सौ दिनों को ' हनीमून ' पीरियड कहा जाता है। ये चुनाव इतने चकाचोंध और लुभावने  होते है कि पूरी दुनिया  का मीडिया अपनी घरेलु समस्याओ से पल्ला झाड़ कर वाशिंगटन की और टकटकी लगाये  रहता है। इस बार भी मीडिया की मौजूदगी तो पहले से ज्यादा थी परंतु माहौल में अनिश्चितता और रस्म अदायगी की झलक ज्यादा थी।
इस प्रतिकूल हालात के जिम्मेवार स्वयं डोनाल्ड थे।
अपने नामांकन से लेकर वाइट हाउस में दाखिल होने तक ट्रम्प को अपने देश के  साथ पूरी दुनिया से जोरदार विरोध झेलना पड़ रहा है। वजह- उनके बयान जिन्होंने सारा वातावरण खराब किया। बात यही ख़त्म नहीं होती , उनकी अपरिपक्व कार्य शैली भी उनके खिलाफ बन रहे विरोध का कारण बनती जा रही है। विशिष्ट सलाहकार  के रूप में दामाद का चयन , मेक्सिको और यूरोप में डर पैदा कर देना , यू एन ओ और नाटो से रिश्ते ख़त्म कर देने की धौंस , ताइवान को तवज्जो देकर चीन को चिड़ा देना , मीडिया और महिलाओ के खिलाफ हल्के शब्दो का प्रयोग , एशियाई मूल के लोगों से काम छीन कर अमेरिकियों को देने का वादा जैसी कई बाते है जो उनकी डरावनी इमेज को गहरा रही है।
अमेरिकी राजनीति पर तीखे लेख प्रकाशित करने वाली वेब पत्रिका ' द इंटरसेप्ट ' ने उनके शपथ समारोह की तुलना बराक ओबामा के सत्तारोहण से करते हुए दिलचस्प आंकड़े जुटाए है। ओबामा की शपथ में मात्र दो अरबपति शामिल हुए थे जबकि ट्रम्प के साथ अरबपति मित्रों की भीड़ थी। इंटरसेप्ट लिखता है कि ट्रम्प ' बर्बर पूंजीवाद ' की पैदाइश है उनसे  'आम अमेरिकियों ' के राष्ट्रपति बनने की उम्मीद करना बेमानी है। ट्रम्प जिस आलिशान  'ट्रम्प टावर ' में निवास करते थे उसके सामने वाइट हाउस की हैसियत सरकारी गेस्ट हाउस से  ज्यादा की नहीं है।
इस समय दुनिया के सामने एक नोसिखिये राष्ट्रपति को सहन करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है। वे रोज एक फैसले को पलटेंगे रोज एक नया दुश्मन बनायेगे। ट्रम्प को समझने के लिए फिल्म '' चौहदवीं का चाँद '' का गीत ' बदले बदले से मेरे सरकार नजर आते है , घर की बरबादी के आसार नजर आते है - सुनना जरुरी है। 

Thursday, January 19, 2017

मेरी मर्जी !! My wish

सरकार ' आत्म मुग्ध ' महिला की तरह होती है। किसी भी काल की सरकार को आप इस कसौटी पर परख सकते है ।कोई भी  आत्म मुग्ध महिला कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेगी कि वह सामान्य शक्ल सूरत की है और दुनिया में  प्रभावशाली व्यक्तित्व के लोग बहुतायत में है। वह हमेशा अपनी खूबियों  का ही बखान करेगी और इस बात पर जोर देगी कि उस जैसा दूजा नहीं है। 
सरकारे अपने आंकड़ों पर मोहित रहती है। उसे अपने फिगर पर इतना नाज रहता है कि उसके खिलाफ बोलने वाला ' गुस्ताख़ ' माना जाता है। पूरी सरकारी मशीनरी इस बात को ही सिद्ध करने में समय गुजार देती है कि उनके द्वारा दिए गए आकलन सोलह आने सच है।'  नोट बंदी पर इतने प्रतिशत जनता हमारे साथ है ' , इतने प्रतिशत लोगों ने कैशलेस अपना लिया , नवंबर के बाद प्रत्यक्ष करों में इतने फीसदी का उछाल आया , आदि इत्यादि। निसंदेह सरकारी आंकड़े देश की सुनहरी तस्वीर बयां करते है तभी तो वित् मंत्री से लेकर पार्षद तक का आग्रह रहता कि इन आंकड़ों को ' जस के तस ' स्वीकार लिया जाए !  
आंख मूंद लेने से हकीकत नहीं बदल जाया करती। सरकारी  ' सच ' के खिलाफ कुछ आर्थिक अखबारों की राय एक अलग कहानी कहती है। गुजिश्ता हफ़्तों में ' फाइनेंसियल एक्सप्रेस ' ने बताया कि नोट बंदी की सर्जिकल स्ट्राइक ने लघु और मध्यम उधोग के 35 प्रतिशत कामगारों को घर बैठा दिया है।  'बिजनेस स्टैण्डर्ड ' कहता है कि ऑटोमोबाइल सेक्टर 20 प्रतिशत डाउन हो गया है , यह गिरावट 16 बरस में पहली बार हुई है। देश का सबसे बड़ा आर्थिक अखबार ' इकनोमिक टाइम्स ' डराता है कि महज नवंबर माह में ही फॉरेन इन्वेस्टर 17 अरब डॉलर पूंजी बाजार से निकाल ले गए ,इतना ही नहीं एन आर आई ( NRI ) ने भी साबित कर दिया कि धन्धे में कोई सगा नहीं होता।  ये परदेसी पंछी तकरीबन 5 अरब डॉलर स्टॉक मार्केट से निकाल ले गए। अकेले नवंबर माह में जितना पैसा देश के बाहर गया है उतना 2008 के लेहमन ब्रदर के पतन के बाद आयी मंदी में भी नहीं गया था। 
सरकार कभी इस बात को  नहीं मानेगी। 
सरकार यह भी  कभी स्वीकार नहीं करेगी कि मोदी की दर्जनों विदेश यात्राओ के बावजूद विदेशी निवेश क्योंकर इतना कम आया ? 
आत्म मुग्ध सरकारे और आत्म मुग्ध महिला यह नहीं जानती कि यह ' मुग्धता ' मानसिक बीमारी है। और यह बीमारी मरीज की इच्छा शक्ति से ही दूर हो सकती है।

Saturday, January 14, 2017

रामबाण दवा : कैशलेस ? A cure to every problem !!

'अब कोई टेक्स चोरी नही होगी क्योंकि हम केशलेस इकॉनमी होने जा रहे है!! अब सारे ट्रांजेक्शन डिजिटल होंगे तो सरकार को अपने आप टैक्स मिल जाएगा !!टैक्स चोर अपनी इनकम नहीं छुपा पाएंगे !!सरकार का खजाना राजस्व से लबालब हो जाएगा !!
 ये और इस तरह के सैकड़ों खुशनुमा विचार इन दिनों अखबार , टेलीविज़न और इन्टरनेट पर बहुतायत में तैर रहे है। सजग नागरिकों से मेरा आग्रह है कि वे अपने कुओं से बाहर निकले और  सुचना के अधिकार का भरपूर प्रयोग करे। इस समय देश के चुनिंदा समाचार  टेलेविज़न चेनलों को छोड़ कर अधिकाँश चेनल सरकार के शरणागत हो गए है। यही हाल कुछ राष्ट्रीय समाचार पत्रोँ का भी हुआ है।  यहां सिर्फ इन्टरनेट ही एक मात्र ऐसा माध्यम बचा है जहां सच तलाशा जा सकता है। शुरुआत हमें अमेरिका से ही करना होगी क्योंकि इस देश ने जीवन के हरेक क्षेत्र में इतने बड़े स्टैण्डर्ड खड़े कर दिए है कि बगैर उनसे तुलना किये आप अपनी वास्तविकता नहीं जान सकते।
केशलेस इकॉनमी में टेक्स चोरी नहीं होती ? हमारे इनकम टेक्स डिपार्टमेंट की तरह अमेरिका में  ' इंटरनल रेवेन्यू सर्विस ' नाम की संस्था व्यक्तिगत इनकम पर  टैक्स वसूली का काम करती है।  यह संस्था हर वर्ष टोटल टेक्स कलेक्शन और टैक्स चोरी के आंकड़े अप्रैल माह में जारी करती है। हाल ही में  इस संस्था ने 2008 से 2010 के आंकड़ों की रिपोर्ट प्रस्तुत की है ( यह रिपोर्ट इन्टरनेट पर मौजूद है irsreport के नाम से सर्च की जा सकती है ) रिपोर्ट में टैक्स चोरी के अविश्वसनीय आंकड़े दिए गए है। चूँकि रिपोर्ट अमेरिकी सरकार की स्वीकृति से जारी होती है तो आंकड़ों पर विश्वास करना लाजमी हो जाता है। रिपोर्ट के कुछ अंशों पर मुलाहिजा फरमाइये !
अमेरिका में सालाना 458 अरब डॉलर की टैक्स चोरी होती है ( भारतीय मुद्रा में 30 लाख करोड़ ) जबकि जनसंख्या का  55 प्रतिशत हिस्सा  टैक्स अदा करता है। ये हाल तब है जब 85 प्रतिशत अमेरिकी इन्टरनेट का उपयोग करते है। 20 प्रतिशत अमेरिकी देश की कुल आय का 53 प्रतिशत कमाते है और उस पर कुल राजस्व का 67 प्रतिशत टैक्स चुकाते है।  मतलब ज्यादा कमाने वाला ज्यादा टैक्स भरता है।
यह रिपोर्ट हमारे नीति निर्माताओ को आईना दिखा सकती है ,बशर्ते वे हकीकत को स्वीकार ले। 125 करोड़ की आबादी में महज 3 करोड़  लोग टैक्स जमा करते है । 85 प्रतिशत लोग मोबाइल का उपयोग करते है परंतु मात्र 34 प्रतिशत इंटरनेट की पहुच में है।
केशलेस इकॉनमी इतनी आसान है ? अमेरिका को इस अवस्था में पहुँचने में 20 बरस लगे थे। अपने आप से सवाल कीजिये ! क्या हम वहां दो  बरस में पहुँच जायेगे ?


Sunday, January 8, 2017

चांदनी चौक टू चाइना Chandni Chowk To China



यह बात मुझे बहुत ही अफ़सोस के साथ कहना पड़ रही है कि आरएसएस और स्वदेशी जागरण मंच द्वारा राष्ट्रभक्ति की भावना से चलाया गया ' बॉयकॉट चाइना ' अभियान सफल नहीं रहा। दिवाली पूर्व इस तरह के आंकड़े ' व्हाट्सएप्प ' और  'फेसबुक ' पर इफरात से घोंषणा कर रहे थे कि इस अभियान से प्रेरित हो कर   देशवासियों के बहिष्कार  से चीनी सामान के आयात में सत्तर प्रतिशत की गिरावट आगई है और जल्दी ही चीनी प्रधानमंत्री घुटनों के बल बैठकर भारत से दया की भीख मांगने वाले है। जैसा की सभी जानते है , इन सोशल नेटवर्किंग साइट पर गंभीर चर्चाये कम ही होती है। खूबसूरती से लिखे गए इन संदेशों की हकीकत स्वयं भारत सरकार ने जाहिर करदी है। भारत में चीनी सामान  का आयात 7 % की दर से बढ़  रहा है। इस बात की पुष्टि कॉमर्स मिनिस्टर निर्मला सीतारमण के बयानों से भी होती जो उन्होंने नवम्बर में  संसद में दिया था। 2016 में भारत ने चीन से 81 अरब डॉलर का आयात किया है। 
बॉयकॉट चाइना अभियान के संचालकों का आग्रह  था कि चीनी सामान का बहिष्कार करके देश की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा को देश के  विकास में लगाया जा सकता है। लेकिन विदेश व्यापार के जानकारों का कहना है कि आप इस तरह किसी भी देश की वस्तुओ को इस तरह  बहिष्कृत नहीं कर सकते। चीन भी भारत की तरह वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाईजेशन ( WTO ) का प्रतिबद्ध मेंबर है। दो सदस्य देशों के बीच व्यापार रोकने के लिए अहम् सबूतों की जरुरत होती है। जिसे फिलहाल भारत जुटा नहीं सकता। 
दूसरी और अभी हम स्वयं अपने पैरो पर खड़े होने की स्थिति में नहीं है।  मिसाल के तौर पर हमारा टेलीकॉम सेक्टर अपनी जरुरत का 65 % और मेडिकल सेक्टर ( दवाइयां ) 100% चीन पर निर्भर है। गौर तलब है कि जो देश दुनिया की जरुरत  के आधे कंप्यूटर ,दो तिहाई मोबाइल हैंडसेट  और साठ प्रतिशत खिलोने बनाता हो उसे  सिर्फ नारेबाजी से दरकिनार नहीं किया जा सकता । 
मेड इन चाइना से लड़ने का सिर्फ एक मात्र शॉर्टकट हमारी आत्मनिर्भरता हो सकती है।  हम यहां चीन की ही पॉलिसियों की नक़ल कर अपने आधारभूत ढाँचे को मजबूत बना सकते है .  भारत से पांच गुना बड़ी अर्थव्यवस्था को महज उन्मादी राष्ट्रभक्ति और नारेबाजी से परास्त नहीं किया जा सकता। हमें बातों के अलावा काम भी करना होगा। 

Tuesday, January 3, 2017

किताबों का बरबाद बाजार

 हौले- हौले नोटबंदी के असर के परिणाम की व्यापकता सामने आने लगी है। रोजमर्रा और लक्ज़री चीजों की मांग में गिरावट की खबरे अब अखबार में आम हो चली है। इन पचास दिनों में टेक्सटाइल से लेकर ऑटोमोबाइल , रेस्टोरेंट से लेकर ढाबे और चाय की गुमटी तक ग्राहकी की बाट जोहते दुकानदारो की बॉडी लेंग्वेज ही बता देती है कि कुछ ठीक नही है। वैसे में प्रिंट मीडिया ( अखबार ) की सराहना करूँगा कि उसने आम जीवन को प्रभावित करने वाले ' अकारण ' आर्थिक संकट की जमकर खबर ली। बावजूद इस सबके एक महत्व पूर्ण क्षेत्र हैडलाइन नहीं बन पाया। वह है प्रकाशन उद्द्योग , या कहे किताबे। 
इंदौर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नं एक पर स्थित बुक शॉप  ए एच् व्हीलर के मालिक बता रहे थे कि आठ नवम्बर के बाद उनकी बिक्री चालीस फीसदी रह गई है।  यही हाल सस्ती आध्यात्मिक किताबे बेचने वाले गीता प्रेस की दूकान का भी हुआ है। यह हाल सिर्फ एक जगह का  नहीं वरन देश भर में  पिछले दो माह में  किताबों के बड़े आयोजनों में शिद्दत से महसूस किया गया है। google पर how demonetization affect book sale टाइप कीजिये , ऐसी दर्जनों खबरे कतार में नजर आएँगी जिन्हें  प्रमुख समाचारों में जगह नहीं मिली। भारत के उत्तर पूर्व में अगरतला में संपन्न बुक फेयर की बिक्री पिछले वर्ष की तुलना में महज 35 प्रतिशत रही। इस बुक फेयर में दिल्ली ही की तरह दुनिया भर के प्रकाशक अपने स्टाल लगाते है। यही परिणीति हैदराबाद बुक फेयर की हुई। रिपोर्ट बताती है कि इस मेले में आने वाले एक हजार लोगों में से मात्र दस लोग ही  किताबे खरीद कर घर ले गए। मंदी की इस  आंधी ने अगले माह कोलकता में होने वाले पुस्तक मेले के आयोजन पर भी  आशंका के बादल ला दिए है। 
मुद्रा की कमी ने न सिर्फ इन यदाकदा होने वाले उत्सवों पर पानी फेरा है बल्कि  दिल्ली के बरसो पुराने सेकंड हैण्ड बुक बाजार दरियागंज को भी ठंडा कर दिया है। मशहूर जे एन यू के बगल  लगने वाली सैंकड़ों अकादमिक पुस्तकों की दुकाने बंद होने की कगार पर आगई  है। 
रिज़र्व बैंक की पूर्व डिप्टी गवर्नर उषा थारोट ने ' इंडियन एक्सप्रेस 'में  संतुलित शब्दों का उपयोग करते हुए लिखा है कि सरकार को नोटबंदी का कदम पूरी तैयारी के साथ उठाना था। उनका मानना है कि सरकार के बार बार यू टर्न लेने से रिज़र्व बैंक जैसी शालीन और संजिदा संस्था पर चुटकुलों  बाढ़ आगई। 
भला कितने लोग होंगे जो चालीस बरस तक रिज़र्व बैंक के साथ रही  उषा थारोट के  दर्द से इत्तेफाक रखते है ?  

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...