Wednesday, September 19, 2018

' सिनेमाई फलक पर महिला फिल्मकार '

 मै बनुँगी फिल्म स्टार दुनिया करेगी मुझसे प्यार '- रेडियो सीलोन सुंनने वाले श्रोताओ को शमशाद बेगम का गाया ' अजीब लड़की ( 1952 ) का यह गीत भली भांति याद होगा। अक्सर बजने वाला यह गीत दुनिया में संख्या के लिहाज से सबसे अधिक फिल्मे बनाने वाले देश की महिलाओ की कैमरे के आगे और पीछे सक्रीय होने की आकांक्षाओं और संभावनाओं को सीधे शब्दों में प्रकट कर देता है। कैमरे के सामने आने वाली महिलाओ को तो अपने आप ' एक्सपोज़र ' मिल जाता है और उनके बेहतर प्रदर्शन से औसत दर्शकों में पहचान भी मिल जाती है। परन्तु कैमरे के पीछे जगह बनाने के लिए उन्हें उतना ही संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि इस जगह उनकी सीरत देखी जाती है सूरत नहीं। बावजूद कठिनाइयों और हमारे देश की विभिन्नताओं के स्टोरी राइटिंग , स्क्रिप्ट राइटिंग और डायरेक्शन में महिलाऐ अपनी दमदार उपस्तिथि दर्ज करा रही है। यह दिलचस्प तथ्य है कि परदे के पीछे महिलाओ की भूमिका उतनी ही पुरानी है जितना की सिनेमा का इतिहास है। दादा साहेब फाल्के के समकालीन अर्देशिर ईरानी ने 1920 में फिल्म निर्माण की शुरुआत की थी। उनकी ही एक साइलेंट फिल्म ' वीर अभिमन्यु ' से नायिका के करियर की शुरुआत करने वाली ' फातिमा बेगम ' ने 1926 में अपनी फिल्म कंपनी ' फातिमा फिल्म्स ' स्थापित कर दी थी जिसे बाद में विक्टोरिया फातिमा फिल्म्स में बदल दिया गया। इस बैनर के तले उन्होंने अपनी पहली फिल्म ' बुलबुल -ए -पाकिस्तान ( 1928 ) बनाई। वे पहली निर्देशक थी जिन्होंने अपनी फिल्मों में कल्पना और ट्रिक फोटोग्राफी का उपयोग किया था। फातिमा बेगम के बाद लगभग पचास वर्षों तक इस क्षेत्र में गिनीचुनी महिलाओ ने ही कदम रखे। गुजरे जमाने की तारिका साधना ने अपने करियर की शाम ' गीता मेरा नाम (1974 ) निर्देशित की थी। यद्धपि नरगिस ने राजकपूर के साथ सोलह फिल्मे की थी और आर के फिल्म्स के प्रोडक्शन का सारा काम उन्ही की निगरानी में होता था परन्तु घोषित रूप से वे कभी निर्देशक की कुर्सी पर नहीं बैठी। अस्सी के दशक तक महिला निर्देशकों में जो नाम अपनी पहचान बना चुके थे उनमे उल्लेखनीय थी सई परांजपे और अपर्णा सेन। रेडियो एनाउंसर से अपना करियर आरंभ करने वाली सई ने अपनी निर्देशित पहली फिल्म ' स्पर्श '(1980) से नेशनल अवार्ड हासिल कर लिया था। उनकी निर्देशित अन्य फिल्मे ' चश्मेबद्दूर (1981) कथा (1982) कालजयी श्रेणी में शामिल हो चुकी है। अपर्णा सेन ने अपनी निर्देशकीय पारी लगभग सई परांजपे के साथ ही आरंभ की थी। शशिकपूर की ' 36 चोरंगी लेन (1981) के लिए उन्हें ' बेस्ट डाइरेक्टर नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया। अपर्णा सेन ने लगभग एक दर्जन से ज्यादा हिंदी और बंगाली फिल्मे निर्देशित की है। उन्हें उनका दूसरा नेशनल अवार्ड ' मि एंड मिसेज अय्यर (2002 ) के लिए मिला था। 

नब्बे और शताब्दी के दशक के आते आते प्रतिभाशाली महिला फिल्मकारों का सूखा हरियाली में बदल चूका था। न सिर्फ निर्देशन बल्कि कहानी और पटकथा लेखन में भी वे अपनी धाक जमा रही थी। कल्पना लाजमी ( रुदाली , दरमिया , दमन ) दीपा मेहता (फायर , अर्थ , वाटर ) मीरा नायर ( मिसिसिपी मसाला ,नेमसेक ,मानसून वेडिंग , सलाम बॉम्बे ) गुरिंदर चड्ढा ( बेंड इट लाइक बेकहम ,ब्राइड एंड प्रेजुड़ाइस , वाइसराय हाउस ) फराह खान ( मैं हूँ ना , ओम शांति ओम ,तीस मार खां , हैप्पी न्यू ईयर) तनूजा चंद्रा ( दुश्मन , संघर्ष ) किरण राव ( असिस्टेंट डाइरेक्टर -लगान , स्वदेस , डाइरेक्टर -धोबी घाट) रीमा कागती ( हनीमून ट्रेवल्स , गोल्ड ,असिस्टेंट डायरेक्टर लक्ष्य , जिंदगी ना मिलेगी दोबारा , दिल चाहता है ) अनुषा रिजवी (पीपली लाइव ) मेघना गुलजार ( फिलहाल ,जस्ट मैरिड , दस कहानियां , तलवार , राजी ) जोया अख्तर ( लक बाई चांस , जिंदगी ना मिलेगी दोबारा ) गौरी शिंदे ( इंग्लिश विंग्लिश , डिअर जिंदगी ) लीना यादव ( शब्द , तीन पत्ती , पार्चड ), अलंकृता श्रीवास्तव (टर्निंग 30 , लिपस्टिक अंडर बुरका ) , नंदिता दास ( फिराक , मंटो )आदि। अगर इसमें क्षेत्रीय भाषा की फिल्मकारों को जोड़ दिया जाए तो यह फेहरिस्त और लंबी जा सकती है। यहाँ हालिया प्रदर्शित फिल्म ' मनमर्जियां ' के एक प्रसंग का जिक्र करना जरुरी है। इस फिल्म की कहानी कनिका ढिल्लों ने लिखी है। निर्माता आनद एल राय चाहते थे कि फिल्म को कनिका ही डायरेक्ट करे क्योंकि वे फिल्म की क्रिएटिव डायरेक्टर भी थी । परन्तु अभिषेक बच्चन अपनी कमबैक फिल्म में किसी नए डायरेक्टर की जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। उन्हें अनुराग कश्यप पर ज्यादा भरोसा था , चुनांचे फिल्म इंडस्ट्री को एक बढ़िया स्टोरी राइटर तो मिला परन्तु एक बढ़िया महिला डायरेक्टर से वंचित होना पड़ा। 
इन सभी फिल्मकारों में सिर्फ एक समानता है कि इन्होने बनी बनाई लीक पर चल रही कहानियों के बजाय ' रिअलिस्टिक कहानियों ' को प्राथमिकता दी। सुनने में अजीब और अविश्वसनीय लग सकता है कि फिल्म माध्यम में सदियों आगे चलने वाला हॉलीवुड इस क्षेत्र में बॉलिवुड से कही पीछे है। वहां महिलाओ को अपने उचित प्रतिनिधित्व के लिए अभी भी संघर्ष करना पड़ रहा है। सिर्फ अमेरिकन फिल्मों की ही बात की जाए तो पिछले दस वर्षों में किसी भी महिला निर्देशक ने एक से अधिक फिल्म को डाइरेक्ट नहीं किया है । प्रतिभा का ऐसा अकाल रहा है कि कैथरीन बिगेलो ( हर्ट लॉकर 2009) के बाद आज तक किसी महिला निर्देशक को ऑस्कर नहीं मिला है। 
पिछले दो वर्षों में जब से वीडियो स्ट्रीमिंग साइट ' नेटफ्लिक्स ' और ' अमेज़न प्राइम ' ने भारत में अपने पैर पसारे है तब से फिल्मकारों को खासकर रचनात्मक और प्रतिभाशाली महिला फिल्मकारों को एक नया मंच मिल गया है।

2 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कुंवर नारायण और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. महिलाएं हर क्षेत्र में बढिया काम कर रहीं हैं.
    सार्थक आलेख
    http://rohitasghorela.blogspot.com/2018/09/blog-post_19.html

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