फिल्म ' शोले ' के मशहूर फिल्म निर्माता रमेश सिप्पी ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि बड़ी सफलता बड़ा मानसिक दबाव भी लेकर आती है। कभी कभी यह सफलता इतनी जबरदस्त होती है कि फ़िल्मकार के लिए सहज रह पाना आसान नहीं होता। सफलता उसकी रचनात्मकता का मानक तय कर देती है। . चाहे कुछ भी हो जाए अगली बार उसे उस मानक तक तो पहुंचना ही है , अन्यथा उसकी सफलता को महज संयोग मान लिया जाएगा। यद्धपि प्रदर्शन को आंकने का यह तरीका जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी लागू होता है। परन्तु चूँकि फिल्मे सबसे ज्यादा सार्वजनिक आकर्षण के केंद्र में होती है तो दर्शक की ' एक्सरे ' नजरों से उन्हें ही गुजरना होता है। स्वयं रमेश सिप्पी शोले से पूर्व ' सीता और गीता ' के रूप में बड़ी हिट दे चुके थे। परन्तु उसके बाद की उनकी फिल्मे शोले की तराजू में ही तोली गई। टेलीविज़न के शुरूआती दौर में देश के बंटवारे की पृष्ठभूमि पर बना सिप्पी का धारावाहिक ' बुनियाद ' आज ' एन एस डी ' और पुणे फिल्म इंस्टिट्यूट में पढ़ाया जाता है परन्तु बावजूद इस उपलब्धि के उनका जिक्र सिर्फ और सिर्फ ' शोले ' के लिए ही होता है।
सिनेमाई विशेषणों ' ग्रेट ' फाइनेस्ट ' क्लासिक से सजी ' मुग़ले आजम ' के लिए के आसिफ ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित काल्पनिक कहानी में इतिहास के अलावा हरेक बिंदु सर्वश्रेष्ठ था। भारतीय सिनेमा के इतिहास की बात मुग़ले आजम के बगैर अधूरी रहेगी। मुग़ले आजम के बाद के आसिफ ने गुरुदत्त और निम्मी के साथ ' लव एंड गॉड ' आरम्भ की परन्तु गुरुदत्त के अवसान से फिल्म अटक गई। बाद में संजीव कुमार को लेकर पुनः शूट की गई। फिल्म मुकाम पर पहुँचती उसके पहले आसिफ साहब का इंतेक़ाल हो गया। आधी अधूरी फिल्म को 1986 में जैसे तैसे रिलीज किया गया परन्तु इसमें आसिफ का वह जादुई स्पर्श नहीं था जिसने मुग़ले आजम ' को शीर्ष पर पहुँचाया था।
कभी कभी फिल्मकार ही फ़ैल नहीं होते दर्शक भी फ़ैल हो जाता है। गुरुदत्त कितने महान निर्देशक थे यह बताने की आवश्यकता नहीं है। उनकी बाजी (1951 ) जाल (1952) आरपार (1954 ) मि एंड मिसेस 55 (1955 ) प्यासा (1957) आज भी शिद्दत से देखि जाती है। सिनेमा की बारीक समझ विकसित करने वालों के लिए गुरुदत्त की फिल्मे एक यूनिवर्सिटी की तरह है। अफ़सोस इस महान फिल्मकार की अंतिम फिल्म ' कागज के फूल '(1959) की असफलता ने गुरुदत्त को अंदर से तोड़ दिया। दर्शको को बाद में समझ आया कि गुरुदत्त असफल नहीं हुए थे वरन वे खुद ही उस फिल्म को समझने में चूक गए थे। फिल्म आज क्लासिक का दर्जा हासिल कर चुकी है।
शाहजहां ने अपनी पत्नी के लिए ताज महल बनाया था कमाल अमरोही ने अपनी पत्नी के लिए ' पाकीजा ' बनायी - 14 वर्ष में पूर्ण हुई इस कालजयी फिल्म को मीना कुमारी की अंतिम फिल्म कहा जाता है। कमाल अमरोही ने इस फिल्म को ब्लैक एंड वाइट के जमाने में शूट करना आरम्भ किया था और हर बार नई तकनीक के साथ री शूट करते रहे। कास्टिंग , एडिटिंग , सेट्स , मधुर गीत -संगीत , फोटोग्राफी के पैमाने पर सौ प्रतिशत देती पाकीजा ' कल्ट क्लासिक ' बन गई है। अमरोही साहब ने ' रजिया सुलतान (1983) में खुद को दोहराने का प्रयास किया परन्तु बात नहीं बनी। उस दौर की सदाबहार जोड़ी धरम / हेमा के बावजूद फिल्म डूब गई। ' ऐ दिल नादान - लता का गाया यह गीत ही इस फिल्म का नाम याद दिला देता है अन्यथा दर्शक कब का इसे बिसार चुके होते।
सुभाष घई एक्टर बनने मुंबई आए थे। बन न सके , और निर्देशक बन गए। सुभाष घई ने कोई महान फिल्म बनाने का प्रयास नहीं किया ,उन्होंने दर्शकों के टेस्ट के मुताबिक़ सिनेमा रचा। कालीचरण ' 1976' कर्ज 1980 ' हीरो 1983 ' कर्मा 1986 ' रामलखन 1989 ' सौदागर 1991 ' खलनायक 1993 ' जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्मे घई को सफलतम निर्देशक की लीग में शामिल करती है। परन्तु घई का जादू ' खलनायक ' के बाद चूक गया। परदेस (1993 ) ' ताल (1997 ) आते आते वे पूरी तरह से निष्प्रभावी हो गए। ऋतिक रोशन करीना स्टारर ' यादें ' उनकी घोर असफल फलम मानी जाती है। इस हादसे ने घई का आत्मविश्वास इतनी बुरी तरह हिलाया कि उसके बाद उन्होंने किसी नई फिल्म को हाथ नहीं लगाया।
ऐसी इंडस्ट्री जहां शुक्रवार का दिन तय करता है कि कोनसा सितारा कहाँ बैठेगा , कौन और कितनी ऊपर जाएगा , किस का समय समाप्त होने वाला है।यक़ीनन कहानी बनाने वालों की भी अपनी कहानी होती है और सभी की बात करने के लिए यह कॉलम बहुत छोटा है।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - क्रिसमस डे और प्रकाश उत्सव पर्व की ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएँ में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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