' जब खुला आसमान आँगन में झांकता हो तो खिड़कियों पर कितने ही मोटे परदे लगा दो , उजाला कमरे में प्रवेश कर ही जाएगा '' ऐसी ही हिमाकत भारतीय सेंसर बोर्ड इन दिनों कर रहा है। समाज के सांस्कृतिक उत्थान की जितनी चिंता सेंसर बोर्ड को है उतनी शायद किसी को भी नहीं है। ' हर - हर मोदी , घर -घर मोदी ' का नारा देने वाले पहलाज निहलानी को सेंसर बोर्ड चेयरमैन का पद इस एक नारे की बदौलत मिला है। तभी से वे हर फिल्म को सर्टिफिकेट देने में विवादों में घिरते आये है। निहलानी साहब का मानना है कि भारतीय संस्कृति का बचाव करना उनकी जिम्मेदारी है , जिसे फिल्मे दूषित कर रही है। वे इस तथ्य को भूल जाते है कि ' कामसूत्र ' भारत में ही लिखा गया है और खजुराहों के शिल्प भी हमारे ही किन्ही पूर्वजों के हाथ से ही तराशे गए थे। बावजूद इसके हमारी संस्कृति असहिष्णु रही है।
पिछले दो सालों में बहुत सी फिल्मों को सेंसर बोर्ड के नश्तर का शिकार होना पड़ा है। इसमें ग्लोबल अपील वाली जेम्स बांड की फिल्म ' स्काई फाल ' भी शामिल है। ' गंगा जल ' अपहरण ' आरक्षण ' और ' राजनीती ' जैसी फिल्मे प्रोड्यूस करने वाले प्रकाश झा की ताजा फिल्म ' लिपस्टिक अंडर माय बुरक़ा ' इन दिनों सेंसर बोर्ड में अटकी पड़ी है। टोक्यो और मुम्बई फिल्म फेस्टिवल में यह फिल्म पुरूस्कार जीत चुकी है और अंतराष्ट्रीय स्तर पर सराही जा रही है। भोपाल की चार महिलाओं के जीवन पर आधारित इस फिल्म को निर्देशित भी एक महिला - अलंकृता श्रीवास्तव ने किया है। स्क्रीनिंग कमेटी का मानना है कि फिल्म की विषय वस्तु काफी ' बोल्ड ' है और डायलॉग भी अश्लील है। निहलानी साहब का सोच है कि भारतीय नारी की ' फंतासी ' इतनी उड़ान नहीं भर सकती जितनी इसके पात्र दर्शाते है। गौर करने लायक तथ्य है कि देश के 35 प्रतिशत मोबाइल धारी इंटरनेट से जुड़े हुए है और महज एक ' क्लिक ' से पोर्न की दुनिया में प्रवेश करने में सक्षम है। यही नहीं , अमेरिकन टेलीविज़न के सर्वाधिक चर्चित टीवी शो ' गेम ऑफ़ थ्रोन ' ब्रेकिंग बेड ' टू एंड हाफ मैन '(सेक्स , हिंसा , नग्नता , से लबरेज ) पाइरेटेड साइट्स पर आसानी से डाउनलोड हो कर देखे जा रहे है।
इंटरनेट खुले आसमान से हँमारे घरों में झाँक रहा है और हम ब्रिटिश कालीन सेंसर बोर्ड से संस्कृति की रक्षा कर रहे है। यह डबल स्टैण्डर्ड हमें कहीं नहीं ले जाएगा।
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