कुछ दिनों पूर्व देश के प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने राहुल गांधी को नसीहत देते हुए सम्पादकीय लिखा था { step aside rahul }. लेकिन राहुल भला कहाँ किसी की सुनते है। लोकसभा चुनाव से लेकर विधान सभाओ और स्थानीय चुनावो में आये विपरीत परिणामो के बावजूद वे अपने दायरे से बाहर नहीं आये। अकेले राहुल ही नहीं ऐसे बहुत से लोग है जो अपनी बनायी दुनिया को ही दुनिया समझते है। वे समय को पकड़ने की कोशिश करते है , नतीजन खुद के केरीकेचर बनकर रह जाते है।
राहुल को देखकर देवानंद की याद आती है। उन्होंने मान लिया था कि सदाबहार और जवान है , ऐसा मानने में कोई हर्ज भी नहीं है। लेकिन जब आप अपनी ही छवि के इश्क में गिरफ्तार जाए और उम्र को थामने की कोशिश करे तो गड़बड़ आरम्भ हो जाती है।
बतौर नायक देव साहब की अंतिम सुपर हिट फिल्म '' देस परदेस '' थी जो 1978 में आई थी। चूँकि देव आनंद अपने को जवान मान चुके थे लिहाजा धड़ाधड़ फिल्मे प्रोडूस करते रहे उनमे नायक बनते रहे। दर्शक उन्हें नकार रहे थे परन्तु उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा था क्योंकि पैसा उनका था नायक बनने से उन्हें कौन रोक सकता था। अपनी मृत्यु तक वे काम करते रहे परन्तु उस सफलता को नहीं दोहरा सके। वे मानसिक रूप से सत्तर के दशक में अटक गए थे। इस विडम्बंना को नहीं समझ कर उन्होंने अपनी प्रतिभा और माध्यम का नुक्सान ही किया।
अमिताभ बच्चन अपनी पहली पारी की ढलान पर इसी कमजोरी का शिकार हुए थे। ' लाल बादशाह ' ' मृत्युदाता ' में नायक के गेट अप में उन्हें देखकर वितृष्णा होने लगी थी परन्तु आर्थिक हादसों और बेकारी के डर ने उन्हें 'मोहब्बते ' में यह स्वीकार करने लिए प्रेरित कर दिया कि वे नायक बनने लायक युवा नहीं रहे है।
स्वयं को प्रेम करने के इस सिंड्रोम से नायिकाए भी अछूती नहीं रही है। भारत की पहली सितारा देविका रानी को अपनी मृत्यु तक अहसास नहीं हुआ था कि वे बूढ़ी हो चुकी है। वे ता उम्र मेकअप की परतों में उम्र का हिसाब छुपाती रही। [ क्रमश ]
-----इमेजेस गूगल
राहुल को देखकर देवानंद की याद आती है। उन्होंने मान लिया था कि सदाबहार और जवान है , ऐसा मानने में कोई हर्ज भी नहीं है। लेकिन जब आप अपनी ही छवि के इश्क में गिरफ्तार जाए और उम्र को थामने की कोशिश करे तो गड़बड़ आरम्भ हो जाती है।
बतौर नायक देव साहब की अंतिम सुपर हिट फिल्म '' देस परदेस '' थी जो 1978 में आई थी। चूँकि देव आनंद अपने को जवान मान चुके थे लिहाजा धड़ाधड़ फिल्मे प्रोडूस करते रहे उनमे नायक बनते रहे। दर्शक उन्हें नकार रहे थे परन्तु उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा था क्योंकि पैसा उनका था नायक बनने से उन्हें कौन रोक सकता था। अपनी मृत्यु तक वे काम करते रहे परन्तु उस सफलता को नहीं दोहरा सके। वे मानसिक रूप से सत्तर के दशक में अटक गए थे। इस विडम्बंना को नहीं समझ कर उन्होंने अपनी प्रतिभा और माध्यम का नुक्सान ही किया।
अमिताभ बच्चन अपनी पहली पारी की ढलान पर इसी कमजोरी का शिकार हुए थे। ' लाल बादशाह ' ' मृत्युदाता ' में नायक के गेट अप में उन्हें देखकर वितृष्णा होने लगी थी परन्तु आर्थिक हादसों और बेकारी के डर ने उन्हें 'मोहब्बते ' में यह स्वीकार करने लिए प्रेरित कर दिया कि वे नायक बनने लायक युवा नहीं रहे है।
स्वयं को प्रेम करने के इस सिंड्रोम से नायिकाए भी अछूती नहीं रही है। भारत की पहली सितारा देविका रानी को अपनी मृत्यु तक अहसास नहीं हुआ था कि वे बूढ़ी हो चुकी है। वे ता उम्र मेकअप की परतों में उम्र का हिसाब छुपाती रही। [ क्रमश ]
-----इमेजेस गूगल
No comments:
Post a Comment