हर कलाकार का पहला सपना होता है कि उसकी भूमिका को लोग याद रखे। इस सपने को पूरा करने के लिए वे जीतोड़ प्रयास भी करते है। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे बहुतेरे अभिनेता अभिनेत्री हुए है जिन्होंने भरपूर पैसा कमाया और अपना शेष जीवन सुखद अतीत की यादों की जुगाली करते हुए बिताया। परंतु कुछ लोग ऐसे भी रहे है जिन्होंने अपने स्वर्णिम समय में पैसा तो नहीं कमाया लेकिन चुनिंदा भूमिकाए कर पीढ़ियों की स्मृतियों में दर्ज हो गए। ऐसी ही एक अभिनेत्री थी विद्या सिन्हा।
सत्तर से अस्सी के दशक में हमेशा की तरह बड़े सितारों की फिल्मों का बोलबाला था। सुपर स्टार राजेश खन्ना का जलवा था ( अमर प्रेम , बाबर्ची ) इसी समय एक कालजयी फिल्म ' आनंद ' में अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना एक दूसरे के सामने ख़म ठोंक रहे थे। देव आनद ( हरे रामा हरे कृष्णा ) एक अनूठे विषय को उठाकर छा चुके थे। जया भादुड़ी गुड्डी , अभिमान से अपनी आमद दर्ज करा रही थी। 'मेरा नाम जोकर ' में झुलस चुके राजकपूर ' बॉबी ' से दो नए सितारों ( डिम्पल , ऋषिकपूर ) को जन्म दे चुके थे। श्याम बेनेगल 'अंकुर' और ' निशांत' से शबाना आजमी को निखार चुके थे। समय के इसी दौर ने एक सपने को ' पाकीजा ' के रूप में रजत पटल पर साकार होते देखा। कमाल अमरोही का जूनून और मीना कुमारी का अपनी बीमारी के बावजूद शानदार अभिनय आज न सिर्फ सिनेमाई इतिहास है वरन शोध का विषय भी है।
इन्ही बड़े नामों और फिल्मों के बीच 1974 में दक्षिण मुंबई में स्थित आकाशवाणी के थिएटर में एक फिल्म रिलीज़ हुई। नाम था ' रजनीगंधा ' और निर्देशक थे ख्यातनाम बासु चटर्जी। नायक अमोल पालेकर , दिनेश ठाकुर और नायिका विद्या सिन्हा के बारे में इससे पहले कभी सुना नहीं गया था। सिर्फ एक प्रिंट से प्रदर्शित इस फिल्म की पब्लिसिटी भी कुछ खास नहीं हो पाई थी। इंदौर की लेखिका मन्नू भंडारी के डायरी की शक्ल में लिखे उपन्यास ' यही सच है ' पर आधारित 'रजनीगंधा ' सिर्फ माउथ पब्लिसिटी के भरोसे सुपर हिट होने जा रही थी। दो प्रेमियों में से किसे जीवन साथी बनाऊ ? की दुविधा में उलझी शहरी मध्यमवर्गीय नायिका की
भूमिका को विद्या सिन्हा ने सहजता से जीवंत किया था। पड़ोस में रहने वाली लड़की की तरह दिखने वाली विधा की छवि इस फिल्म की वजह से बरसों तक सिने दर्शकों के दिलों दिमाग पर अमिट रहने वाली थी। ऐसा हुआ भी। छप्पर फाड़ सफलता के बावजूद विधा ने अपनी सौम्य और शालीन छवि को बरकरार रखा। दो लाख रूपये के बजट में बनी ' रजनीगंधा ' विद्या सिन्हा को उस मुकाम पर ले गई जहाँ के लिए नायिकाएँ कल्पना ही करती रह जाती है। महज सोलह वर्ष की उम्र में ' मिस बॉम्बे ' का खिताब जीत लेने वाली विद्या ने अपनी सफलता के दौर में राजकपूर की फिल्म ठुकरा कर सनसनी फैला दी थी। ' सत्यम शिवम् सुंदरम ' के लिए राजकपूर की पहली पसंद विद्या ही थी परंतु कम कपड़ों में अधढकी नायिका की भूमिका उनके गले नहीं उतरी। इस समय तक नायिकाएँ तंग शर्ट्स और बेलबॉटम में नजर आने लगी थी। लेकिन विद्या सिन्हा ने इस दौर में भी अपने को शिफॉन और जॉर्जेट की साड़ियों में संजोये रखा। अपने कैरियर में मात्र तीस फिल्मे करने वाली इस अभिनेत्री ने ऐसे समय फिल्म संसार को अलविदा कह दिया था जब वे उस दौर के शीर्ष नायकों ( संजीव कुमार , शशि कपूर , विनोद खन्ना , शत्रुघ्न सिन्हा आदि ) के साथ फिल्मे कर रही थी। वजह सिर्फ इतनी थी कि वे मातृत्व सुख को महसूस करना चाहती थी। अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो कर इस अभिनेत्री ने दूरदर्शन के लिए दो यादगार धारावाहिक (सिंहासन बत्तीसी , दरार ) निर्मित किये साथ ही दो सफल क्षेत्रीय फिल्मों ( बिजली - मराठी एवं जीवो रबारा - गुजराती ) की निर्माता भी बनी।
कई बार यूँ भी देखा है , ये जो मन की सीमारेखा है , मन तोड़ने लगता है ' या ' रजनीगंधा फूल तुम्हारे महके जीवन में ' या ' तुम्हे देखती हु तो लगता है जैसे युगो से तुम्हे जानती हु ' या ' न जाने क्यूँ होता है जिंदगी के साथ - गीत न सिर्फ मुकेश और लता मंगेशकर की वजह अमर हुए है वरन स्क्रीन पर विद्या की 'ग्रेसफुल भाव अभिव्यक्ति ने भी उन्हें अविस्मरणीय बना दिया है।
यह विचित्र संयोग है कि देश की आजादी के साल (1947) जन्मी इस अभिनेत्री ने एन आजादी की वर्षगांठ ( 15 अगस्त) पर दुनिया को अलविदा कहा।
सत्तर से अस्सी के दशक में हमेशा की तरह बड़े सितारों की फिल्मों का बोलबाला था। सुपर स्टार राजेश खन्ना का जलवा था ( अमर प्रेम , बाबर्ची ) इसी समय एक कालजयी फिल्म ' आनंद ' में अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना एक दूसरे के सामने ख़म ठोंक रहे थे। देव आनद ( हरे रामा हरे कृष्णा ) एक अनूठे विषय को उठाकर छा चुके थे। जया भादुड़ी गुड्डी , अभिमान से अपनी आमद दर्ज करा रही थी। 'मेरा नाम जोकर ' में झुलस चुके राजकपूर ' बॉबी ' से दो नए सितारों ( डिम्पल , ऋषिकपूर ) को जन्म दे चुके थे। श्याम बेनेगल 'अंकुर' और ' निशांत' से शबाना आजमी को निखार चुके थे। समय के इसी दौर ने एक सपने को ' पाकीजा ' के रूप में रजत पटल पर साकार होते देखा। कमाल अमरोही का जूनून और मीना कुमारी का अपनी बीमारी के बावजूद शानदार अभिनय आज न सिर्फ सिनेमाई इतिहास है वरन शोध का विषय भी है।
इन्ही बड़े नामों और फिल्मों के बीच 1974 में दक्षिण मुंबई में स्थित आकाशवाणी के थिएटर में एक फिल्म रिलीज़ हुई। नाम था ' रजनीगंधा ' और निर्देशक थे ख्यातनाम बासु चटर्जी। नायक अमोल पालेकर , दिनेश ठाकुर और नायिका विद्या सिन्हा के बारे में इससे पहले कभी सुना नहीं गया था। सिर्फ एक प्रिंट से प्रदर्शित इस फिल्म की पब्लिसिटी भी कुछ खास नहीं हो पाई थी। इंदौर की लेखिका मन्नू भंडारी के डायरी की शक्ल में लिखे उपन्यास ' यही सच है ' पर आधारित 'रजनीगंधा ' सिर्फ माउथ पब्लिसिटी के भरोसे सुपर हिट होने जा रही थी। दो प्रेमियों में से किसे जीवन साथी बनाऊ ? की दुविधा में उलझी शहरी मध्यमवर्गीय नायिका की
भूमिका को विद्या सिन्हा ने सहजता से जीवंत किया था। पड़ोस में रहने वाली लड़की की तरह दिखने वाली विधा की छवि इस फिल्म की वजह से बरसों तक सिने दर्शकों के दिलों दिमाग पर अमिट रहने वाली थी। ऐसा हुआ भी। छप्पर फाड़ सफलता के बावजूद विधा ने अपनी सौम्य और शालीन छवि को बरकरार रखा। दो लाख रूपये के बजट में बनी ' रजनीगंधा ' विद्या सिन्हा को उस मुकाम पर ले गई जहाँ के लिए नायिकाएँ कल्पना ही करती रह जाती है। महज सोलह वर्ष की उम्र में ' मिस बॉम्बे ' का खिताब जीत लेने वाली विद्या ने अपनी सफलता के दौर में राजकपूर की फिल्म ठुकरा कर सनसनी फैला दी थी। ' सत्यम शिवम् सुंदरम ' के लिए राजकपूर की पहली पसंद विद्या ही थी परंतु कम कपड़ों में अधढकी नायिका की भूमिका उनके गले नहीं उतरी। इस समय तक नायिकाएँ तंग शर्ट्स और बेलबॉटम में नजर आने लगी थी। लेकिन विद्या सिन्हा ने इस दौर में भी अपने को शिफॉन और जॉर्जेट की साड़ियों में संजोये रखा। अपने कैरियर में मात्र तीस फिल्मे करने वाली इस अभिनेत्री ने ऐसे समय फिल्म संसार को अलविदा कह दिया था जब वे उस दौर के शीर्ष नायकों ( संजीव कुमार , शशि कपूर , विनोद खन्ना , शत्रुघ्न सिन्हा आदि ) के साथ फिल्मे कर रही थी। वजह सिर्फ इतनी थी कि वे मातृत्व सुख को महसूस करना चाहती थी। अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो कर इस अभिनेत्री ने दूरदर्शन के लिए दो यादगार धारावाहिक (सिंहासन बत्तीसी , दरार ) निर्मित किये साथ ही दो सफल क्षेत्रीय फिल्मों ( बिजली - मराठी एवं जीवो रबारा - गुजराती ) की निर्माता भी बनी।
कई बार यूँ भी देखा है , ये जो मन की सीमारेखा है , मन तोड़ने लगता है ' या ' रजनीगंधा फूल तुम्हारे महके जीवन में ' या ' तुम्हे देखती हु तो लगता है जैसे युगो से तुम्हे जानती हु ' या ' न जाने क्यूँ होता है जिंदगी के साथ - गीत न सिर्फ मुकेश और लता मंगेशकर की वजह अमर हुए है वरन स्क्रीन पर विद्या की 'ग्रेसफुल भाव अभिव्यक्ति ने भी उन्हें अविस्मरणीय बना दिया है।
यह विचित्र संयोग है कि देश की आजादी के साल (1947) जन्मी इस अभिनेत्री ने एन आजादी की वर्षगांठ ( 15 अगस्त) पर दुनिया को अलविदा कहा।
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