Friday, March 29, 2019

आधी उम्र की नायिका !

सलमान खान आलिया भट्ट के साथ फिल्म ' इंशाअल्लाह ' करने वाले है।  एक बारगी को यह खबर  पढ़कर कोई भी आगे बढ़ जाएगा। पहली नजर में इस तरह की सूचनाओं को इन सितारों के प्रशंसक भी संजीदगी से नहीं लेते क्योंकि हमारे देश में औसतन चार फिल्मे एक दिन में अनाउंस होती है। कितनी दर्शकों तक पहुँचती यह बाद में पता चलता है। हम वापस सलमान आलिया पर आते है। इस खबर में गौर करने लायक बात है उम्र । सलमान पचपन के है और आलिया पच्चीस की !  सिने जगत के अधिकांश सितारे अपने से आधी उम्र की नायिकाओ के साथ काम कर रहे है। ऐसा नहीं है कि यह चलन अभी शुरू हुआ है।  हैरत की बात है कि यह परंपरा सिनेमाई इतिहास के साथ ही आरम्भ हो गई थी।  हमारे अधिकांश उम्रदराज अभिनेता अपनी अधेड़ अवस्था तक नायक बनकर आते रहे है परन्तु उनके साथ नायिका बनकर आई अधिकांश अभिनेत्रियां या तो चालीस की उम्र आते आते विवाहित हो गई या फिर फिल्मों से ही रिटायर हो गई। इंडस्ट्री में ऐसे उदाहरणों की भरमार है जब प्रतिभावान अभिनेत्रियों को  पेंतीस की उम्र तक पहुँचते ही विनम्रता पूर्वक कह दिया गया कि वे नायिका बनने की हद पार कर चुकी है , वे चाहे तो चरित्र किरदार निभा सकती है ! 
 सत्तर के दशक में दुनिया भर में  हिप्पियों की जीवनशैली के दुष्परिणामों की चर्चा आम थी। इस विषय देवआनंद ने फिल्म बनाई ' हरे रामा हरे कृष्णा(1971) इस समय उनकी उम्र थी अड़तालीस बरस और नवोदित ' जीनत अमान ' उन्नीस वर्ष की थी। जीनत की ही तरह टीना मुनीम भी इस लिहाज से भाग्यशाली थी कि उन्हें अपने फ़िल्मी सफर की शुरुआत करने का मौका सदाबहार हैंडसम देव आनंद के साथ मिला था। फिल्म थी ' ' देस परदेस (1978) उस समय देव साहब पचपन पार कर रहे थे और टीना इक्कीसवे बरस में कदम रख रही थी। महानायक अमिताभ जिस समय अपने करियर की ढलान पर तेजी से लुढ़क रहे थे उस समय उनकी उम्र सत्तावन साल हो चुकी थी परन्तु उसी साल  'लाल बादशाह (1999) में वे उन्तीस वर्षीया मनीषा कोइराला के साथ प्रणय निवेदन करते नजर आ रहे थे !  
ऐसा भी नहीं है कि ' आधी उम्र ' की नायिका का रिवाज  सिर्फ भारत में ही है।  इस लेवल पर हॉलीवुड भी हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा है। क्लासिक बन चुकी ' कासाब्लांका (1942) के नायक हम्फ्री बोगार्ट अड़तालीस बरस के थे और सौंदर्य की देवी कही गई नायिका  इंग्रिड बर्गमन इक्कीस वर्ष की थी। वुडी एलन की रोमांटिक कॉमेडी ' मैजिक इन मूनलाइट ' के नायक कोलिनफर्ट और नायिका एमा स्टोन की उम्र में सत्ताईस साल  का अंतर था। क्लिंट ईस्ट वुड , शॉन कॉनरी , रिचर्ड गैर , हरिसन फोर्ड , जैसे दर्जनों स्टार आज भी अपने से आधी उम्र से भी कम उम्र की नायिकाओ के साथ नजर आ रहे है। 
                                                  चूँकि इस विषय पर दर्शकों की राय भिन्न रही है परन्तु ' साइकोलॉजी टुडे ' एक तरह से समाज को आइना दिखा देता है।  इस प्रतिष्ठित पत्रिका के अनुसार फिल्म इंडस्ट्री ( ये हॉलीवुड / बॉलीवुड दोनों ही माने जा सकते है ) समाज के मानदंडों को ही परावर्तित ( रिफ्लेक्ट ) करती है। हर काल में महिलाओ की सुंदरता पर विशेष जोर दिया जाता रहा है , फिर चाहे वे किसी भी क्षेत्र में काम करती हो।उनके युवा होने को विशेष महत्व दिया जाता रहा है।  सामाजिक  रूप से अधिक आयु के पुरुषों को जिम्मेदार और भरोसेमंद माना जाता है। इस अवधारणा ने इस बात को भी न्यायोचित ठहरा दिया कि अधिक उम्र के पुरुष रिश्तों को लेकर गंभीर होते है।मलेनिआ ट्रम्प अपने पति डोनाल्ड ट्रम्प से चोवीस वर्ष छोटी है वही मीडिया सम्राट मर्डोक अपनी पत्नी वेंडी वोंग से सेतीस वर्ष बड़े है ! हमारे दिलीप कुमार और उनकी पत्नी सायरा बानो में बावीस बरस का फासला है। रौबदाब  व्यक्तित्व के मालिक अभिनेता कबीर बेदी की तृतीय पत्नी उनसे उन्तीस बरस छोटी है वही एक दौर के तिरेपन वर्षीय  चर्चित मोडल मिलिंद सोमन की दूसरी पत्नी महज सत्ताईस बरस की है।  
                                                            फिल्मो में इस तरह की शुरुआत जो एक बार शुरू हुई तो  आज तक जारी है। इस भेदभाव पर समय समय पर उँगलियाँ भी  उठती रही है। हिंदी और क्षेत्रीय फिल्मों ने अपने संकीर्ण सोंच के चलते कई सशक्त और प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों को इतिहास के घूरे पर पटक दिया है।
हॉलीवुड जहाँ आज भी साठ  पार की अभिनेत्रियों मेरिल स्ट्रिप , हेलन मीरन , कैथरीन जीटा जोंस , पचास पार की हेलन हंट , जोड़ी फोस्टर , मेग रायन के लिए उनकी उम्र के अनुसार फिल्मे बना रहा है वैसा विशेषाधिकार हेमा , रेखा, माधुरी या मरहूम श्रीदेवी तब्बू ,सोनाली बेंद्रे , रवीना टंडन , प्रिटी जिंटा को  नहीं के बराबर मिला है। स्वीडन का एक शोध कहता है कि दंपतियों में चार से छह वर्ष का अंतर सफल वैवाहिक जीवन में ज्यादा मायने रखता है। पता नहीं वास्तविक जीवन और फिल्मो में इस बात को कब महसूस किया जाएगा ! 

Saturday, March 23, 2019

भ्रम को वास्तविकता में बदलते कॉस्ट्यूम

फिल्म को डायरेक्टर का माध्यम यूँ ही नहीं कहा जाता। दर्शक वही देखता है जो डायरेक्टर उसे दिखाना चाहता है।  एक विचार के द्रश्य में बदलने की लंबी प्रक्रिया के दौरान फिल्म का कथानक उसके अंतस में कई दोहराव लेता है। हर द्रश्य की बारीकियां सबसे पहले उसके मानस में चित्रों का निर्माण करती है।  चूँकि यह माध्यम सामूहिक सहयोग पर आधारित होता है तो सिनेमेटोग्राफर , आर्ट डायरेक्टर ,प्रोडक्शन डिज़ाइनर , कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर जैसे आमतौर पर दर्शक के नोटिस में न आने वाले तत्वों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। ये लोग डायरेक्टर की ही सोंच को आगे बढ़ाते हुए  अपने श्रेष्ठतम प्रयासों से निर्जीव स्क्रीनप्ले को जीवन प्रदान करते है। 
कोई भी फिल्म सिनेमैटिक भाषा का प्रयोग करते हुए अपनी कहानी सुनाती है। उसके पात्रो द्वारा पहने हुए कपडे दर्शक को कहानी से जोड़ने  का आधा काम आसान कर देते है। किसी द्रश्य का निर्माण करना एक भ्रम का निर्माण करना होता है और चरित्रों के पहने हुए कपडे इस भ्रम को वास्तविकता के नजदीक पहुँचाने में महती भूमिका अदा करते है। 
पिछले दिनों प्रदर्शित ' द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर ' अन्य बातों के अलावा अपने वास्तविक लगते कलाकारों और उनके पहने कपड़ों के लिए खासी सराही गई। इस फिल्म के अधिकांश पात्र , लोकेशन और घटनाए सीधे जिंदगी से उठकर आये थे। फिल्म के चरित्र आमजन के लिए अनजान नहीं थे। लोग टेलीविज़न और पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से इन लोगों की हर नैसर्गिक आदतों से परिचित थे। ऐसे में उन्हें हूबहू स्क्रीन पर उतारना कास्टिंग डायरेक्टर के साथ कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर के लिए भी चुनौती भरा काम था। फिल्म की कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर अभिलाषा श्रीवास्तव ने अपने शोध और अनुभव से  इस काम को कुशलता से अंजाम दिया है। कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर का महत्व संभवतः आम दर्शक को इससे पहले कभी समझ नहीं आया होगा।  
कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर शब्द हांलाकि काफी बाद में चलन में आया है परन्तु इसका महत्त्व भारत की बनी पहली फिल्म ' राजा हरिश्चन्द्र ' से ही स्पस्ट हो गया था। दादा साहेब फालके ने  अपने पुरुष पात्रो का  महिला वेश कॉस्ट्यूम की मदद से ही रचा था। सत्तर के दशक तक इस विधा को वैसा क्रेडिट नहीं मिला जिसकी यह तलबगार थी। फिल्मो के अंत में टाइटल क्रेडिट में ड्रेसवाला ' या वार्डरोब कर्टसी ' डालकर काम चला दिया जाता था। आशा पारेख की म्यूजिकल  फिल्म ' कारावान (1971) से  लीना दारु का नाम सामने आया जिन्होंने मुंबई के जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स से बाकायदा कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग में ग्रेजुएशन किया था। इस लिहाज से लीना दारु बॉलीवुड की पहली घोषित डिज़ाइनर मानी गई। कारावान से आरंभ उनका सफर ' सीता और गीता , खूबसूरत ,उत्सव , उमरावजान ,लम्हे , चांदनी , सिलसिला ' जैसे यादगार पड़ावों से गुजरते हुए फिल्मो का शतक लगा गया है। 
शशिकपूर  निर्मित  पीरियड फिल्म ' उत्सव (1984 ) का कथानक दो सदी ईसा पूर्व में शूद्रक के संस्कृत में लिखे नाटक ' मृछकटिका ' पर आधारित था। यह समय सामाजिक  खुलेपन और आधुनिक पहनावे का माना जाता था।  उस दौर की कल्पना को साकार करने के लिए लीना ने अजंता के शिल्पों से प्रेरणा ली थी। इस फिल्म को आज भी इसके मादक मधुर गीतों और  बेहतरीन कॉस्ट्यूम की बेमिसाल जुगलबंदी के लिए  याद किया जाता है। 
 
लीना दो दशकों तक रेखा के लिए ड्रेस डिज़ाइन करती रही थी।  इस दौरान उन्होंने किसी और के लिए काम नहीं किया।  रेखा ने सिनेमा को खुद के रूप में एक सर्व स्वीकार  सामजिक चेहरा दिया है जिसमे भारतीय परंपरा एवं  सदाबहार सेन्सुअलिटी के साथ ग्लैमर भी जुड़ा हुआ था।  लीना की डिज़ाइन की हुई साड़ियां रेखा को एक अलग ही स्तर पर ले गई है।  उन्होंने साड़ियों को एक आकर्षक पहनावे के अलावा आकर्षक और पारंपारिक भी बना दिया है।  अपने समय की नायिकाओ से इतर रेखा ने चित्ताकर्षक दक्षिण भारतीय सिल्क साड़ियों को लोकप्रिय बनाने में अप्रतिम योगदान किया है , शायद इसलिए उन्हें आज भी एक स्टाइल आइकॉन के रूप में  याद किया जाता है। 
सिनेमाई मील का पत्थर ' मुग़ले आजम ' की बात  करते समय आज भी विशेषण कम पड़ते है।फिल्मों के  श्वेत श्याम युग में भव्य मुग़लकालीन दौर का अहसास दिलाना के. आसिफ के लिए आसान नहीं था। कल्पना को वास्तविकता में उतारने के लिए वास्तविक चीजों का ही  सहारा लिया गया था। शाही चरित्रों को पात्र की काया में उतारने के लिए दिल्ली मुंबई  के अनाम दर्जियों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। एम्ब्रॉयडरी और जरदोजी के सिद्धस्त दर्जियों को मुंबई लाया गया था जहाँ के. आसिफ ने अपने मार्गदर्शन में हरेक पात्र के कपडे डिज़ाइन कराये थे। जरी के काम के लिए सूरत के टेलर मास्टरों की मदद ली गई और सोने के धागों की कारीगरी हैदराबाद के सुनारों के योगदान से संभव हुई। 
तीन बार की ऑस्कर विजेता ब्रिटिश कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर सैंडी पॉवेल का मानना है कि किसी फिल्म के चरित्र को उभारने  में कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग खासा महत्वपूर्ण काम है। इस काम को पूर्णता के साथ अंजाम देने के लिए डिज़ाइनर को कम से कम तीन बार कहानी और पटकथा को पढ़ना जरुरी होता है। तब कही जाकर वह पात्रों के वास्तविक अक्स अपने मस्तिष्क में साकार कर पाता है। कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग के लिए हद से ज्यादा समर्पित सैंडी का कौशल विश्वस्तर पर सराही गई कई फिल्मों में झलकता है। भारतीय दर्शकों को भी लुभा चुकी ' शेक्सपीअर इन लव (1998) द एविएटर (2004) मेमोर्स ऑफ़ गीशा (2006) एवं ' द यंग विक्टोरिया (2009) उनकी उल्लेखनीय फिल्मे है। 
अक्सर स्क्रीन पर नजर आ रहा अभिनेता दर्शक के लिए जाना पहचाना होता है परन्तु अपने परिधान से वह दर्शक को तुरंत ही उस काल खंड में ले जाता है जिसके बारे में फिल्म बात कर रही होती है । उसके लुक  को फिल्म के कथानक के हिसाब से ' मोल्ड ' करने में मेकअप आर्टिस्ट के साथ कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर की रचनाशीलता का अपना महत्व  होता है। कॉस्ट्यूम न सिर्फ दर्शक को बताता कि अमुक चरित्र कौन है व किस काल का है , बल्कि अभिनेता को भी महसूस कराता है कि उसे धारण करने के बाद वह किस तरह पात्र को व्यक्त कर सकता है। इस विचार को पकड़कर भारतीय  सिनेमा को वैश्विक सरहद पर ले जाने वाली  भानु अथैया ने सौ से अधिक फिल्मों के लिए कॉस्ट्यूम डिज़ाइन किये है।  वे उन बिरले डिज़ाइनर में शामिल है जिन्हे शीर्ष निर्देशकों गुरुदत्त , राजकपूर , यश चोपड़ा ,आशुतोष गवारिकर, विधु विनोद चोपड़ा  व रिचर्ड एटेनबरो के मार्ग दर्शन में अपना हुनर तराशने का मौका मिला है। कहना न होगा भानु अथैया को  लगभग चार दशक पहले ' गांधी ' के लिए  मिला ऑस्कर भारतीय डिज़ाइनरो के लिए उत्साह जनक प्रेरणा बना हुआ है। एक अन्य  पीरियड फिल्म ' 1942 ए लव स्टोरी ' के लिए जितनी मेहनत सेट डिज़ाइन करने में की गई थी उतनी ही कवायद भानु ने  1942 के दौर में पात्रों के पहने जाने वाले कपड़ों के लिए भी की । विशेष रूप से मनीषा कोइराला द्वारा पहनी गई अधिकांश साड़ियां हाथ से बुनी गई थी।   
बॉलीवुड के ही एक और अग्रणी  नाम का जिक्र किये बगैर इस बात को खत्म नहीं किया जा सकता। ये नीता लुल्ला है। मुंबई में ही जन्मी और सोशल सर्किल का हिस्सा रही नीता के लिए कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग सबसे आसान काम रहा है। अबतक तीन सौ फिल्मों के लिए ड्रेस डिज़ाइन कर चुकी नीता के कौशल को सार्थकता तब मिली जब संजय लीला भंसाली की  ' देवदास ' के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरूस्कार से सम्मानित किया गया था । उनके लिए चुनौती भरा काम ' जोधा अकबर ' के रूप में सामने आया । यह फिल्म भी ' मुग़लेआजम ' की तरह भव्य थी। नीता ने ऐश्वर्या और ऋतिक रोशन के कॉस्ट्यूम डिज़ाइन करने के अलावा इस फिल्म में ऐश्वर्या द्वारा पहने गए गहने भी डिज़ाइन किये थे जो उनकी गहन शोध का परिणाम है।  इन्हे  देश के प्रसिद्ध ज्वेलरी ब्रांड के साथ मिलकर  डिज़ाइन किया गया  था। विवादों और प्रशंसा से सरोबार ' जोधा अकबर ' अपने गहनों के लिए आज भी सिफारिश की जाती है। 
अंग्रेजी के एक बड़े टीवी चैनल एच बी ओ द्वारा  प्रसारित भव्य धारावाहिक  ' गेम ऑफ़ थ्रोन ' को भारत में सर्वाधिक बार  पायरेटेड रूप से देखा और सराहा गया है। तीन महाद्वीपों में फैले कथानक और सैंकड़ों पात्रों से सज्जित इस कहानी के अधिकांश  मध्यकालीन कॉस्ट्यूम दिल्ली के पास नॉएडा में निर्मित किये गए है। फिल्मों से कही अधिक वीएफएक्स, अनूठे कॉस्ट्यूम और विशाल सेट्स की वजह से ' गेम ऑफ़ थ्रोन ' दुनिया भर में लोकप्रियता की हद पार कर गया है। हम भारतीय इस बात पर इतरा सकते है कि कही न कही हमारे कुछ अनाम कारीगर  भी इसकी सफलता का हिस्सा है। 
 कॉस्ट्यूम के महत्व को रेखांकित करता हॉलीवुड के वरिष्ठ डिज़ाइनर जेराड स्मिथ का कथन गौरतलब है कि ' एक डिज़ाइनर के काम का मतलब सिर्फ ध्यान आकर्षित करना नहीं होता वरन दर्शक को उस सम्पूर्ण प्रस्तुति का हिस्सा बनाना होता है जो उसके मस्तिष्क में ताउम्र के लिए दर्ज होने वाली है !

Thursday, March 14, 2019

कल्पना के रेशों में भविष्य के संकेत



ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष  के अनुसार इंसिडेंट ( घटना ) का मतलब -कुछ हो रहा है या कुछ हुआ है , है। घटनाए मनुष्य के साथ जुडी हुई है , एक तरह से वे जीवन का अंग बन चुकी है।  तमाम सावधानियों के बाद भी वे घटती रहती है। जिन घटनाओ के कारणों का समाधान मिल जाता है वे संदर्भो के रूप में इतिहास में जोड़ दी जाती है और जो अनसुलझी रह जाती है वे समय बीतने के बावजूद भी  शीतकाल की धुंध की तरह रहस्यमयी आवरण लपेटे रहती है। 
ठीक पांच वर्ष पूर्व मलेशिया एयरलाइन के जहाज एम् एच 370 का अपने 189 यात्रियों सहित अचानक से गुम हो जाना तकनीक के शिखर पर खड़े विश्व की असफलता का बिरला उदहारण है। ऐसी घटना जिसकी कल्पना सिर्फ आभासी दुनिया में ही संभव है - एक बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह बनकर आधुनिक विकास के दंभ को चुनौती दे रही है। 
                  दर्शनशास्त्र के विद्धानों का मानना है कि हमेशा से ही अनगिनत विचार हमारे आसपास के वातावरण में मौजूद रहे है।  मस्तिष्क की तरंगो की हद में आते ही ये विचार मनुष्य की कल्पना को जाग्रत करने का काम करते है। इन्ही विचारो को विस्तार देकर रचनात्मक माध्यमों से लेखन नाटक शिल्प जैसे अभिव्यक्ति के साधन  साकार होते है। सुनने में अजीब लग सकता है कि ' टाइटेनिक ' के दुर्घटना ग्रस्त होने के दो दशक पूर्व ही एक अंग्रेज पत्रकार डब्ल्यू टी स्टेड ने अपने काल्पनिक उपन्यास ' द सिंकिंग ऑफ़ मॉडर्न लाइनर (1886) में टाइटेनिक के साथ हुए हादसे और परिस्तिथियों का सटीक वर्णन कर दिया था। स्टेड के  उपन्यास में जहाज लिवरपुल से न्यूयोर्क के सफर पर ढाई हजार यात्रियों को लेकर रवाना होता है।  जहाज का वजन , लम्बाई चौड़ाई , लाइफ बोट्स की संख्या ,लगभग समान थी। 1898 में अमेरिकी लेखक मॉर्गन रॉबर्ट्सन का लिखा ' द रेक ऑफ़ द टाइटन ' और मॅकडॉनेल बेड किन के लिखे उपन्यास ' द शिप्स रन्स
(1908) ने जहाज की गति 22 नॉट बताई थी जो  एकदम सटीक थी।  इन तीनो ही कहानियों में जहाज उतरी अटलांटिक सागर में ही डूबता बताया था। डब्लु टी स्टेड ने तो एक तरह से अपने कहानी से अपनी नियति तय कर दी थी। 1912 में टाइटेनिक हादसे के शिकार मृतकों में उनका भी नाम था ! 
नाइजेरियन धर्मगुरु टी बी जोशुआ ने 2013 में भविष्यवाणी की कि एक एशियाई देश का विमान अपने यात्रियों के साथ गायब हो जाएगा। उस समय उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया गया।  शायद उनका इशारा एम् एच 370 की और ही था। आज भी यह पूरी तरह से स्पस्ट नहीं हुआ है कि  विमान में सवार  उन जिंदगियों का क्या हश्र हुआ है। विमानन नियमों के अनुसार जब तक किसी विमान का मलबा नहीं मिलता तबतक उसे गुमशुदा ही माना जाता है !
विकटतम परिस्तिथियों में भी जीवन की आस नहीं छोड़ना मनुष्य की बुनियादी प्रवृति है। इतिहास साक्षी है कि दुर्गम वातावरण में भी मानव जाति ने खुद को बचाए रखा है। मनुष्य की  इस जीवटता को केंद्र में रखकर रोबर्ट ज़ेमेकिस ने अदभुत फिल्म बनाई ' कास्ट अवे (2000) नायक थे टॉम हेंक। एक अकेले व्यक्ति के प्लेन क्रैश के बाद  एक वीरान द्धीप पर चार साल तक फंसे रहने और जीवित रहने के संघर्ष की यह प्रेरणा दायी कहानी भविष्य में होने वाली घटनाओ के पूर्वानुमान लगाने के लिए मानस तैयार कर देती है।कास्ट अवे ' सिर्फ अपने कथानक के लिए ही नहीं वरन अन्य बातों के लिए भी सराही जाती है। एक सौ तैतालिस मिनिट अवधि की इस फिल्म में आधे घंटे तक एक भी संवाद नहीं है। इस फिल्म का अंतिम द्रश्य  सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ दस द्रश्यों में शामिल किया गया है। 
 कास्ट अवे ' की भव्य सफलता ने इसी विषय पर टीवी धारावाहिक ' लोस्ट ' (2004 से 2010 ) का मार्ग प्रशस्त किया। स्क्रीन राइटर जेफ्री लाइबर फिल्मकार जैकब अब्राम और डेमोन लिंडेलोफ ने एक सुनसान द्धीप पर एक यात्री विमान के क्रैश होने  और बचे हुए यात्रियों की जद्दोजहद की काल्पनिक कहानी बुनी। अमेरिकी टेलीविज़न पर प्रसारित  इस धारावाहिक में अनोखी बात यह थी कि इसके हरेक पात्र की एक बैकस्टोरी थी जिसे ' फ़्लैश इन 'तकनीक से दर्शाया गया था। 
                        मनुष्य की कल्पना को ज्योतिष विज्ञान ने मान्यता नहीं दी है। परन्तु अघटित घटनाओ को फिल्मों के  विषय बनाना भविष्यवाणी करने जैसा ही है। 

Thursday, March 7, 2019

मनमौजी मिजाज का दर्शक !

एक अच्छी और लोकप्रिय फिल्म में क्या अंतर है ? अक्सर यह सवाल दर्शक के साथ फिल्म समीक्षकों को भी हैरान करता रहा है। अच्छी फिल्म को लोकप्रिय होना चाहिए परन्तु अमूमन होती नहीं है ठीक वैसे ही लोकप्रिय फिल्म एक बड़े दर्शक वर्ग को लुभा जाती है परन्तु समीक्षक उसे नकार चुके होते है। हाल ही में संपन्न हुए ऑस्कर समारोह के बाद ' बेस्ट फिल्म ' को लेकर भी प्रतिकूल टिप्पणियों ने ऑस्कर जूरी पर सवाल खड़े करना आरम्भ कर दिए है। इस वर्ष ' ग्रीन बुक ' ने इस श्रेणी में सम्मान पाया है परन्तु कयास ' रोमा ' के लगाए जा रहे थे। वैसे यह पहली बार नहीं हुआ है जब ऑस्कर इस तरह से विवादों में आया है। इस समारोह के शुरूआती दिनों से लेकर अब तक दस बार इस तरह की घटना हो चुकी है जब आम दर्शकों और सिने समीक्षकों की राय ऑस्कर जूरी से अलहदा रही है। 1941 में सिटीजन केन ' के बजाए ' हाउ ग्रीन वास् माय वेली ' चुनी गई थी। 2010 में फेसबुक के जनक मार्क जकरबर्ग के जीवन पर बनी ' द सोशल नेटवर्क ' को दरकिनार कर ' द किंग्स स्पीच ' विजेता घोषित की गई। इसी प्रकार प्रतिभाशाली क्रिस्टोफर नोलन की ' द डार्क नाईट ' के बदले ' स्लमडॉग मिलेनियर ' को नवाजा गया। इस जैसे  सैंकड़ों उदाहरण ऑस्कर के अलावा भी मौजूद है जब बेहतर फिल्मों को पार्श्व में धकेलकर औसत फिल्मों को मंच दिया गया। इस तरह से  यद्धपि अच्छी फिल्मों को तात्कालिक नुक्सान जरूर हुआ परन्तु देर से ही सही वे सराहना हासिल करने में सफल भी हुई और कालजयी भी साबित हुई।
 ऐसा नहीं है कि इस समस्या से सिर्फ हॉलीवुड ही ग्रस्त है , हमारा देसी सिनेमा भी इसी तरह के विकारों से ग्रसित रहा है। हमारे पुरुस्कारों के बारे में  बात करना इसलिए  बेमानी है क्योंकि सबको पता होता है कि किसको क्या मिलने वाला है ! यहाँ प्रतिभा के बजाए शक्ल देखकर तिलक लगाने का रिवाज रहा है। 
अच्छी फिल्मों को सराहना न  मिलने के एक से अधिक  कारण रहते रहे है। जो दीखता है वही बिकता है या शोर मचाकर कुछ भी बेचा जा सकता है के सिद्धांत फिल्मों की मार्केटिंग पर भी लागू होते है। निर्देशक का विज़न दर्शक से जुदा होना , कहानी का दर्शक के सर पर से निकल जाना , कथानक का मौजूदा समय या परिस्तिथियों से तार्किक सम्बन्ध न होना , दर्शक का सब्जेक्ट को लेकर परिपक्व न होना , नए विषय को सही ढंग से समझा न पाना या समय से आगे निकल जाने का दुस्साहस करना कुछ ऐसे कारण रहे है जो अच्छी फिल्मों को अपेक्षित सफलता नहीं दिला पाए है।
 
इस परिभाषा के दायरे में आने वाली बहुत सी फिल्मे राष्ट्रीय पुरुस्कारों से लादी गई व विदेशी फिल्मोत्सवों में देश के झंडे फहरा आई परन्तु घरेलु जमीन पर दर्शकों को सिनेमाघरों में नहीं खींच पाई। ज्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है , सन दो हजार से लेकर अब तक की फिल्मों को ही सूचिबद्ध किया जाए तो हमें अहसास होगा कि दर्शक कितने कीमती सिनेमाई माणिकों से वंचित रह गया है। रघु रोमियो (2003)  द ब्लू अम्ब्रेला (2005) 15 पार्क एवेन्यू (2005) मानसून वेडिंग (2001) मि एंड मिसेज अय्यर(2002) रेनकोट (2004) फंस गए रे ओबामा (2010) ऐसी ही फिल्मे है जो चलताऊ व्यावसायिक फिल्मों के सामने  असफल मानी गई है।परन्तु इनका कंटेंट इतना पावरफुल था कि संजीदा  दर्शक आज भी इन्हे यूट्यूब पर तलाशते नजर आजाते है। 
                 
    सौ करोड़ का आंकड़ा ' शब्द सफलता का पैमाना मान लिया गया है। एक सौ पांच करोड़ की लागत में बनी ' टोटल धमाल ' ने सौ करोड़ कमा लिए ! इस बात का इस तरह प्रचार किया जा रहा है मानो अनूठी घटना घट गई हो। कई बार दोहराये हुए कथानक पर आधारित उबाऊ कॉमेडी अगर अपनी लागत भी निकाल लेती है तो रूककर सोंचने की आवश्यकता है। दर्शकों के मिजाज पर सर्वेक्षण करने की जरुरत है। 

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...