Tuesday, November 27, 2018

This is not a review ....पीहू - यह समीक्षा नहीं है !

पिछले दिनों प्रदर्शित हुई फिल्म ' पीहू ' अपने धमाकेदार कथानक की वजह से  दर्शकों के एक बड़े वर्ग को अपनी और आकर्षित करने में सफल हुई। यद्धपि फिल्म में कोई व्यस्क एक्टर नहीं है परन्तु दो वर्ष की नन्ही लड़की मायरा विश्वकर्मा इस फिल्म की वास्तविक स्टार है। ' पीहू '  दरअसल हमारे बिखरते  पारिवारिक ताने बाने के खतरनाक परिणामों की झलक भर है। हम समय के जिस दौर से गुजर रहे है उसकी कठोर वास्तविकताओं का यह एक ट्रेलर भर  है। इस दौर के नए  माता पिताओ में अहम् को लेकर जो गलतफहमियां पनपती है उसके क्या परिणाम हो सकते है फिल्म इस बात को डरावने ढंग से दर्शाती है। माता पिता के बिगड़ते संबंधों का बड़े शहरों में बच्चों पर क्या असर होता और उन्हें किस बात का ध्यान रखना चाहिए जैसे संजीदा मसले पर चेतावनी देने का प्रयास करती है।  आमतौर पर भारतीय दर्शक इस तरह की फिल्मों के आदी नहीं है। दो साल की बच्ची एक दिन सुबह जागती है तो पाती है कि घर में कोई नहीं है।  उसकी माँ बिस्तर पर लेटी  हुई है।  नन्ही पीहू समझ नहीं पाती कि उसकी माँ ने आत्महत्या कर ली है। घर का सामान एक बच्चे के लिए कितना ख़तरनाक हो सकता है फिल्म इसे डिटेल में बताती है।  वाशिंग पाउडर , फिनाइल बोतल , घर की बालकनी की रेलिंग , पल पल पीहू को एक नए खतरे की तरफ  ले जाती है।   इस रोमांचक फिल्म में एक ' कल्ट फिल्म ' बनने के सभी तत्व मौजूद है। तीन महीने में चौंसठ घंटे की शूटिंग के बाद सौ मिनिट की फिल्म में बेहद तनाव और धड़कन बड़ा देने वाले  दृश्यों को शामिल किया गया है। पीहू को हॉलीवुड कॉमेडी  फिल्म ' होम अलोन ' का डरावना रूप भी कहा जा सकता  है। 
नैशनल अवार्ड विनर डॉक्यूमेंट्री ' कांट टेक धिस शिट एनिमोर ' और ' मिस तनकपुर हाजिर हो ' से पहचान बना चुके विनोद कापरी ने इस फिल्म को लिखने के साथ निर्देशित भी किया है। दो साल की बच्ची से अभिनय कराना बहुत ही चुनौती भरा काम है जिसमे वे एक हद तक सफल रहे है। अनूठे विषय पर फिल्म बनाकर दर्शकों को रोमांचित कर देने वाले फिल्मकारों को सफलता मिलनी ही चाहिए। पैतालीस लाख के बजट में बनी ' पीहू ' बॉक्स ऑफिस पर ढाई  करोड़ कमा चुकी है।फिल्म में कही भी हल्का फुल्का माहौल नहीं है। फिल्म देख रहा दर्शक निश्चित रूप से एक पालक भी होता है और  अकेली पीहू अगले पल कौनसा दुस्साहस कर बैठेगी सोंचकर ही उसका  मन कंपकंपा जाता है। कमजोर और भावुक लोगों के लिए यह फिल्म बिलकुल नहीं है। 


Tuesday, November 20, 2018

शादी : बरबादी या आबादी


सितारों की शादियां उनके प्रशंसकों के लिए अविस्मरणीय अनुभव होती  है।  रील लाइफ से रियल लाइफ में रोमांस घटित होना उन्हें  परियों की कहानियों की तरह रोमांचित कर जाता है। सात समुन्दर पार इटली में दीपिका संग रणवीर सिंह ने पुरे रस्मों रिवाज के साथ सात फेरे लिए है। सफलतम लोगों का विवाह आमजन के लिए भी कौतुक का विषय रहा है। इस जूनून को  भुनाने के लिए राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्र और टीवी चैनल जरुरी ख़बरों को दरकिनार करते हुए अपना कीमती स्पेस इस तरह के बहु प्रचारित  विवाह को  समर्पित करते रहे है। ये विवाह इस लिहाज से भी दिलचस्प होते है कि अमूमन दूल्हा  दुल्हन अपनी स्क्रीन इमेज से उलट जिंदगी जीते हुए अतीत में एक से अधिक नामों के साथ जुड़कर  चर्चित हो चुके होते है। उनके प्रशंसक सिर्फ यही दुआ कर सकते है कि यह विवाह सालों साल टिक जाय बस !
फ़िल्मी दुनिया की शादियां मनोवैज्ञानिकों और समाज शास्त्रियों के लिए अध्धयन का विषय होना चाहिये क्योंकि इनका लगाव और अलगाव सामान्य व्यक्ति के मनोभावों को प्रभावित करता रहा है। दर्शक अपनी पसंदीदा नायिका को लेकर विशेष संवेदनशील रहे है। अक्सर देखा गया है कि इस तरह विवाह असफल हो जाने पर नायक के कॅरिअर पर कम ही असर पड़ता है परन्तु नायिका का कॅरिअर तबाह हो जाता है। दुर्भाग्यवश  यह सामाजिक अंतर्विरोध भारत में ही देखने को मिलता है। बॉलीवुड के वैवाहिक इतिहास खंगालने  पर  कई  दिलचस्प बातें नजर आती है।
भारतीय सिने  इतिहास की पहली सुपर स्टार देविका रानी ने बीस वर्ष की उम्र में अपने से सोलह वर्ष बड़े हिमांशु राय से विवाह किया था। बारह वर्ष चला यह वैवाहिक जीवन हिमांशु राय की मृत्यु से ख़त्म हुआ था। देविका हिमांशु राय की लगभग सभी फिल्मों की नायिका रही थी। इस जोड़ी की अभिनीत ' कर्मा ' (1933) में फिल्माया गया चार मिनिट का  चुंबन दृश्य आज पिच्चासी वर्ष बाद भी दुनिया के सबसे लम्बे चुंबन दृश्य में शुमार किया जाता है। फिल्मों से रिटायर होने के बाद देविका रानी ने दूसरा विवाह रुसी चित्रकार स्वेतोस्लाव रोएरिक से किया था।  महज अड़तीस  वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कह देने वाली बहुआयामी प्रतिभाशाली अभिनेत्री मीना कुमारी ने अपने से उम्र में दुगने  बड़े कमाल अमरोही से अठारह वर्ष की उम्र में विवाह किया था जिसकी परिणीति तलाक में हुई थी। हिंदी सिनेमा की ' गॉडेस ऑफ़ वीनस ' और मर्लिन मोनरो का भारतीय संस्करण मधुबाला का वैवाहिक जीवन भी दुखद ही रहा था।  वे दिलीप कुमार से प्रेम करती थी परन्तु उनके पिता इस विवाह के सख्त खिलाफ थे चुनांचे उन्होंने अल्हड किशोर कुमार में सुकून तलाशना चाहा जहाँ उन्हें निराशा के अलावा कुछ नहीं मिला। दिल की मामूली बिमारी ने उन्हें छतीस बरस की उम्र में ही मौत का शिकार बना दिया था।सौंदर्य और प्रतिभा का संगम रेखा के विवाह को लेकर कई अफवाहे हर दौर में उड़ती रही थी। दिल्ली के व्यवसायी मुकेश अग्रवाल के साथ हुआ उनका विधिवत विवाह सिर्फ एक वर्ष में मुकेश अग्रवाल की आत्म ह्त्या से ख़त्म हुआ था। किरण कुमार , विनोद मेहरा से उनके तथाकथित विवाह के सबूत कभी सामने नहीं आये। अनुपम सौंदर्य , प्रतिभा और बेहतर अवसर के बावजूद इन  तीनों अभिनेत्रियां ( मीना कुमारी, मधुबाला और रेखा) का वैवाहिक जीवन असफल ही रहा था।
आज के दौर के अधिकांश सफल सितारों के विवाह आश्चर्यजनक रूप से अपनी मंजिल पर नहीं पहुँच पाये। नारीत्व सौंदर्य की मूर्ति मनीषा कोइराला अपने पति सम्राट दहल से फेसबुक पर मिली थी परन्तु मात्र दो वर्ष भी वे श्रीमती नहीं रह पाई और सम्राट से अलग हो गई। एक समय बच्चन बहु बनते बनते रही करिश्मा कपूर ने दिल्ली के व्यवसायी संजय कपूर से विवाह किया परन्तु  एक दशक साथ रहने के बाद अलग हो गई। ऋतिक रोशन -सुजैन खान को 14 वर्ष में समझ आया कि वे एक दूसरे के लिए नहीं बने है। सैफ अली अमृता सिंह तेरह  वर्ष साथ रहे , फरहान अख्तर अधाना के साथ पंद्रह वर्ष , पूजा भट्ट मनीष मखीजा ग्यारह वर्ष , आमिर खान रीना दत्ता पंद्रह वर्ष , कमल हासन सारिका ग्यारह वर्ष , कमल हासन वाणी गणपति दस वर्ष और कमल हासन गौतमी तेरह  वर्ष वैवाहिक जीवन जीने के बावजूद विवाह नाम की संस्था को समझ नहीं पाए। मलाइका अरोरा अरबाज को अठारह वर्ष बाद समझ आया कि उनका विवाह गलत था। इसी तरह कल्कि कोचलिन और अनुराग कश्यप चार वर्ष में ही साथ फेरों के बंधन से मुक्त हो गए।
इस तरह के असफल विवाहों की वजह से ही कुछ चर्चित विनोद पूर्ण कहावते अस्तित्व में आई है जैसे ' विवाह एक ऐसा पिंजरा है जिसमे बंद पंछी बाहर जाने को उतावले है और बाहर उन्मुक्त उड़ रहे अंदर जाने को।   

Friday, November 16, 2018

एक एक्टर एक फ़िल्म एक मील का पत्थर




 समय समय पर कुछ प्रयोगधर्मी फिल्मकार अपने क्राफ्ट से दर्शकों को चौकाने का प्रयास करते रहे है। दक्ष और अनुभवी कई फिल्मकारों ने इस तरह का जोखिम या तो अपने करियर की शुरुआत में ले ही  लिया था या तब जब उमके पाँव चिकनी सिनेमाई जमीन पर गहरे जम चुके थे। जरुरी नहीं है कि सारे नवीन प्रयोगों की शुरुआत हॉलीवुड से ही हुई हो। कुछ मील के पत्थर भारतीय फिल्मकारों ने भी स्थापित किये है किंतु उनके बारे में  भारतीय दर्शक कम ही  ही जानते है । ऐसा ही एक अनूठा प्रयोग एक्टर प्रोडूसर सुनील दत्त ने अपनी कई सफल फिल्मों के बाद किया था। ' मुझे जीने दो ' और  ' गुमराह ' की सफलता से लबरेज सुनील दत्त ने 1964 में ' यादे ' का निर्माण किया था। इस फिल्म के निर्देशक और अभिनेता भी वे खुद ही थे। इस फिल्म की विशेषता थी इसमें एक मात्र किरदार का होना। 100 मिनिट की इस फिल्म में सुनील दत्त ने एक ऐसे व्यक्ति की भूमिका निभाई थी जिसे घर आने पर पता चलता है कि उसका परिवार उसे छोड़कर जा चूका है। अपने एकालाप में वह खुद को तसल्ली दने की कोशिश करता है कि जल्द ही हालत सुधर जाएंगे और सब कुछ ठीक हो जाएगा। नायक के निराशा , पश्चाताप  और कुंठा के पलों को सुनील दत्त ने बखूबी जीवंत किया था।  ब्लैक एंड वाइट में बनी इस फिल्म में ध्वनि , प्रकाश और अँधेरे के संयोजन से मनोभावों का चित्रण उल्लेखनीय था। इस उपलब्धि के लिए उस वर्ष का फिल्म फेयर  सिनेमटोग्राफी अवार्ड और नेशनल अवार्ड ' यादें ' ने अर्जित किया था। चूँकि यह प्रयास मील का पत्थर था तो ' गिनिस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड ' का भी ध्यान इस तरफ जाना था। उपलब्धियों की इस वैश्विक किताब ने ' यादें ' को पहली इकलौती एक अभिनेता वाली फिल्म की  अपनी सूचि में शामिल कर सम्मानित किया। 
यादें ने दुनिया को फिल्मों की एक नयी श्रेणी और अनूठे फिल्म मेकिंग के तरीके से अवगत कराया था। इसकी प्रेरणा से हॉलीवुड ने भी विगत वर्षों में कई दिलचस्प और दर्शनीय ' एक पात्र ' वाली  फिल्मे निर्मित की है। हॉलीवुड  सिनेमाई इतिहास में सबसे लोकप्रिय और सफल फिल्मकार स्टीवन स्पीलबर्ग ने अपनी पहली   फिल्म ' डुएल ' (1971) इकलौते पात्र डेनिस वीवर की मदद से  बनाई थी। कैलिफ़ोर्निया की सुनसान घाटियों में नायक की कार एक दैत्याकार ट्रक से  कुचलने के प्रयास से अपने को बचाने की कवायद के कथानक पर आधारित थी। साठ के दशक में अपनी सुंदरता और अभिनय से वैश्विक लोकप्रियता हासिल कर चुकी ' इंग्रिड बर्गमन ' ने ' द ह्यूमन वॉइस (1966) में एक ऐसी महिला का किरदार निभाया था जिसका प्रेमी उसे विवाह के ठीक एक दिन पहले किसी अन्य महिला के लिए छोड़ देता है। मात्र इक्यावन मिनिट की टेलीविजन के लिए बनी फिल्म भावनाओ का ऐसा ज्वार निर्मित करती है जिसके साथ बहने से दर्शक खुद को रोक नहीं पाता। एक मात्र पात्र अभिनीत फ्रेंच फिल्म ' द मैन हु स्लीप (1974) किसी व्यक्ति का बाहरी दुनिया से क्षणे क्षणे दूर होते जाने की प्रक्रिया को विस्तार से चित्रित करती है। यधपि कुछ फिल्मों में एक से ज्यादा पात्र रहे है परन्तु पूरी फिल्म केंद्रीय पात्र के आस पास ही घूमती है।  रोबर्ट ज़ेमिकिस निर्देशित और टॉम हेंक अभिनीत ' कास्ट अवे (2000) ऐसी ही फिल्म है जिसका नायक निर्जन टापू पर फंसकर चार साल बिताता है। डेनी बॉयल निर्देशित '127 अवर (2010) आई एम् लीजेंड (2007) ग्रेविटी (2013 ) कुछ ऐसी फिल्मे है जिसमे दो तिहाई से ज्यादा समय तक कैमरा एक ही पात्र पर केंद्रित रहता है। 
2005 में कन्नड़ फिल्म  ' शांति ' गिनीस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल होने वाली दूसरी फिल्म बनी। बारागुरु रामचन्द्रप्पा लिखी और निर्देशित इस फिल्म की इकलौती किरदार कन्नड़ अभिनेत्री भावना थी। इकलौती कास्ट की श्रेणी में तमिल फिल्म ' कर्मा (2015) ने एक कदम आगे बढ़कर नया प्रयोग  किया। मर्डर मिस्ट्री के कथानक  और शानदार बैकग्राउंड संगीत की मदद से दर्शक को पलक भी न झपका देने को मजबूर कर देने वाली इस फिल्म का क्रेडिट सिर्फ एक लाइन का है। लेखक , निर्माता , निर्देशक और अभिनेता - आर अरविन्द। दो पात्रो के बीच घटित एक घंटे के वार्तालाप पर आधारित इस फिल्म को दूसरी बार देखने पर महसूस होता है कि एक ही अभिनेता ने दोनों भूमिका निभाई है। लगभग इसी तरह एक पात्र के इर्दगिर्द घूमती शुजीत सरकार की 2008 में निर्मित अमिताभ बच्चन अभिनीत   ' शूबाइट ' 2019 में दर्शको तक पहुँच सकती है। कानूनी विवादों में फंसी इस फिल्म का कथानक यूनिवर्सल अपील लिए है इसलिए समय का अवरोध इसके कथानक को बासी नहीं होने देगा।

Thursday, November 8, 2018

रोमांचक सफर पर ले जाती ' टाइम मशीन '


खबर हॉलीवुड से है।  ' टाइटेनिक ' फिल्म से दुनिया भर में पहचान बना चुके लेनार्डो डी कैप्रिया विख्यात साइंस कहानी  लेखक एच जी वेल्स के कालजयी उपन्यास ' टाइम मशीन ' पर फिल्म निर्माण कर रहे है। लेनार्डो इस फिल्म के माध्यम से खुद को एक फिल्म मेकर के रूप में प्रस्तुत करने जा रहे है।  फिल्म का निर्देशन मशहूर निर्देशक एंडी मशेती करेंगे। फिल्म कितनी बड़ी होगी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस फिल्म को हॉलीवुड के दो बड़े स्टूडियो , वार्नर ब्रदर्स और पैरामाउंट मिलकर बना रहे है। 
टाइम ट्रेवल सिनेमा के आगमन से पहले से ही जन समुदाय में उत्सुकता का सबब रहा है। ब्रिटिश विक्टोरियन युग में लिखे  गये   उपन्यास ' टाइम मशीन ' ने अनदेखे अनजाने भविष्य को लेकर जो कौतुहल जगाया था उसे सिनेमा को तो अपनी गिरफ्त में लेना ही था। टाइम  ट्रेवल पर जॉर्ज पाल द्वारा निर्मित पहली फिल्म ' टाइम मशीन ' 1960 में बनाई गई थी।  यह फिल्म एच जी वेल्स के उपन्यास का हूबहू सिनेमैटिक अवतार थी। ट्रिक फोटोग्राफी और स्टूडियो निर्मित भव्य सेट्स के अलावा इस फिल्म की एक और उल्लेखनीय विशेषता थी , इस फिल्म में एच जी वेल्स के पोते ने समय यात्रा पर जा रहे वैज्ञानिक के दोस्त की भूमिका निभाई थी। इस फिल्म के बाद जितनी भी फिल्मे और टीवी धारावाहिक इस विषय पर बने उनमे वेल्स को तो क्रेडिट दिया परन्तु कथानक में निर्माता ने अपनी कल्पनाशीलता का भरपूर उपयोग किया। अधिकांश अमेरिकी टीवी धारावाहिकों ने इस उपन्यास के तथ्यों और घटनाक्रम को विस्तार देकर घर बैठे दर्शक को भी टाइम ट्रेवल के रोमांच से सरोबार किया। 2010 में  ए बी सी चैनल पर प्रसारित लोकप्रिय धारावाहिक ' लॉस्ट ' का अंतिम छठा सीजन टाइम ट्रेवल पर ही केंद्रित रहा था। 
2002 में अमेरिकन और ब्रिटिश सहयोग से बनी गाय पियर्स अभिनीत  ' टाइम मशीन ' ने बॉक्स ऑफिस पर अपनी लागत का पंद्रह गुना धन कमाया परन्तु अपने कंप्यूटर जनित दृश्यों की भरमार और प्रेम कहानी के एंगेल की वजह से सिने  समीक्षकों और आलोचकों को प्रभावित नहीं कर सकी। एक दुर्घटनावश समय में आठ लाख वर्ष आगे निकल गए नायक के सामने कबीलाई युग में पहुँच गई  मानव सभ्यता को शिक्षित करने और नरभक्षी ' मार्लोक ' प्राणियों से मानव जाति को बचाने की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है फलस्वरूप उसकी टाइम मशीन नष्ट हो जाती है और वह भविष्य में ही  रह जाता है। 
  टाइम ट्रेवल पर रोबर्ट ज़ेमिकिस निर्देशित  हलकी फुल्की कॉमेडी  ' बैक टू द फ्यूचर ' विशेष उल्लेखनीय फिल्म है। 1985 में निर्मित इस फिल्म का हाई स्कूल का छात्र  नायक अपने बुजुर्ग इलेक्ट्रिक इंजीनियर  मित्र की कार में बैठकर तीस साल पीछे 1955 में चला जाता है। जहाँ उसकी मुलाक़ात हाई स्कूल में ही पढ़ रहे अपने माता पिता से होती है। फिल्म में 1955 का माहौल रचने के लिए  बारीक से बारीक बातों  का ध्यान रखा गया था।  ' बैक टू द फ्यूचर ' बहुत थोड़े बजट में बनी अमेरिका की सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्मों की सूची  में स्थान रखती है। इस फिल्म की छप्पर फाड़ सफलता ने  बैक टू द फ्यूचर 2 और  बैक टू द फ्यूचर 3 बनाने की राह आसान की थी। शेष दोनों  भाग भी काफी सफल रहे थे। 
 इस विषय पर हिंदी सिनेमा की हिचकिचाहट समझ नहीं आती। एक जैसे कथानक और एक  ढर्रे पर फिल्म बना रहे फिल्मकारों को काल यात्रा पर फिल्म बनाने का विचार क्यों नहीं आया , समझा जा सकता है। अधिकाँश लोग यह सोंचकर नए विषय को हाथ नहीं लगाते कि किसी और को प्रयास कर लेने दो अगर वह सफल हो गया तो हम भी कूद पड़ेंगे। 2010 में विपुल शाह ने अक्षय कुमार और ऐश्वर्या रॉय को लेकर ' एक्शन रीप्ले ' बनाई थी। बकवास स्क्रिप्ट और बेदम कहानी को सफल नहीं होना था और ऐसा ही हुआ भी। बस उसके बाद हिंदी सिनेमा में टाइम ट्रेवल की कोई बात नहीं करता। 
बॉलीवुड से इतर दक्षिण की क्षेत्रीय फिल्मों ने जरूर हॉलीवुड के सामने खड़े होने का साहस दिखाया है। तमिल , तेलुगु और कन्नड़ में पिछले  कुछ वर्षों में नए सब्जेक्ट पर शानदार फिल्मे बनी है। विडंबना यही है कि क्षेत्रीयता और भाषाई अवरोधों के कारण वे एक बड़े दर्शक वर्ग तक नहीं पहुँच पाती। 2015 में बनी तमिल फिल्म ' इन्द्रू नेत्रु नालाई ' टाइम ट्रेवल पर भारत में बनी मौलिक और बेहतरीन फिल्म है। इसी तरह मलयालम में सूर्या अभिनीत ' टाइम मशीन और कन्नड़ में अभिनेता अजित अभिनीत टाइम मशीन भी दर्शनीय फिल्मे है। 
भविष्य और अतीत की कांच की दीवारों के बीच वर्तमान फंसा हुआ है। न आप इधर जा सकते है न उधर। परन्तु  अपनी फंतासियों में मनुष्य ने इन दोनों ही अवरोधों को पार किया है और आभासी अनुभव का अहसास दिलाने में फिल्मे बड़ी मददगार साबित हुई है। 

आधुनिक ययाति बनाम मी टू

समय का एक दौर ऐसा भी था जब कला के  विभिन्न माध्यमों में महिलाओ की भागीदारी लगभग न के बराबर थी। नगण्यता के इस दौर को उन्नीसवीं शताब्दी के दो प्रमुख प्रतिभाशाली कलाकारों के काम को देखकर समझा जा  सकता है। ये कलाकार थे महान चित्रकार रवि वर्मा जिन्हे राजा रवि वर्मा के नाम से बेहतर जाना जाता है और दूसरे थे गोविंदराव फालके जो बाद में भारतीय सिनेमा के पितामह माने गए। उस दौर में सभ्य समाज की महिलाए अमूमन कला और रागरंग के अवसरों से  दूर ही रखी जाती थी। इन माध्यमों में उनका प्रवेश हेय नजरिये से देखा जाता था लिहाजा राजा रवि वर्मा को अपने चित्रों के मॉडल के लिए गणिका की सहायता लेना पड़ी और दादा साहेब को अपनी नायिका पात्रों के लिए पुरुषों की मदद लेना जरुरी हुआ। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि दादा साहेब फाल्के के सिनेमा के सपनो में रंग भरने के लिए स्वयं राजा रवि वर्मा ने वित्तीय मदद की थी। 
बदलते समय के साथ सामजिक दृष्टिकोण में भी बदलाव हुआ और महिलाए स्वतंत्र रूप से कला के सभी माध्यमों में हिस्सा लेने लगी।  कही कही पर तो उन्होंने पुरुषों को भी  दूसरे स्थान पर धकेल दिया है। आज सिर्फ महिला प्रधान फिल्मों की बात की जाए तो यह अपने आप में एक जॉनर बन चूका है। परन्तु महिलाओ की स्थिति और उन्हें लेकर बने द्रष्टिकोण में कोई विशेष बदलाव नहीं हुआ है। पुरुष समाज सैंकड़ों वर्षों से पितृसत्तात्मक मानसिकता से ग्रसित रहा है जिसे अब जाकर ' मी टू ' से चुनौती मिलने लगी है। बॉलीवुड में लम्बे समय तक ऐसी फिल्मे बनती रही जिसमे पुरुष की लंपटता और नायिका की सहनशीलता को केंद्र में रखा गया था। इन फिल्मों ने मुंबई से हजार किलोमीटर दूर बैठे दर्शक के अवचेतन में भी यह बात गहरे से उतार दी थी कि वे जो मर्जी आये कर सकते है और पीड़ित लोकलाज के भयवश अपना मुँह बंद रखेगी। परन्तु इस विचार को झटका तब लगा जब ' इंसाफ का तराजू ' की नायिका अपने दुष्कर्मी को मौत के घाट उतार देती है। इसी कड़ी में ' निकाह ' की नायिका अपने तलाक देने वाले शौहर के सामने सवालों की बौछार कर अपने व्यक्तित्व को सहेजती है। ये दोनों ही फिल्मे ' कल्ट ' फिल्मे मानी जाती है जिसकी वजह से उस दौर के समाज में एक जनचेतना बनने की शुरुआत हुई थी। संभवत इन फिल्मों का आईडिया हॉलीवुड फिल्म ' आई स्पिट ऑन योर ग्रेव ' के कथानक से आया होगा जिसके अब तक पांच रीमेक बन चुके है। पुरुष की लंपटता और कामुकता के प्रतिकार के  लिए हिंसा का सहारा भी लेना पड़े तो वह जायज माना जाना चाहिए।  ' आई स्पिट ऑन योर ग्रेव ' इसी बात को स्थापित करती है। 2016 में आई ' पिंक ' का बूढ़ा वकील अदालत में दलील देता है कि महिला की एक ' ना ' को ना ही मानकर पुरुष को अपने दायरे में सिमट जाना चाहिए उसकी ना को  उसके चालचलन और चरित्र से जोड़कर फायदा उठाना गलत ही माना जाएगा। 
अवाम को यह भी समझना होगा कि अगर महिलाए तय करले तो वे पुरुष समाज को बहिष्कृत भी कर सकती है । काफी पहले  आई अरुणा राजे की ' रिहाई ' प्रकाश झा की ' मृत्युदंड '  फरहान अख्तर की ' हनीमून ट्रेवल्स प्राइवेट लिमिटेड और अभी कुछ समय पहले प्रदर्शित श्रीजीत मुखर्जी की  ' बेगमजान ' अलंकृता श्रीवास्तव की ' लिपस्टिक अंडर बुरका '  ऐसी फिल्मे है जहाँ शोषित नायिकाएँ  प्रतिकार स्वरुप अपना रास्ता खुद चुन लेती है। इन फिल्मों का भले ही कोई तात्कालिक प्रभाव नजर नहीं आता हो परन्तु  दर्शक के अवचेतन में एक निशान जरूर छोड़ जाती है। 
अब ' मी टू ' के बाद  क्या हालत बनेगे कुछ उस पर भी विचार करने की जरुरत है। हो सकता है नियोक्ता अपने संस्थान में महिलाओ को काम देने से ही इंकार कर देवे कि क्या पता वह कल कोई आरोप लगाकर उनका चरित्र और व्यवसाय दोनों ही नष्ट कर देगी। यद्धपि इस तरह की आशंका करना थोडा जल्दबाजी भरा निर्णय होगा। परन्तु सोशल मीडिया पर इस सोंच  के समर्थन में विचारो का आदान प्रदान होने लगा है। और कब कौनसा विचार सामूहिक सोंच में बदल जाए , कहा नहीं जा सकता। 
 इधर मी टू - के हल्ले में उजागर चेहरे पूरी बेशर्मी के साथ अपने को बचाने की कवायद में जुट गए है। मानहानि के दावे और सामजिक दबाव बनाने की कवायद आरंभ हो गई है।   शायद इनमे से अधिकांश लोग अपने को बचने में सफल भी हो जाए क्योंकि बेहद खर्चीली न्याय व्यवस्था  और स्वयं को पीड़ित साबित करने  की जिम्मेदारी इन पीड़िताओं को ही उठानी है।  भारत जैसे देश में यह काम कितना दुरूह और जोखिम भरा है बताने की जरुरत नहीं है। महाभारत से सम्बंधित कहानियों में ' ययाति ' का जिक्र अक्सर होता है। साहित्य अकादमी से पुरुस्कृत विष्णु सखाराम खांडेकर रचित उपन्यास में ययाति के बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक का दिलचस्प वर्णन किया गया है कि किस प्रकार भोग विलास में आसक्त राजा अपने युवा पुत्र का यौवन उधार लेकर अपनी कामाग्नि को तुष्ट करता है। मौजूदा समय में हमारे आसपास ययाति के ही वंशज मंडराते नजर आ रहे है। इनके मुखोटे हर हाल में उतारना ही होगा अन्यथा दादा साहेब फाल्के और राजा रवि वर्मा ने जिस कठिनाई में अपना हुनर निखारा था  आज इक्कीसवी सदी में वैसे हालात न ही बने तो बेहतर होगा। पुरुषों को अपनी पितृसत्तात्मक सोंच बदलनी ही होगी। 

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...