Wednesday, July 25, 2018

सैराट की धड़क

ब्रिटिश  राइटर और कंपोजर एंथोनी बर्गेस ने कहीं  कहा था कि ' यह वाकई मजेदार है कि दुनिया के रंग हमें फिल्म के परदे पर वास्तविकता से  ज्यादा वास्तविक लगते है '। हमारे चारो और सामाजिक समस्याओ का अम्बार लगा हुआ है। रेडियो टेलीविजन और अखबार  ऐसी खबरों को घसीटकर  हमारे ड्राइंग  रूम में ला पटकते है परन्तु हमारी संवेदनाए नहीं जागती। लोग इन मसलों  पर तब तक कान नहीं देते जब तक इन्हे किसी किताब की शक्ल में गूँथ न दिया जाये या फिल्म में न बदल दिया जाये।  परन्तु किसी फिल्म पर  ' रियल लाइफ स्टोरी ' या ' सत्य  घटना पर आधारित ' का टैग समाज को  आंदोलित कर जाता है। 2016 में आई मराठी फिल्म ' सैराट ' देखकर लोगों को  ' ऑनर किलिंग '  की हैवानियत का अंदाजा हुआ जबकि अमूमन हर तीसरे दिन देश के किसी न किसी हिस्से में ऊँची / नीची  जात के बहाने कोई युवा प्रेमी जोड़ा अपनी जान गँवा रहा है। इस फिल्म ने दर्शकों को कुछ इस तरह आंदोलित किया कि महज एक हफ्ते में यह फिल्म राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन गई और फिल्मफेयर व  रास्ट्रीय पुरुस्कारों से भी नवाजी गई।  
कुछ पटकथाए इतनी मासूम और सच्ची होती है कि उन्हें निभाने वाले और उससे जुड़े  लोग  भी उसके सकारात्मक प्रभावों से बच नहीं पाते। यधपि वे सिर्फ कुछ समय के लिए   ही उस चरित्र में उतरते है परन्तु लम्बे समय के लिए विनम्र हो जाते है। सैराट के चार रीमेक बन चुके है। हालिया हिंदी  रिलीज ' धड़क ' इस क्रम में पांचवी फिल्म है। सैराट अन्य फिल्मों की तरह ' पहले प्यार ' की स्लो मोशन झलकियों से भरपूर है लेकिन शेष फिल्मों से अलग करती है इसकी सादगी में सुंदरता। सैराट वर्तमान की सच्चाई को कुछ इस तरह से प्रस्तुत करती है मानो मरीज को  कड़वी दवाई  शहद का लेप लगाकर खिलाई जा रही हो।  इस फिल्म के लेखक निर्देशक नागराज मंजुले को बात करते हुए सुनिये। पहली ही फिल्म से देश के चोटी के फिल्मकारों की जमात में खड़े हो जाने और तूफानी सफलता के बाद भी उन्हें नहीं लगता है कि उन्होंने कोई बहुत बड़ा तीर मारा है। और यह भी  तब जब महानायक अमिताभ बच्चन ने  उनसे उनके लिए एक पटकथा लिखने को कहा है।   फिल्म की नायिका जाह्नवी कपूर से अनुपमा चोपड़ा ने अपने वेब पोर्टल के इंटरव्यू में पूछा  कि फिल्म की रिलीज के पूर्व ही ट्विटर पर उन्हें लाखों लोग फॉलो कर रहे है तो क्या इसे फिल्म की सफलता के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए ? जाह्नवी का शालीन  जवाब था ' ये लोग मेरे प्रशंसक सिर्फ मेरे पेरेंट्स ( श्रीदेवी , बोनी कपूर ) की वजह से है , मुझे खुद को साबित करना बाकी है ! इसी तरह  सादगी का एक उदाहरण फिल्म ' गांधी ' से भी जुड़ा हुआ है। बेन किंग्सले का  जब महात्मा गांधी की भूमिका के लिए चयन हुआ तो आश्चर्यजनक रूप से उनकी मांसाहार और शराब की दिलचस्पी ख़त्म हो गई थी। चरित्र का किरदार पर हावी हो जाने  का यह बिरला उदाहरण था।  
सैराट से लेकर धड़क तक का सफर एक अच्छी कहानी के  महत्व को  दर्शाता है वही फिल्म जगत में मौलिक कहानियों  के लंबे समय से चल रहे अकाल की पुष्टि भी करता है। सफल फिल्मों के रीमेक बनना अच्छी बात है परन्तु इस तरह का ट्रेंड बन जाना सफल फिल्मकारों के चूक जाने का संकेत भी माना जा सकता है। 
 सैराट की तरह कुछ कालजयी विदेशी फिल्मों पर भी दुनिया भर के  फिल्मकार इस कदर आसक्त रहे  है कि उनके प्रदर्शन के पचास पचहत्तर  वर्ष बाद आज  भी उनके कथानक से प्रेरित फिल्मे बनाई जा रही है। प्रसिद्ध जापानी फिल्मकार ' अकीरा कुरोसावा ' की निर्देशित ' सेवन समुराई (1954 ) और फ्रांसिस फोर्ड कोपोला की ' गॉडफादर (1972 ) उन उल्लेखनीय फिल्मों में शामिल है जिन्हे लगभग दुनिया की हर भाषा में रीमेक किया गया है। फिल्मकारों को यह तथ्य अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अच्छे भोजन की रेसिपी की तरह किसी फिल्म के कथानक को दोहराने मात्र से सौ फीसदी  सफलता के ख़याली पुलाव पकने की निश्चिंतता होती तो ' मौलिकता ' जीवन और फिल्मों से कब की लुप्त हो गई होती । 

Wednesday, July 18, 2018

एक औऱ गांधी

कुछ तारीखे अगर किसी महत्वपूर्ण शख्सियत से न जुड़े तो वे फिर सिर्फ एक अंक भर रह जाती है। ऐसी ही एक तारीख है अठारह जुलाई  जो इतिहास में सिर्फ नेल्सन मंडेला की वजह से अहम् हो गई। आज ही के दिन ठीक सौ वर्ष पूर्व इस महा मानव ने जन्म लिया था। काफी बाद में ' दक्षिण अफ्रीका के गांधी ' के नाम से लोकप्रिय हुए मंडेला ने अपनी जीवटता और महात्मा गांधी के सिद्धांतो पर चलकर नस्लवादी  ब्रिटिश साम्राज्य को घुटनो पर ला दिया था। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के जुझारू कार्यकर्ता की हैसियत से अपना राजनीतिक जीवन आरम्भ करने वाले युवा मंडेला शुरुआत में अहिंसा के सिद्धांत के खासे विरोधी थे। षड्यंत्र और सत्ता विरोधी हिंसक गतिविधियों के चलते उन्हें जीवन के सत्ताईस बरस जेल में गुजारना पड़े।  यही पुस्तकों के माध्यम से उन्हें गांधीजी के आदर्शो की जानकारी मिली। यह भी विचित्र संयोग ही है कि गांधीजी ने अपने राजनीतिक जीवन का ककहरा दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद और नस्लवाद का विरोध करते हुए ही सीखा था। बेरिस्टर गांधी अपने जीवन के इक्कीस वर्ष दक्षिण अफ्रीका में बिता कर जब भारत लौट रहे थे तब नेल्सन मंडेला की उम्र महज चार वर्ष थी। यह गांधी जी की दूरदृस्टि थी कि उन्होंने अपने  बिदाई भाषण में कहा था कि मेरे अधूरे कामों को इसी देश का कोई नागरिक पूर्ण करेगा। मंडेला ने यह सच कर दिखाया।  एक कैदी से राष्ट्रपति बनने के सफर की रोमांचक कहानियों को शब्द मिले और शब्दों को  सिनेमा का पर्दा भी मिला। नेल्सन मंडेला इतिहास की कुछ ऐसी हस्तियों में शामिल है जिन्हे सिर्फ एक फिल्म के माध्यम से नहीं समेटा जा सकता है। कभी वे शेक्सपीअर के शाही किरदारों की तरह कविताई शैली में भाषण देते नजर आते है तो कभी आग उगलते राजनेता की तरह, कभी विद्रोही , कभी शांति के पुरोधा तो कभी अश्वेतों के तारण हार । किसी भी अभिनेता के लिए जीवन के इतने विभिन्न और दुरूह रेशों को एक साथ पकड् पाना मुश्किल रहा है। इसलिए मंडेला पर बनी अधिकांश फिल्मे उनके जीवन के कुछ भावों तक ही सिमित रही है।  


अंदर तक उतरने वाली आवाज , विनम्र रहस्य्मयी मुस्कान , एक बुजुर्ग की चहलकदमी - कभी बगीचे में , कभी अपने राष्ट्रपति कार्यालय में , कभी जेल कम्पाउंड में ,कभी गूढ़ रूप से विनम्र , धमकाते हुए ,सहयोगियों और विरोधियों को आश्चर्यचकित करते हुए - कई अभिनेताओं ने नेल्सन मंडेला के  आलिशान जीवन के इन कई  पलों को अलग अलग फिल्मों  में  परदे पर जीवंत किया है। मॉर्गन फ्रीमेन , डेविड हस्बेर्ट ,डेविड हारवुड ,टेर्रेंस होवार्ड , डेविड ग्लोवर , सिडनी पोइटर , क्लार्क पीटर , इदरीस अल्बा और लिंडन एनकोसी जैसे हॉलीवुड और दक्षिण अफ़्रीकी अभिनेताओं ने इस दुरूह पात्र को निभाने का प्रयास किया है। मंडेला के जीवन पर बनी अनेक फिल्मों में से मॉर्गन फ्रीमैन अभिनीत व क्लिंट ईस्टवूड द्वारा निर्मित ' इन्विक्टस (2009 ) और इदरीस अल्बा अभिनीत ' द लॉग वाक टू फ्रीडम (2013 ) ज्यादा विश्वनीय बायोपिक मानी जाती है। अधिकांश फिल्म समीक्षकों का मानना है कि अस्सी के दशक के बाद मंडेला पर बनी फिल्मों के नायक रिचर्ड एटेनबरो की क्लासिक ' गांधी (1983 ) के नायक बेन किंग्सले के अभिनय के पास पहुँचने की कोशिश करते नजर आते है। मंडेला पर बनी कुछ फिल्मे और टीवी धारावाहिक विवादास्पद भी रहे है। सिर्फ कारावास के वर्षों पर आधारित डेनिस हस्बेर्ट अभिनीत ' गुडबाय कलर ऑफ़ फ्रीडम (2007 ) मंडेला और उनके श्वेत पहरेदारो के दोस्ताना चित्रण की वजह से विवादित हो गई थी। मंडेला की प्रेमिका और बाद में जीवन संगिनी बनी विनी मंडेला के संबंधों पर भी एक टीवी फिल्म ब्रिटेन में रिलीज़ की जा चुकी है। 

Friday, July 13, 2018

खामोश फिल्म मेकर : विधु विनोद चोपड़ा

' संजू ' की घनघोर सफलता ने फिल्म के निर्माता विधु विनोद चोपड़ा के ताज में सफलता का एक पंख और सजा  दिया है। विधु न केवल आज  भारत के सफलतम प्रोड्यूसर है वरन बेहतरीन निर्देशकों में भी अपना एक अलग मुकाम रखते है। किसी भी फिल्मकार के लिए खुद को साबित करना और सफलता का क्रम बनाये रखना आसान नहीं होता क्योंकि उसे खुद को तराशने के इतने अवसर नहीं मिलते जितने किसी एक्टर को मिलते है। ऐसे ही चुनिंदा अवसरों को यादगार मील के पत्थरों में बदल देना उसे ' जीनियस ' की श्रेणी में ला खड़ा करता है। श्रीनगर में जन्मे और अंग्रेजी का शून्य ज्ञान लेकर फिल्म निर्माण सिखने पुणे इंस्टिट्यूट पहुंचे विधु ने ऋत्विक घटक से सिर्फ इस बात के लिए थप्पड़ खाया था कि वे तब तक शेक्सपीअर के बारे में कुछ नहीं जानते थे। उनकी विलक्षणता का पहला प्रमाण तब मिला जब पुणे के अंतिम वर्ष में प्रोजेक्ट के लिए बनाई उनकी  डॉक्यूमेंट्री ' एन  एनकाउंटर  विथ फेसेस ' ऑस्कर के लिए नामांकित हो गई। अमेरिकन राइटर , डायरेक्टर , एक्टर क्वेंटिन टैरेंटीनो से आप उम्मीद नहीं कर सकते कि वे कोई बॉलिवुड फिल्म भारत आकर बना लेंगे परन्तु विधु विनोद से ऐसी आशा की जा सकती है। फिल्म माध्यम को लेकर जुनूनी हद तक समर्पित इस फिल्मकार ने 2015 में हॉलीवुड जाकर सौ फीसदी  अमेरिकन फिल्म ' ब्रोकन  होर्सेस ' बना दी थी। 
सफलता के शिखर पर खड़े विधु का शुरूआती सफर  इतना आसान नहीं रहा है लेकिन उनकी जीवटता कइयों के लिए प्रेरणा बन सकती है। सन पिच्चासी का बरस हिंदी सिनेमा  में  कई नए चेहरों को स्थापित कर रहा था।  ' बेताब ' से शुरुआत करने वाले सनी देओल के पैर ' अर्जुन ' ने मजबूती से जमा दिए थे। अनिल कपूर '  वो सात दिन ' जैसी  यादगार भूमिका के बाद ' साहेब ' और ' मेरी जंग ' से नई ऊंचाइयो को छूने जा रहे थे। मिथुन चक्रवर्ती ' डिस्को डांसर ' से मिली सफलता को ' प्यार झुकता नहीं ' और  ' ग़ुलामी ' तक दोहरा रहे थे। जमे जकड़े अमिताभ ( मर्द , गिरफ्तार ) राजेशखन्ना ( आखिर क्यों , बेवफाई ) आदि  की फिल्मे सिनेमाघरों पर ' हॉउसफुल ' की तख्तियां टांग रही थी। ऐसे में एक अनजान से निर्माता निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा  की  फिल्म ' खामोश ' का पोस्टर बम्बई के रीगल सिनेमा पर लगा नजर आया। यह फिल्म एक बरस पहले बन चुकी थी परन्तु इसे कोई खरीदने को तैयार नहीं था। वजह यह उस दौर में आ रही कहानियों से ठीक उलट थी। रीगल के मालिक को टिकिट बिक्री का चालीस प्रतिशत देने के आश्वासन पर फिल्म रिलीज करने के लिए मनाया गया।   निर्माता खुद इतने तंगहाल थे कि वे इस फिल्म के  सिर्फ एक प्रिंट का खर्चा भी ब मुश्किल उठा पाए थे। विधु , की पत्नी रेनू सलूजा , सहायक बिनोद प्रधान , दोस्त और एक्टर सुधीर मिश्रा दीवारों पर ' खामोश ' के  पोस्टर चिपका रहे थे। रिलीज पर होने वाला धूम धड़ाका भी संभव नहीं था क्योंकि कोई भी नामी गिरामी हस्ती फिल्म देखने नहीं पहुंची थी। रात के शो में कही से घूमते घामते अनिल कपूर रीगल पहुँच गए। अनिल का यूँ इस तरह  आना अगले दिन के अखबारों की खबर बन गया। शायद ' खामोश ' को इतनी ही पब्लिसिटी की जरुरत थी। फिल्म चली और कई हफ्तों तक चली। फिल्म में कोई स्टार नहीं था सिर्फ एक्टर थे। आज के सारे चर्चित नाम इस फिल्म में थे। पंकज कपूर , नसीरुद्दीन शाह , शबाना आजमी , सोनी राजदान , सुषमा सेठ , अजित वाच्छानी , सदाशिव अमरापुरकर  ये लोग तब तक इतने जाने पहचाने नहीं थे।  सिर्फ फिल्म के नायक अमोल पालेकर और शबाना आजमी को ही दर्शक पहले भी देख चुके थे। फिल्म की यूएसपी थी सधी हुई  स्क्रिप्ट , बेहतरीन कैमरा वर्क और लाजवाब एडिटिंग। एक तरह से यह फिल्म  अपने  समय से आगे की फिल्म थी। निर्देशन इतना सधा हुआ था कि क्लाइमेक्स तक दर्शक सस्पेंस में ही उलझा रहता है। फिल्म के शुरुआत में आने वाले क्रेडिट में सिर्फ फिल्म के तकनीशियनों के नाम थे।   सिर्फ आठ लाख  में बनी इस फिल्म ने अपनी लागत तो नहीं निकाली परन्तु अपने अनूठेपन की वजह से आज भी याद की जाती है। अपनी पहली फिल्म से लेकर आज तक अलग अलग सब्जेक्ट पर  साफ़ सुथरी फिल्मे बनाकर एक मुकाम बना चुके विधु ने अपने  संघर्ष के दिनों से बहुत कुछ सीखा है। कई  सितारों  के लिए उनका स्पर्श पारस साबित हुआ है। अपनी चमक खो चुके संजय दत्त के लिए ' मुन्ना भाई ' सीरीज ,  संगीत में लगभग ख़ारिज कर दिए गए आर डी बर्मन के लिए  1942 ए लव स्टोरी , आमिर खान के लिए नई ऊंचाइयां ( 3 इडियट्स , पीके ) लगभग लड़खड़ाते रनवीर के कैरियर के  लिए हालिया ' संजू ' टर्निंग पॉइंट साबित हुई है। कोई आश्चर्य नहीं कि इतनी खूबियों की वजह से  उनका बेनर  ' विनोद चोपड़ा फिल्म्स ' देश के चार बड़े प्रोडक्शन हाउस में गिना जाता है। 
rajneesh jain 

Tuesday, July 3, 2018

संजय की कहानी !

किसी फिल्म की सार्थकता इसी में है कि वह जनचर्चा बन जाये , चाय के अड्डों पर लोग उसका जिक्र करे ,अखबारों में उस पर लेख लिखे जाए , सोशल मीडिया कुछ देर के लिए पोलिटिकल तंज और कटाक्षों को परे रख इस फिल्म के किरदारों की अभिनय क्षमता पर बहस करने लगे तो सीधा सा मतलब है कि लेखक ( अभिजात जोशी ) और निर्देशक ( राजकुमार हिरानी ) का प्रयास सफल रहा है। 
 ' संजू ' पहला बायोपिक नहीं है। न ही संजय दत्त आदर्श पुरुष है। परन्तु इस फिल्म के फ्लोर पर आने से लेकर प्रदर्शन तक जितनी हवा बनी उतनी शायद ही किसी अन्य बायोपिक को लेकर बनी है। ' संजू ' ऐसी बायोपिक जरूर है जो भारतीय दर्शक के बदलते रुख को पुरजोर तरीके से रेखांकित करती नजर आती है। विगत तीन वर्षों में बॉलीवुड छब्बीस बायोपिक रीलिज कर चूका है। इसी वर्ष संजू के साथ यह आंकड़ा दस फिल्मो पर पहुँच गया है। इस जॉनर में लगातार फिल्मे बनना सिद्ध करता है कि दर्शक फंतासी और पलायनवादी सिनेमा के साथ  वास्तविक जीवन और घटनाओ पर फिल्मों में भी दिलचस्पी लेने लगा है। दर्शक के मानसिक स्तर की परिपक्वता के लिहाज से यह संकेत सुखद है। 
अभिनेता संजय दत्त के जीवन के कुछ ज्ञात और कुछ अनसुने लम्हों को परदे पर देखने के बाद संभव है कि उनके बहुत से प्रशंसक उनसे दुरी बना सकते है। जो व्यक्ति अस्पताल में भर्ती अपनी माँ के वार्ड में नशाखोरी कर सकता है , अपने शालीन और सामाजिक पिता को मुसीबतों में डाल  सकता है , अपनी बे लगाम यौन गतिविधियों का ढिंढोरा पीटकर अपनी बहनो को शर्मिंदगी में डाल सकता है , अपनी प्रेमिकाओ की संख्या को लेकर डींग भर सकता है वह सहानुभूति का पात्र तो हो ही नहीं सकता। संजय दत्त का सेंतीस साला कैरियर भले ही उन्हें ' नायक ' की श्रेणी में रखता हो परन्तु उनका चाल चलन सामान्य व्यक्ति के इर्द गिर्द भी नहीं पहुँचता है। 
कुछ समय पहले नेशनल अवार्ड विजेता फिल्मकार हंसल मेहता ने आपातकाल के सूत्रधार  संजय गांधी पर बायोपिक बनाने की घोषणा की है। उन्होंने ' आउटलुक ' पत्रिका के पूर्व संपादक स्व विनोद मेहता की पुस्तक ' द संजय स्टोरी ' के अधिकार ख़रीदे है। द संजय स्टोरी ' संजय गांधी के चौतीस वर्षीय जीवन का सटीक और तथ्यात्मक ब्यौरा है।  इसे शोधग्रंथ कहना ज्यादा उपयुक्त है क्योंकि श्री मेहता ने संजय गांधी के संपर्क में आए अधिकांश लोगों से मुलाक़ात कर सिलसिलेवार तथ्य जुटाए है। अगर यह फिल्म सिनेमाघर का मुँह देखती है तो कई जीवित और मृत नामचीन हस्तियों के चेहरे पर से नकाब हटा देगी। फिलवक्त हंसल इस फिल्म की पटकथा पर काम कर रहे है। इस फिल्म का बनना ' संजू ' की तरह आसान नहीं होगा।  संजय दत्त ने अपने को उजागर करने का जैसा जोखिम उठाया है वैसा शायद मरहूम संजय गांधी की पत्नी  श्रीमती  मेनका और पुत्र वरुण गांधी न उठा पाए। 
लेख के आरम्भ में मेने भारतीय दर्शकों के बदलते स्वाद का जिक्र किया था। परन्तु यह इतना परिपक्व भी नहीं हुआ कि हॉलीवुड की कालजयी ' आल द प्रेसिडेंट मेन ' या  'जेएफके ' जैसी कठोर वास्तविकताओं को झेल जाए। न ही  हमारे राजनेता इतने सहिष्णु हुए है जो सच को आसानी से पचा जाये। 

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...