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कभी कभी ऐसा लगता है मानो टीवी और बड़े परदे की दुनिया समय के दो अलग अलग छोर पर खड़ी है। फिल्मों की बढ़ती लागत ने कहानियो के हॉलिवुड से आयात का शॉर्टकट सुझाया वही टीवी ने ऐसे परिवार के दर्शन कराये जो वास्तविकता से कोंसो दूर था। रंग बिरंगे कपड़ों में लिपटे , नफरत और षड्यंत्र से भरे , करोड़ों की बात करने वाले पात्र पता नहीं भारत के किस हिस्से में पाए जाते है , लगभग हरेक मनोरंजन चैनल पर नुमाया होते है। यहां टीवी धारावाहिकों में परिवार तो है परन्तु नकारात्मकता , अंधविश्वास , और पुरातन ख्यालों से भरा हुआ है । ये शो इस बात का सन्देश देते नजर आते है कि संयुक्त परिवार झगडे की जड़ है।
इस समय देश पर्यावरण , पानी और पेड़ बचाने की जद्दोजहद में लगा है। इस अभियान में ' परिवार ' को भी शामिल कर लिया जाना चाहिए। महानगरीय जीवन शैली , घटती मृत्यु दर और स्वास्थ के प्रति जागरूकता ने भारतियों को लम्बी उम्र का विकल्प सुझाया है। लम्बी उम्र का फायदा तभी है जब परिवार साथ हो अन्यथा बहुसंख्यक चीनी और जापानी बुजुर्ग नागरिकों की तरह एकाकी जीवन का बोझा इस समय की युवा पीढ़ी को अपने संध्याकाल में भुगतना होगा। इन दोनों ही देशो में अकेले रह रहे बुजुर्गो की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है । भारत के संयुक्त परिवारों का कम होते जाना और एकल परिवार का बढ़ते जाना हमे उसी अवस्था तक पहुंचने का संकेत दे रहा है । फिल्मे हमे पुनः संयुक्त परिवार की और लौटने के लिये प्रेरित कर सकती है या परिवार का महत्व बेहतर तरीके से समझा सकती है ।
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