कोई भी विचार हवा की तरह होता है। मुक्त , मुफ्त , सबके लिए और अनमोल भी। विचार कभी किसी की मिलकियत नहीं रहा। महावीर ने जो कुछ अपने उपदेशों में कहा ओशो ने उन्हें अपने प्रवचनों में दोहरा दिया। बुद्ध और कृष्ण के साथ भी उन्होंने यही किया। सबसे बढ़िया बात जो उन्होंने कही वह यह कि ये मेरे अपने विचार नहीं है। मेने इनकी मीमांसा अपने शब्दों में की है। विचार हमें मीरा के गीतों से भी मिल सकते है और कबीर के दोहों से भी। उन्मुक्त आकाश में भला हवा को बाँधा जा सकता है क्या ? उसी तरह विचार मात्र को भी बौद्धिक संपदा के दायरे में नहीं लाया जा सकता। विचार से कोई रचना बन जाए तो वह जरूर किसी की निजी सम्पति होगी। कोरा विचार स्वतंत्र है।
अस्सी के दशक तक जब मीडिया इतना उन्नत नहीं हुआ था तब हॉलीवुड की फिल्मे भारतीय दर्शकों तक बरसों में पहुँचती थी , और वह भी सीमित दायरे में। उस दौर में उनकी हूबहू नक़ल आसान काम हुआ करती थी। यह वह दौर था जब कॉपीराइट और इंटेलेचुअल प्रॉपर्टी की बात भी कोई नहीं करता था। लॉस एंजेलेस में बैठा किसी हिट हॉलीवुड फिल्म का निर्माता कभी यह नहीं जान पाता था कि उसकी मेहनत और मौलिकता को 'प्रेरणा ' बताकर बम्बई का फिल्मकार माल कूट रहा है। संवाद दर संवाद और दृश्य दर दृश्य नक़ल मारने का पता भी आसानी से नहीं लगता था। वर्षों तक सफलता के शिखर पर बैठे और अब रिटायर होने की कगार पर खड़े कई निर्माता निर्देशक इस खेल के पारंगत खिलाड़ी रह चुके है। 1976 में ऋषिकेश मुखर्जी की संजीव कुमार अभिनीत फिल्म ' अर्जुन पंडित ' में कॉमेडियन देवेन वर्मा ने ऐसे ही फ़िल्मी लेखक का पात्र निभाया था जो अंग्रेजी उपन्यासों से कहानी चुराकर हिंदी में लिखता है।
फिल्म इंडस्ट्री में सफलता का प्रतिशत कभी भी दस पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा नहीं रहा है। किसी कहानी के चलने या नकार दिए जाने की शर्तिया ग्यारंटी कोई नहीं ले सकता। किसी और उद्योग से ज्यादा जोखिम छवियों की इस दुनिया में सदा से रहा है। चुनांचे फिल्मकार सफलता का शॉर्टकट चुनते है - रिमेक ! दस बीस बरस पुरानी या क्षेत्रीय भाषा की नवीनतम सफल फिल्म के अधिकार खरीद कर उसे नई स्टार कास्ट के साथ बनाया जाता है। न तो मौलिकता के लिए सर खपाना पड़ता है न ही नई कहानी के चलने ना चलने की दुविधा से दो चार होना पड़ता है।
जब से फिल्मों के विधिवत अधिकार खरीद कर ' रिमेक ' बनाने का प्रचलन चला है तब से अब तक के आंकड़े दिलचस्प कहानी बयान करते है। ये आंकड़े यह भी बताते है कि दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्मे प्रदर्शित करने वाला देश नई कहानी से कितना कंगाल है। अब तक तमिल की 406 फिल्मे रिमेक के नाम पर दूसरी भाषा में बन चुकी है। इसके बाद 272 तेलुगु फिल्मे है जिन्हे हिंदी के अलावा अन्य भाषा में बनाया जा चूका है। हिंदी की 198 फिल्मों ने भी क्षेत्रीय फिल्मकारों को प्रभावित किया है और वे अन्य भारतीय भाषा में नया जन्म ले चुकी है। मलयालम की 175 , कन्नड़ की 109 ,बंगाली की 15 , मराठी की 16 फिल्मो के रिमेक अब तक प्रदर्शित हो चुके है। शरत चंद्र चटर्जी के काल्पनिक पात्र ' देवदास ' को अब तक 16 बार अलग अलग भाषाओ में सिनेमा के परदे पर लड़खड़ाते देखा जा चूका है। इस आकलन में हिंदी से हिंदी में ही ' रिमेक ' होने वाली फिल्मों को शामिल नहीं किया गया है। डॉन , अग्निपथ , दोस्ताना , उमराव जान ,कर्ज ,जैसी फिल्मों की संख्या दो दर्जन से अधिक है।
इंटरनेट और मीडिया ने चोरी पर रोक लगाईं है और नए आईडिया के लिए उन्मुक्त आकाश भी उपलब्ध कराया है। अफ़सोस सृजन की पीड़ा से कोई नहीं गुजरना चाहता। टू मिनट मैगी या इंस्टेंट कॉफी के दौर में भी दर्शक नवीनता चाहते है। क्लासिक फिल्मों को क्लासिक ही बने रहने देना चाहिए। अधिकांश रिमेक की असफलता यही सन्देश देने का प्रयास करती है। अगर फिल्मकार इन संकेतों को नहीं समझता है तो फिर उसे हाराकारी करने से कोई नहीं बचा सकता।
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