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आत्मकथा - किताबो की एक ऐसी श्रेणी है जिसके तलबगार कम है परंतु कोई आत्मकथा अगर हंगामा बरपा दे तो सभी का ध्यान उसकी और चला जाता हैं । विवाद की एक चिंगारी लेखक और प्रकाशक को मालामाल कर देती हैं । यद्यपि बहुत कम आत्मकथाएँ इतने नसीब वाली होती है जिन्हें पाठक सर माथे पर बिठाते है अन्यथा वे कब आती है और कब चली जाती है , पता नही चलता । डॉ कलाम या स्टीव जॉब्स ऐसे लोग है जिनके बारे मे लोग हमेशा पढ़ना चाहते है । सफलता के अनजान अंधेरे रास्तो पर इन किताबो ने कईयों के जीवन मे लाइट हाउस की भूमिका निभाई है ।
सिने प्रेमियों को अभिनेताओं की आत्मकथा सदैव लुभाती है । राजनेताओं की आत्मकथाओं की तरह यह भी पढ़ने वालों में खासी दिलचस्पी जगातीहै । इन आत्मकथाओं में काफी अनसुना ,अनदेखा मिलने की संभावना बनी रहती हैं । गुजरे समय मे कुछ आत्मकथाओ ने अपने आने से पहले काफी उम्मीद जगायी थी । दिलीप कुमार की उदय तारा नायर लिखित आत्मकथा ' द सब्सटेंस एंड शैडो ' ऐसी ही थी जो ट्रेजेडी किंग के प्रशंसकों को निराश कर गई ।दिलीप कुमार की नायिकाये , समकालीन अभिनेताओं से उनकी होड़ , राजकपूर , देव आनंद से पेशेवर गैर पेशेवर संबंध। मधुबाला से प्रेम फिर विवाह की मनुहार और अदालत में संबंधों का पटाक्षेप जैसी ढेर सारी बाते है जो सर्वविदित है परन्तु उनके प्रशंसक उनकी ही जुबानी सुनना चाहते थे लेकिन दिलीप की बहु प्रतीक्षित आत्मकथा से नदारद थी। फ़िल्म ' शायद ' से अपने कैरियर की सुरुआत करने वाले ओम पुरी की आत्मकथा उनकी दूसरी पत्नी ने इस विवादास्पद ढंग से लिखी कि इस महान एक्टर को कोर्ट की शरण लेना पड़ी । '' द
अनलाइकली हीरो '' नाम से ही आभास दिलाती है कि इस किताब में ओमपुरी के उन लम्हों की दास्तान है जो वे कभी सामने नहीं लाने वाले थे। साल में एक दो बार कोई न कोई पत्रकार अमिताभ बच्चन से पूछ ही बैठता है कि सर आप कब अपने संस्मरण लिख रहे है ? हमेशा की तरह महानायक विनम्र होकर बात घुमा देते है। सिने प्रेमियों की स्मृति में जुम्मे जुम्मे जगह बनाने वाले नवाजुद्दीन सिद्दीकी की हालिया आत्मकथा कुछ जल्दी ही आगई । नवाज की स्क्रीन परफॉर्मेंस की जितनी तारीफ की जाए , कम है। इस धुरंधर अभिनेता ने ऋतुपर्णो चटर्जी लिखित अपनी आत्मकथा में अपनी सहाभिनेत्रियो पर इतनी हल्की टिप्पणियों कर दी कि बवाल हो गया । अच्छा एक्टर अच्छा इंसान भी हो इस बात पर प्रश्नचिन्ह लग गया । नवाज की आत्मकथा बाजार से हटा ली गई है ।
मोजूदा दौर व्यक्तित्व के विखंडन का दौर है । जो खरा दिखता है जरूरी नहीं खरा हो भी । बाजार ने नैतिकता की हदें तय कर दी है । दर्शक और सिनेमा के तलबगारों के लिए अपने आदर्श निश्चित करने से पहले तोल मोल करना जरूरी हो गया है।
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