भारत के औसत नागरिकों में एक बात कॉमन है , अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए बाबाओ की शरण मे जाना । राम रहीम के पतन ने एकाएक दुनिया का ध्यान यत्रतत्र बिखरे बाबाओ की ओर आकर्षित कर दिया है । अपने शहर से लेकर प्रदेश और देश की राजधानी तक नजर दौड़ाइये , दर्जन भर पॉवरफुल बाबा स्मृति में कौंध जाएंगे । खाये पिये और विपन्न लोगो का हुजूम बाबाओ की बैठक में दिख जाएगा ।
मेरे जैसे कितने ही लोग अक्सर इस सवाल पर उलझ जाते है कि इन लोगों को बनाता कौन है । यह कहना कि ये लोग अनपढ़ लोगों की आस्था का परिणाम है , बाबाओ के टैलेंट का अपमान करने जैसा होगा । पढे लिखे भी भारी संख्या में इनके यहाँ माथा टेकते देखे जा सकते है । इस दौर में साइंटिफिक टेम्पर की बात करना बेमानी है । देश मे एक बड़ा वर्ग यह मान बैठा है कि आसमानी शक्तियों से साक्षात्कार आम आदमी के बस में नही है लेकिन कोई भी तथाकथित सिद्ध पुरुष या माताजी इस काम को बखूबी किसी विशेष दिन अंजाम दे सकते है । किसी भी काल की सरकार के बारे मे गूगल कर लिजिये हरेक प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का एक पसंदीदा बाबा जरूर मिलेगा जिसे इतना राज्याश्रय मिलेगा कि उसकी चुप्पी और हंसी भी सचिवालय में डिस्कस की जावेगी । महत्वपूर्ण निर्णय उसके निकाले हुए शुभमुहूर्त पर ही लिए जाते रहे हैं । फिर चाहे आजादी की घोषणा हो या सेटेलाइट लॉन्चिंग हो ।
टेलीविजन के विस्तार के पहले अखबार साप्ताहिक राशिफल निकाल कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लिया करते थे । यह समय बाबाओ के विकास में बाधक था । परंतु टेलीविजन ने जिस तरह से अपने मोर्निंग स्लॉट में बाबाओ को जगह दी उसे देखकर तो ऐसा लगता है मानो बाबाओ ने चैनलों को खरीद लिया है । आप जिसे भी टॉप थ्री चेनल मानते है उसके सुबह के प्रसारण में एक न एक बाबा को अंधविश्वास फैलाते हुए अवश्य पाएंगे । चार सौ न्यूज़ चैनल में से दो तिहाई इसी तरह से अपना खर्चा निकाल रहे हैं । शायद बाबा इसी तरह बनते है । कस्बो और शहरों में टीवी की चकाचौंध से दूर अनगिनत बाबा अपनी किस्मत चमका रहे है । जरूरत है सिर्फ गौर से देखने की । फिर किसी दिन कोई आसाराम या रामपाल का कुछ उल्टा सीधा सामने आता है तो सारा मीडिया उसे लानतें देने लगता है । जबकि उसके प्रवचन और कीर्तन टेलीविजन पर देखकर उसकी टीआरपी हमने ही बड़ाई होती है । राम रहीम प्रकरण पर अफसोस करने की जरूरत नहीं है। शिवराज सिंह भी समय समय पर बाबा की मदद लेते रहते है और मोदी भी । खट्टर और अमरिंदर की तरह इन्हें शर्मिंदा न होना पड़े यही दुआ की जा सकती है । जिस तरह अर्थव्यवस्था में कालाधन घुला हुआ है वैसे ही बाबाओ का प्रभाव समाज में रचा बसा है । भारतीय समाज की बाबा मुक्त कल्पना दूर की कौड़ी है । हमे इनके अस्तित्व के साथ जीना सीखना होगा ।
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