Sunday, November 5, 2017

एक थी पद्मावती

पद्मिनी -यह नाम जेहन में आते ही एक ऐसी राजकुमारी का अक्स दिमाग में बनने लगता है जो बला की सुन्दर थी। उसके बराबर की सुंदरता सिर्फ हेलन ऑफ़ ट्रॉय या मिस्र की क्लिओपेट्रा में ही मिलने की संभावना मानी जाती रही है। यद्धपि इन तीनो ही नारियों को इनकी सुंदरता के साथ इनके बुद्धि कौशल के लिए भी याद किया जाता है। दुनिया को पद्मिनी का पता सबसे पहले मलिक मोहम्मद जायसी के काव्य ग्रन्थ '' पद्मावत ' से मिला था। एक ऐसी सुंदर युवती जिसने अपने और अपने पति के  मान सम्मान के लिए जौहर का रास्ता चुना था। 
इतिहास के गलियारों में पद्मिनी की खोज हमें सन 1303 तक ले जाती है।  इस बरस दिल्ली के सबसे ताकतवर सुल्तान अलाउद्दीन  खिलजी ने चितोड़ पर आक्रमण किया था। अफ़्रीकी यात्री और विद्वान् ' इब्ने बतूता ' ने अपने संस्मरणों में खिलजी का जिक्र करते हुए उसे शानदार सुल्तान के रूप में दर्ज किया है जबकि अन्य समकालीन विद्वानों की राय उनसे जुदा है। भारत का सिलसिलेवार इतिहास लिखने का प्रयास करने वाले स्कॉटिश मूल के ब्रिटिश नागरिक जेम्स टॉड की नजरों में खिलजी एक क्रूर और विस्तार वादी सुलतान था। विंसेंट स्मिथ के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी की दो पत्निया थी जो हमेशा आपस में लड़ा करती थी। दिल्ली पर शासन करने वाले सुलतान का जोर अपनी बीबीयों पर नहीं चलता था। एक अन्य ब्रिटिश लेखक केविन रुश्बी  ने हाल ही अपने शोध ' चैसिंग माउंटेन लाइफ ' में सुल्तान खिलजी को ' रोमांस रहित ' रूखे स्वभाव का ' जोरू का गुलाम ' कह कर चित्रित किया है।  
ताज्जुब की बात है कि खिलजी से राज्याश्रय प्राप्त विख्यात हिंदी और फारसी के कवि आमिर खुसरों ने अपने किसी ग्रन्थ में पद्मावती का कही जिक्र नहीं किया है। खुसरो का लेखन आज हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। खुसरो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भाषा को ' हिंदवी ' नाम दिया था जो कालांतर में हिंदी हुआ। श्रृंगार ,दर्शन और प्रेम की चाशनी में भीगी खुसरो की रुबाइयों में अपने सुलतान की प्रेयसी का जिक्र न होना पद्मावती के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगाता है। बहुत से लोगों को इस बात से झटका लग सकता है कि उस दौर के साहित्यकारों और इतिहास लेखकों के ग्रंथों में इस अनुपम सुंदर रानी का कही जिक्र नहीं है। 
पद्मावती एक ऐसी नायिका है जिसका जन्म खिलजी की मृत्यु के दो सौ साल बाद सूफी परंपरा के कवि ' मालिक मोहम्मद जायसी ' के काव्य संग्रह ' पद्मावत ' में हुआ है। प्रेम की साधना का संदेश देते पद्मावत ने एक काल्पनिक नारी का इतना सजीव चित्रण किया की वह हाड़मांस की लगने लगी। सुराहीदार गर्दन , पतली कमर , गुलाबी रंग , अप्रितम सौंदर्य ,जैसे जायसी के  शब्द चित्रों ने जन मानस में कल्पना और हकीकत के बीच की बारीक लकीर को मिटा दिया। पद्मिनी देश के अवचेतन में गहरे उतर ' मिथ ' होने के बावजूद  ऐतिहासिक महिला मान सराही और पूजी  गई।
   ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब पद्मावती को सिनेमा स्क्रीन पर लाया जा रहा है। न ही संजय लीला भंसाली का  यह प्रथम प्रयास है। 2008 में  संजय की महत्वाकांक्षी फिल्म ' सांवरिया ' के फ्लॉप होने के बाद उन्होंने मशहूर फ्रेंच ओपेरा थिएटर दू चेटलेट के लिए अल्बर्ट रोसोले रचित 1923 के बेले ' पद्मावती ' को डायरेक्ट किया था। इस ओपेरा ने संजय की असफलता को धो कर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर शाबासी दिलवाई थी। सिनेमा के आरंभिक साइलेंट युग में ' पद्मावती ' अंग्रेजी शीर्षक से बनी फिल्म ' फ्लेम ऑफ़ फ़्लैश ' में नजर आई थी दुर्भाग्य से इस फिल्म का प्रिंट अब नष्ट हो चूका है। इस फिल्म के बरसों बाद तमिल सिनेमा के सुपर स्टार ' शिवाजी गणेशन और वैजयंती माला 1963 में बनी ' चित्तूर रानी पद्मावती ' में नजर आये।  इस फिल्म में  वैजयंतीमाला पर फिल्माये दर्जन भर गानो की वजह से कहानी का कचूमर बना दिया था। एक किंवदंती का इतना बुरा चित्रण दर्शकों से बरदाश्त नहीं हुआ और उन्होंने इस फिल्म को शिवाजी गणेशन की लोकप्रियता के बावजूद नकार दिया। 1964 में जयराज , अनीता गुहा , लक्ष्मी छाया , हेलन और सज्जन अभिनीत ' महारानी पद्मावती ' अपेक्षाकृत सफल रही थी।  यह पहली फिल्म थी जिस पर जायसी के ' पद्मावत ' की स्पस्ट छाप थी। आम धारणा के विपरीत इस फिल्म का अंत चौकाने वाला था।  कलिंग युद्ध के बाद जिस तरह अशोक ने प्रायश्चित किया था ठीक उसी तरह अलाउद्दीन खिलजी इस फिल्म में आंसू बहाता नजर आया था। 
पिछली शताब्दियों में ऐसे बहुत से पात्र कथा साहित्य से निकल कर इतिहास की सरहद में प्रवेश कर गए है। अनारकली , जोधाबाई , रानी पद्मावती ऐसे ही नाम है। जनमानस में ये इस कदर पैठ बनाये है कि इन्हे कल्पना कह कर ख़ारिज करना जोखिम का काम है।इन पर बनी फिल्मे सदैव जनचर्चा और विवाद का विषय रही है।  व्यावसायिक फिल्मों में तर्क ढूँढना कोरी कवायद ही मानी जायेगी। निर्देशक अपनी कल्पना को मनचाहा आकाश देने के लिए स्वतंत्र है ,परन्तु उसे अपनी जिम्मेदारियों का भी अहसास होना चाहिए।  कल्पना की दहलीज लांघते चरित्रों का चित्रण परिपक्व मानसिकता और सावधानी की अपेक्षा करता है।यह सुकून की बात है कि  फिल्म को फ्लॉप या फ्लोट करने का आखरी निर्णय दर्शक के हाथ में तो सुरक्षित है ही। 



1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 32वीं पुण्यतिथि - संजीव कुमार - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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