पद्मिनी -यह नाम जेहन में आते ही एक ऐसी राजकुमारी का अक्स दिमाग में बनने लगता है जो बला की सुन्दर थी। उसके बराबर की सुंदरता सिर्फ हेलन ऑफ़ ट्रॉय या मिस्र की क्लिओपेट्रा में ही मिलने की संभावना मानी जाती रही है। यद्धपि इन तीनो ही नारियों को इनकी सुंदरता के साथ इनके बुद्धि कौशल के लिए भी याद किया जाता है। दुनिया को पद्मिनी का पता सबसे पहले मलिक मोहम्मद जायसी के काव्य ग्रन्थ '' पद्मावत ' से मिला था। एक ऐसी सुंदर युवती जिसने अपने और अपने पति के मान सम्मान के लिए जौहर का रास्ता चुना था।
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ताज्जुब की बात है कि खिलजी से राज्याश्रय प्राप्त विख्यात हिंदी और फारसी के कवि आमिर खुसरों ने अपने किसी ग्रन्थ में पद्मावती का कही जिक्र नहीं किया है। खुसरो का लेखन आज हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। खुसरो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भाषा को ' हिंदवी ' नाम दिया था जो कालांतर में हिंदी हुआ। श्रृंगार ,दर्शन और प्रेम की चाशनी में भीगी खुसरो की रुबाइयों में अपने सुलतान की प्रेयसी का जिक्र न होना पद्मावती के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगाता है। बहुत से लोगों को इस बात से झटका लग सकता है कि उस दौर के साहित्यकारों और इतिहास लेखकों के ग्रंथों में इस अनुपम सुंदर रानी का कही जिक्र नहीं है।
पद्मावती एक ऐसी नायिका है जिसका जन्म खिलजी की मृत्यु के दो सौ साल बाद सूफी परंपरा के कवि ' मालिक मोहम्मद जायसी ' के काव्य संग्रह ' पद्मावत ' में हुआ है। प्रेम की साधना का संदेश देते पद्मावत ने एक काल्पनिक नारी का इतना सजीव चित्रण किया की वह हाड़मांस की लगने लगी। सुराहीदार गर्दन , पतली कमर , गुलाबी रंग , अप्रितम सौंदर्य ,जैसे जायसी के शब्द चित्रों ने जन मानस में कल्पना और हकीकत के बीच की बारीक लकीर को मिटा दिया। पद्मिनी देश के अवचेतन में गहरे उतर ' मिथ ' होने के बावजूद ऐतिहासिक महिला मान सराही और पूजी गई।
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पिछली शताब्दियों में ऐसे बहुत से पात्र कथा साहित्य से निकल कर इतिहास की सरहद में प्रवेश कर गए है। अनारकली , जोधाबाई , रानी पद्मावती ऐसे ही नाम है। जनमानस में ये इस कदर पैठ बनाये है कि इन्हे कल्पना कह कर ख़ारिज करना जोखिम का काम है।इन पर बनी फिल्मे सदैव जनचर्चा और विवाद का विषय रही है। व्यावसायिक फिल्मों में तर्क ढूँढना कोरी कवायद ही मानी जायेगी। निर्देशक अपनी कल्पना को मनचाहा आकाश देने के लिए स्वतंत्र है ,परन्तु उसे अपनी जिम्मेदारियों का भी अहसास होना चाहिए। कल्पना की दहलीज लांघते चरित्रों का चित्रण परिपक्व मानसिकता और सावधानी की अपेक्षा करता है।यह सुकून की बात है कि फिल्म को फ्लॉप या फ्लोट करने का आखरी निर्णय दर्शक के हाथ में तो सुरक्षित है ही।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 32वीं पुण्यतिथि - संजीव कुमार - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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