Thursday, November 16, 2017

ऑस्कर की तलाश में न्यूटन

अमूमन हर वर्ष लगभग सितम्बर माह के अंतिम हफ्ते में भारत की और से  ऑस्कर समारोह में हिस्सा लेने के लिए एक भारतीय  भाषाई फिल्म का चयन किया जाता रहा है।  यह पुरूस्कार  समारोह आगामी  मार्च में संपन्न होता रहा है। जैसे जैसे उत्तर भारत का तापमान गिरने लगता है वैसे वैसे देश में ' ऑस्कर ' को लेकर गर्माहट बढ़ने लगती है। प्रबुद्ध  सिने प्रेमी उम्मीद से भरने लगते है कि शायद इस बरस दशकों से चला आरहा ऑस्कर का सूखा ख़त्म हो जाए ! पंद्रह बरस पहले (2002 ) यह सुनहरी ट्रॉफी भारत के हाथ से छिटक गई थी जब ' नो मेन्स लैंड ' ने ' लगान ' को शिकस्त देकर कई सपनो को ध्वस्त कर दिया था। हिंदी और क्षेत्रीय  फिल्मों की दाल रोटी खाने वाला बॉलीवुड हॉलीवुड के  सपने देखना बंद नहीं करता। बात चाहे विज्ञान फंतासियों की हो या फिर मानवीय रिश्तो पर बनी फिल्मों की , बॉलीवुड  अधिकतर  प्रेरणाए आयात करने के ज्यादा पक्ष में रहा है। ऑस्कर के सपनो का रंग इतना गाढ़ा होता कि फ़िल्मी दुनिया की अलसुबह तक चलने वाली पार्टिया हो या पेज थ्री पर दिखने वाली हस्तियां हो इस रंग में सरोबार दिखती है। सिर्फ फ़िल्मी सामग्री के भरोसे चलने वाले टेलीविज़न चैनल अपने तयशुदा कार्यक्रमों को परे रख हॉलीवुड को फोकस में ले आते है। कौनसी तारिका रेड कारपेट पर किस डिज़ाइनर का गाउन पहन कर किस पुरुष मित्र के साथ छटा बिखेरेगी , अमेरिकन और ब्रिटिश सट्टा बाजार किस फिल्म और किस सितारे पर दांव लगा रहे है जैसी अटकलों पर कीमती एयरटाइम खपाने लग जाते है। 
ऑस्कर के लिए बॉलीवुड के जूनून को गैरजरूरी मानकर ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता। यद्धपि ये पुरस्कार  ( विदेशी भाषा श्रेणी को छोड़कर ) सिर्फ और सिर्फ  अमेरिकन फिल्मों के लिए ही है। परन्तु  चकाचौंध और व्यापक प्रसारण के लिहाज से ये वैश्विक दर्जा हासिल कर चुके है। इस बार विदेशी भाषा श्रेणी में 92 देशों की फिल्मे टॉप फोर में आने के लिए संघर्ष करेंगी। जो की एक रिकॉर्ड है। 
इस बार का ऑस्कर समारोह ( क्रम के हिसाब से 90 वां ) भारत के लिए भी महत्वपूर्ण है। हाल ही में पहली बार ऑस्कर अकादमी ने अपने मौजूदा  6688 सदस्यों में भारत के चुनिंदा सितारों और फिल्मकारों को शामिल कर  सम्मानित किया है। आमिर खान , अमिताभ , ऐश्वर्या , प्रियंका , दीपिका , सलमान और इरफ़ान खान ,बुद्धदेब दास  गुप्ता , मृणाल सेन आदि उन भारतीयों में से है जो   इस बार  फिल्मों की सभी  श्रेष्ठ श्रेणियों  के लिए वोट करेंगे। वैसे तीन दशक पहले (1987 ) दक्षिण भारतीय सितारे चिरंजीवी बाकायदा ऑस्कर समारोह में निमंत्रित होने का गौरव हासिल कर चुके है।  
इस वर्ष भारत का प्रतिनिधित्व प्रतिभावान अभिनेता राजकुमार राव की फिल्म ' न्यूटन ' करेगी। 2010 में एकता कपूर निर्मित ' लव सेक्स और धोखा ' से अपने करियर का आगाज करने वाले राजकुमार फिल्म- दर- फिल्म '' कोई पो चे ' (2013 ) ' शाहिद ' (2013 राष्ट्रीय पुरूस्कार ) ' सिटी लाइट '( 2014 ) ' ट्रैप्ड ' ( 2017 )  से अपने अभिनय की विभिन्नताओं की छाप छोड़ते जा रहे है। महज चुनिंदा फिल्मों के सहारे राजकुमार ने दर्शकों में विशेष जगह बना ली है। दर्शकों का एक बड़ा वर्ग सिर्फ उनका नाम देखकर टिकिट खरीदने लगा है। 
' न्यूटन ' टॉप फोर का सफर तय कर पाती है या नहीं इस बात में संशय है। ऑस्कर की हिमालयीन चढाई सिनेमाई गुणवत्ता , वैश्विक अपील और तटस्थ जूरी जैसे सँकरे रास्तो से होकर गुजरती है। एक्सपीरीमेंटल राजकुमार राव का सराहनीय न्यूटन क्या इतनी दूर जा पायेगा ? देखना दिलचस्प होगा। शुभकामनाएं।  

Sunday, November 5, 2017

एक थी पद्मावती

पद्मिनी -यह नाम जेहन में आते ही एक ऐसी राजकुमारी का अक्स दिमाग में बनने लगता है जो बला की सुन्दर थी। उसके बराबर की सुंदरता सिर्फ हेलन ऑफ़ ट्रॉय या मिस्र की क्लिओपेट्रा में ही मिलने की संभावना मानी जाती रही है। यद्धपि इन तीनो ही नारियों को इनकी सुंदरता के साथ इनके बुद्धि कौशल के लिए भी याद किया जाता है। दुनिया को पद्मिनी का पता सबसे पहले मलिक मोहम्मद जायसी के काव्य ग्रन्थ '' पद्मावत ' से मिला था। एक ऐसी सुंदर युवती जिसने अपने और अपने पति के  मान सम्मान के लिए जौहर का रास्ता चुना था। 
इतिहास के गलियारों में पद्मिनी की खोज हमें सन 1303 तक ले जाती है।  इस बरस दिल्ली के सबसे ताकतवर सुल्तान अलाउद्दीन  खिलजी ने चितोड़ पर आक्रमण किया था। अफ़्रीकी यात्री और विद्वान् ' इब्ने बतूता ' ने अपने संस्मरणों में खिलजी का जिक्र करते हुए उसे शानदार सुल्तान के रूप में दर्ज किया है जबकि अन्य समकालीन विद्वानों की राय उनसे जुदा है। भारत का सिलसिलेवार इतिहास लिखने का प्रयास करने वाले स्कॉटिश मूल के ब्रिटिश नागरिक जेम्स टॉड की नजरों में खिलजी एक क्रूर और विस्तार वादी सुलतान था। विंसेंट स्मिथ के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी की दो पत्निया थी जो हमेशा आपस में लड़ा करती थी। दिल्ली पर शासन करने वाले सुलतान का जोर अपनी बीबीयों पर नहीं चलता था। एक अन्य ब्रिटिश लेखक केविन रुश्बी  ने हाल ही अपने शोध ' चैसिंग माउंटेन लाइफ ' में सुल्तान खिलजी को ' रोमांस रहित ' रूखे स्वभाव का ' जोरू का गुलाम ' कह कर चित्रित किया है।  
ताज्जुब की बात है कि खिलजी से राज्याश्रय प्राप्त विख्यात हिंदी और फारसी के कवि आमिर खुसरों ने अपने किसी ग्रन्थ में पद्मावती का कही जिक्र नहीं किया है। खुसरो का लेखन आज हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। खुसरो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भाषा को ' हिंदवी ' नाम दिया था जो कालांतर में हिंदी हुआ। श्रृंगार ,दर्शन और प्रेम की चाशनी में भीगी खुसरो की रुबाइयों में अपने सुलतान की प्रेयसी का जिक्र न होना पद्मावती के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगाता है। बहुत से लोगों को इस बात से झटका लग सकता है कि उस दौर के साहित्यकारों और इतिहास लेखकों के ग्रंथों में इस अनुपम सुंदर रानी का कही जिक्र नहीं है। 
पद्मावती एक ऐसी नायिका है जिसका जन्म खिलजी की मृत्यु के दो सौ साल बाद सूफी परंपरा के कवि ' मालिक मोहम्मद जायसी ' के काव्य संग्रह ' पद्मावत ' में हुआ है। प्रेम की साधना का संदेश देते पद्मावत ने एक काल्पनिक नारी का इतना सजीव चित्रण किया की वह हाड़मांस की लगने लगी। सुराहीदार गर्दन , पतली कमर , गुलाबी रंग , अप्रितम सौंदर्य ,जैसे जायसी के  शब्द चित्रों ने जन मानस में कल्पना और हकीकत के बीच की बारीक लकीर को मिटा दिया। पद्मिनी देश के अवचेतन में गहरे उतर ' मिथ ' होने के बावजूद  ऐतिहासिक महिला मान सराही और पूजी  गई।
   ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब पद्मावती को सिनेमा स्क्रीन पर लाया जा रहा है। न ही संजय लीला भंसाली का  यह प्रथम प्रयास है। 2008 में  संजय की महत्वाकांक्षी फिल्म ' सांवरिया ' के फ्लॉप होने के बाद उन्होंने मशहूर फ्रेंच ओपेरा थिएटर दू चेटलेट के लिए अल्बर्ट रोसोले रचित 1923 के बेले ' पद्मावती ' को डायरेक्ट किया था। इस ओपेरा ने संजय की असफलता को धो कर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर शाबासी दिलवाई थी। सिनेमा के आरंभिक साइलेंट युग में ' पद्मावती ' अंग्रेजी शीर्षक से बनी फिल्म ' फ्लेम ऑफ़ फ़्लैश ' में नजर आई थी दुर्भाग्य से इस फिल्म का प्रिंट अब नष्ट हो चूका है। इस फिल्म के बरसों बाद तमिल सिनेमा के सुपर स्टार ' शिवाजी गणेशन और वैजयंती माला 1963 में बनी ' चित्तूर रानी पद्मावती ' में नजर आये।  इस फिल्म में  वैजयंतीमाला पर फिल्माये दर्जन भर गानो की वजह से कहानी का कचूमर बना दिया था। एक किंवदंती का इतना बुरा चित्रण दर्शकों से बरदाश्त नहीं हुआ और उन्होंने इस फिल्म को शिवाजी गणेशन की लोकप्रियता के बावजूद नकार दिया। 1964 में जयराज , अनीता गुहा , लक्ष्मी छाया , हेलन और सज्जन अभिनीत ' महारानी पद्मावती ' अपेक्षाकृत सफल रही थी।  यह पहली फिल्म थी जिस पर जायसी के ' पद्मावत ' की स्पस्ट छाप थी। आम धारणा के विपरीत इस फिल्म का अंत चौकाने वाला था।  कलिंग युद्ध के बाद जिस तरह अशोक ने प्रायश्चित किया था ठीक उसी तरह अलाउद्दीन खिलजी इस फिल्म में आंसू बहाता नजर आया था। 
पिछली शताब्दियों में ऐसे बहुत से पात्र कथा साहित्य से निकल कर इतिहास की सरहद में प्रवेश कर गए है। अनारकली , जोधाबाई , रानी पद्मावती ऐसे ही नाम है। जनमानस में ये इस कदर पैठ बनाये है कि इन्हे कल्पना कह कर ख़ारिज करना जोखिम का काम है।इन पर बनी फिल्मे सदैव जनचर्चा और विवाद का विषय रही है।  व्यावसायिक फिल्मों में तर्क ढूँढना कोरी कवायद ही मानी जायेगी। निर्देशक अपनी कल्पना को मनचाहा आकाश देने के लिए स्वतंत्र है ,परन्तु उसे अपनी जिम्मेदारियों का भी अहसास होना चाहिए।  कल्पना की दहलीज लांघते चरित्रों का चित्रण परिपक्व मानसिकता और सावधानी की अपेक्षा करता है।यह सुकून की बात है कि  फिल्म को फ्लॉप या फ्लोट करने का आखरी निर्णय दर्शक के हाथ में तो सुरक्षित है ही। 



परछाइयों की आत्मकथा

आत्मकथा - किताबो की एक ऐसी श्रेणी है जिसके तलबगार कम है परंतु कोई आत्मकथा अगर हंगामा बरपा दे तो सभी का ध्यान उसकी और चला जाता हैं । विवाद की एक चिंगारी लेखक और प्रकाशक को मालामाल कर देती हैं । यद्यपि बहुत कम आत्मकथाएँ  इतने नसीब वाली होती है जिन्हें पाठक सर माथे पर बिठाते है अन्यथा वे कब आती है और कब चली जाती है , पता नही चलता । डॉ कलाम या स्टीव जॉब्स ऐसे लोग है जिनके बारे मे लोग हमेशा पढ़ना चाहते है । सफलता के अनजान अंधेरे रास्तो  पर इन किताबो ने कईयों के जीवन मे लाइट हाउस की भूमिका निभाई है । 
सिने प्रेमियों को अभिनेताओं की आत्मकथा सदैव लुभाती है । राजनेताओं की आत्मकथाओं की तरह यह  भी पढ़ने वालों में खासी दिलचस्पी जगातीहै । इन आत्मकथाओं में काफी अनसुना ,अनदेखा मिलने की संभावना बनी रहती हैं । गुजरे समय मे कुछ आत्मकथाओ ने अपने आने से पहले काफी उम्मीद जगायी थी । दिलीप कुमार की उदय तारा नायर लिखित आत्मकथा ' द सब्सटेंस एंड शैडो ' ऐसी ही थी जो ट्रेजेडी किंग के प्रशंसकों को निराश कर गई ।दिलीप कुमार की नायिकाये , समकालीन अभिनेताओं से उनकी होड़ , राजकपूर , देव आनंद से  पेशेवर गैर पेशेवर संबंध। मधुबाला से प्रेम फिर विवाह की मनुहार और अदालत में संबंधों का पटाक्षेप जैसी ढेर सारी  बाते है जो सर्वविदित है परन्तु उनके प्रशंसक उनकी ही जुबानी सुनना चाहते थे लेकिन दिलीप की बहु प्रतीक्षित आत्मकथा से नदारद थी।  फ़िल्म  ' शायद ' से अपने कैरियर की सुरुआत करने वाले ओम पुरी की आत्मकथा उनकी दूसरी पत्नी ने इस विवादास्पद ढंग से लिखी कि इस महान एक्टर को कोर्ट की शरण लेना पड़ी ।  '' द
अनलाइकली हीरो '' नाम से ही आभास दिलाती है कि इस किताब में ओमपुरी के उन लम्हों की दास्तान है जो वे कभी सामने नहीं लाने वाले थे। साल में एक दो बार कोई न कोई पत्रकार अमिताभ बच्चन से पूछ ही बैठता है कि सर आप कब अपने संस्मरण लिख रहे है ? हमेशा की तरह महानायक विनम्र होकर बात घुमा देते है।   सिने प्रेमियों की स्मृति में जुम्मे जुम्मे जगह बनाने वाले नवाजुद्दीन सिद्दीकी की हालिया आत्मकथा कुछ जल्दी ही आगई । नवाज की स्क्रीन परफॉर्मेंस की जितनी तारीफ की जाए , कम है। इस धुरंधर अभिनेता ने ऋतुपर्णो चटर्जी लिखित अपनी आत्मकथा में अपनी सहाभिनेत्रियो पर इतनी हल्की टिप्पणियों कर दी कि बवाल हो गया । अच्छा एक्टर अच्छा इंसान भी हो इस बात पर प्रश्नचिन्ह लग गया । नवाज की आत्मकथा बाजार से हटा ली गई है । 
मोजूदा दौर व्यक्तित्व के विखंडन का दौर है । जो खरा दिखता है जरूरी नहीं खरा हो भी । बाजार ने नैतिकता की हदें तय कर दी है । दर्शक और सिनेमा के तलबगारों के लिए अपने आदर्श निश्चित करने से पहले तोल मोल करना जरूरी हो गया है।

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...