तीखे नैन नक्श और साँवले रंग वाली प्रतिभा सम्पन्न अभिनेत्री स्मिता पाटिल को गुजरे तीन दशक हो चुके है। अगर वे आज हमारे बीच होती तो साठ बरस की हो चुकी होती। एक दशक के उनके फ़िल्मी सफर में तकरीबन 70 फिल्में दर्ज है। इन फिल्मों में कुछ फिल्में ऐसी है जो उन्हें सदैव अमर रखेगी। 2013 में forbes पत्रिका ने सिनेमा की शताब्दी के अवसर पर स्मिता को विश्व की 25 सर्वश्रेष्ट अभिनेत्रियों में शामिल किया था।
सिनेमा और साहित्य की दुनिया में वे ही कृतियाँ कालजयी होती है जो अपने समय से आगे देखने का प्रयास करती है और जिनमे भविष्य के संकेत गुंथे हुए होते है। ऐसी फिल्मों के कथानक कभी बासी नहीं होते। फिर वह चाहे मारिओ पूजो रचित godfather हो या अकिरो कुरोसावा की seven samurai हो या सत्यजित रॉय की पाथेर पांचेली।
पिछले दिनों शनि शिगनापुर में महिलाओं को शनिदेव की पूजा अर्चना की अनुमति के लिए लम्बी जद्दो जहद ने स्मिता की एक फिल्म को स्मरण करा दिया। यह फिल्म थी केतन मेहता की मिर्च मसाला - इस फिल्म के अविस्मरणीय पात्रों की फेहरिस्त लम्बी है- नसीरउद्दीन शाह , सुरेश ओबरॉय , दिप्ती नवल, रत्ना शाह पाठक , बेंजामिन गिलानी , परेश रावल , राजबब्बर , आदि का अभिनय कमाल का था परन्तु इतना ही पॉवर फूल रोल स्मिता पाटिल का भी था।
फिल्म का कथानक ब्रिटिश कालीन भारत के 1940 के पूर्व का है। सूखे की मार झेल रहा गाँव क्रूर सूबेदार के रहमों करम पर है। अंग्रेजी राज की एक त्रासदी यह भी रही है कि अंग्रेज हुक्मरानों के मातहत काम करने वाले भारतीयों ने अपने आकाओ की नजरों में चढ़ने के लिए हिन्दुस्तानी रिआया पर डट कर जुल्म किये। सूबेदार लगान वसूलने के साथ गाँव की स्त्रियों पर भी हाथ डालने लगता है। गाँव के मर्द सिर्फ घर तक ही मर्द है। वे पंचतंत्र की कहानी ( जंगल के जानवर शेर के आतंक से बचने के लिए रोज एक जानवर को शेर के भोजन के लिए भेजते है ) की तरह अय्याश सूबेदार के पास महिलाओ को भेजते है।एक दिन सूबेदार की नजर सोनबाई पर पड़ती है और वह उसे हासिल करने के लिए पूरी ताकत लगा देता है।
यह फिल्म एक महिला के पुरुष समाज की नाजायज मांग को ठुकराने और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए जान जोखिम की हद तक जाने की जिजीविषा को व्यवहारिक ढंग से रेखांकित करती है।
सोन बाई के खिलाफ पूरा गाँव एकजुट हो जाता है कि वह सूबेदार के सामने आत्म समर्पण करदे। शनिशिग्नापुर का ट्रस्ट और शंकराचार्य महिलाओ से आव्हान करते है कि वे अपनी पूजा अर्चना की जिद छोड़ दे। न सोन बाई झुकती है न महाराष्ट्र की वे अनाम महिलाए -झुकना पड़ता है पुरुष समाज को।
महिला सशक्तिकरण को उभारती मिर्च मसाला हर दौर में प्रासंगिक है।
सिनेमा और साहित्य की दुनिया में वे ही कृतियाँ कालजयी होती है जो अपने समय से आगे देखने का प्रयास करती है और जिनमे भविष्य के संकेत गुंथे हुए होते है। ऐसी फिल्मों के कथानक कभी बासी नहीं होते। फिर वह चाहे मारिओ पूजो रचित godfather हो या अकिरो कुरोसावा की seven samurai हो या सत्यजित रॉय की पाथेर पांचेली।
पिछले दिनों शनि शिगनापुर में महिलाओं को शनिदेव की पूजा अर्चना की अनुमति के लिए लम्बी जद्दो जहद ने स्मिता की एक फिल्म को स्मरण करा दिया। यह फिल्म थी केतन मेहता की मिर्च मसाला - इस फिल्म के अविस्मरणीय पात्रों की फेहरिस्त लम्बी है- नसीरउद्दीन शाह , सुरेश ओबरॉय , दिप्ती नवल, रत्ना शाह पाठक , बेंजामिन गिलानी , परेश रावल , राजबब्बर , आदि का अभिनय कमाल का था परन्तु इतना ही पॉवर फूल रोल स्मिता पाटिल का भी था।
फिल्म का कथानक ब्रिटिश कालीन भारत के 1940 के पूर्व का है। सूखे की मार झेल रहा गाँव क्रूर सूबेदार के रहमों करम पर है। अंग्रेजी राज की एक त्रासदी यह भी रही है कि अंग्रेज हुक्मरानों के मातहत काम करने वाले भारतीयों ने अपने आकाओ की नजरों में चढ़ने के लिए हिन्दुस्तानी रिआया पर डट कर जुल्म किये। सूबेदार लगान वसूलने के साथ गाँव की स्त्रियों पर भी हाथ डालने लगता है। गाँव के मर्द सिर्फ घर तक ही मर्द है। वे पंचतंत्र की कहानी ( जंगल के जानवर शेर के आतंक से बचने के लिए रोज एक जानवर को शेर के भोजन के लिए भेजते है ) की तरह अय्याश सूबेदार के पास महिलाओ को भेजते है।एक दिन सूबेदार की नजर सोनबाई पर पड़ती है और वह उसे हासिल करने के लिए पूरी ताकत लगा देता है।
यह फिल्म एक महिला के पुरुष समाज की नाजायज मांग को ठुकराने और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए जान जोखिम की हद तक जाने की जिजीविषा को व्यवहारिक ढंग से रेखांकित करती है।
सोन बाई के खिलाफ पूरा गाँव एकजुट हो जाता है कि वह सूबेदार के सामने आत्म समर्पण करदे। शनिशिग्नापुर का ट्रस्ट और शंकराचार्य महिलाओ से आव्हान करते है कि वे अपनी पूजा अर्चना की जिद छोड़ दे। न सोन बाई झुकती है न महाराष्ट्र की वे अनाम महिलाए -झुकना पड़ता है पुरुष समाज को।
महिला सशक्तिकरण को उभारती मिर्च मसाला हर दौर में प्रासंगिक है।