Friday, April 1, 2011

आज भी सपने में मिलती है मिस चमको .


( सन्दर्भ :- फिल्म चश्मे बद्दूर के रीमेक की खबर) देखा जाए तो हर साल अपने में कुछ ख़ास लिए होता है .1981 का साल भी कुछ इसी तरह का था . अमिताभ बच्चन का शिखर समय चल रहा था . उनकी दो सुपर हिट फिल्मे ' लावारिस ' और 'नसीब ' धूम मचा रही थी . जीतेन्द्र को दक्षिण भारत का सहारा मिल चुका था . अगली क्लास के दर्शक उनकी' मवाली ' 'तोहफा ' और 'हिम्मतवाला ' के गानों को गुनगुना कर थिरक रहे थे . अपर्णा सेन'' 36 चोरंगी लेन'' के जरिये भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम दिला रही थी , ऐसे में अजीबोगरीब नाम वाली एक फिल्म ने सिनेमा घरो में दस्तक दी . इस फिल्म का नाम था चश्मे -बद्दूर . यह दौर अमिताभ की एक्शन और श्री देवी -जीतेन्द्र के ता - थैया टाइप के नाच गानों का था .इसी दौरान जुबली कुमार (राजेंद्र कुमार ) '' लव स्टोरी '' से देश को एक युवा और ताजगी भरी भरा चेहरा कुमार गौरव के रूप में दे चुके थे . चश्मे -बद्दूर के साथ एक ही प्लस पॉइंट था , इसकी निर्देशिका सई परांजपे का नाम . सई इसके पूर्व नेशनल अवार्ड जीत चुकी फिल्म '' स्पर्श '' को निर्देशित कर अपनी पहचान बना चुकी थी .
दूरदर्शन की प्रोडूसर और डायरेक्टर रही साईं स्वयं एक अच्छी लेखिका रही है . बच्चो के लिए लिखी उनकी छे से ज्यादा किताबे राष्ट्रीय और राज्य स्तर के पुरूस्कार से सराही गई है . चश्मे बद्दूर की कहानी स्वयं सई ने ही लिखी थी .
रोमांटिक कहानी में कामेडी का तड़का नई बात नहीं थी . परन्तु सई की प्रस्तुति में ताजगी थी . राकेश बेदी , फारुख शेख , रवि बासवानी , सईद जाफरी और दीप्ती नवल .कुल मिलकर पूरी कास्ट उर्जावान और बेहतरीन थी . कहानी कहने का ढंग और अभिनय दोनों ही उम्दा स्तर का था . शायद यही कारण है की आज तीस साल बाद भी फिल्म और उसके पात्र हमारे आस पास के ,अपने से लगते है और फिल्म --एक दम ताज़ी .
चूँकि कहानी और डायरेक्शन दोनों पर सई की पकड़ थी, लिहाजा कुछ सीन यादगार बन गए थे . ख़ास तौर पर रवि बासवानी का फ्लेश बेक में जाने वाला सीन , फारुक और दीप्ति की पहली मुलाक़ात का सीन , . राकेश बेदी के साथ दीप्ती के नौका विहार का द्रश्य और नदी में भेंसों के नहाने वाला सीन ,..

मेने शुरुआत में कुछ फिल्मो और हस्तियों के नामो जिक्र किया था .ख़ास वजह थी सिर्फ यह रेखांकित करना कि आज तीस बरस बाद भी चश्मे बद्दूर एक पूरी पीडी की यादों में ताजा है . जबकि इस लम्बे अरसे में कई बड़ी फिल्मे आई और गुमनामी में खो गई . माना की चश्मे -बद्दूर क्लासिक्स की श्रेणी में नहीं आती परन्तु जिसके बारे में सोंच कर ही आपके चेहरे पर मुस्कान आजाये उस फिल्म में कुछ ख़ास तो होगा.
चश्मे बद्दूर के रिमेक का बीड़ा डेविड धवन ने उठाया है. वेसे साल भर पहले भी इसके रिमेक और अधिकार वियोकाम 18 के खरीदने और ओनिर के निर्देशन की बात चली थी .डेविड ने गोविंदा के साथ कामेडी फिल्मो की झड़ी लगाईं है परन्तु सई के लेवल पर पहुचना उनके बस में नहीं है . हांलाकि बरसो पहले डेविड सई की एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म में सहायक रह चुके है .
भले ही फिल्म रोमांटिक कामेडी थी ,परन्तु संगीत और गीत आज भी लोगो की जुबान पर है . . राजकमल का संगीत और यशुदास की आवाज भुलाए न भुलाई जा सकती है . '' काली घोड़ी द्वार खड़ी....'' '' कहाँ से आये बदरा ''.....आज भी बारिश के दिनों में अपने आप याद आजाता है . '' इस नदी को तुम मेरा आइना मान लो ''...बेमिसाल है . रेडिओ पर सुनते वक्त यह गीत रोमेंटिक लगता है और देखते वक्त कामेडी . डेविड के निर्देशन पर कोई शक नहीं है , परन्तु वेसा अबोध हास्य आज के दौर में बहुत ही मुश्किल है . फिलहाल फिल्म की स्टार कास्ट तय नहीं हुई है , परन्तु दीप्ती नवल और फारुख शेख इस फिल्म में छोटा सा रोल अवश्य करेंगे .
लगे हाथ ---चश्मे बद्दूर में रेखा और अमिताभ ने एक छोटी सी रोमांटिक भूमिका की थी .




3 comments:

  1. bahut shandar prastuti.aisee jankari vala ek matr aapka hi blog ab taq meri jankari me hai.aur ye bahut achchha lagta hai.photo bhi bahut hi sundar lagaye hain.

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  2. गुजरा वक्त याद दिलाने के लिये धन्यवाद इसका रीमेक बनाना आज के फ़िल्मकारो के बस मे नही और वे दर्शक भी कहां है निश्छल हसी और समय की अबाध्यता आज संभव नही दर्शक पूरा फ़ल नही विटामिन की गोलियां खाना चाहता है ।

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  3. पुराने दौर की फिल्‍मों का मजा ही कुछ और है।
    हां रिमेक बनाने में मिर्च मसाले डाल देने से मजा जरूर किरकिरा हो जाता है लेकिन उस दौर की फिल्‍मों की कहानी, विषयवस्‍तु का मुकाबला नही।
    गाने तो खैर पुराने दौर के लाजवाब होते ही हैं।

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