बॉलीवुड फिल्मों में दर्शाये प्रेम का विस्तार गली मोहल्ले के युवाओ या रेस्तरां के सुनसान कोने में बैठे जोड़े पर भलीभांति प्रतिबिंबित होते देखे जा सकते है। यद्धपि वे कुछ गलत नहीं कर रहे होते। मस्तिष्क में चल रही हलचल एड्रेनिल रसायन से प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है जिसका परिणाम अक्सर विपरीत सेक्स के आकर्षण पर जाकर ख़त्म होता है। भाषाई शब्दों में हम इस घटना को प्यार होना कहते है !
मनोवैज्ञानिक एल्ड्रिन रिच ने लिखा है ' प्रेम एक सम्मानीय संबंध है जिसमे दो लोग अधिकार पूर्वक प्रेम शब्द का उपयोग करते है। प्रेम दरअसल एक प्रक्रिया है जो बहुत ही कोमल , थोड़ी अधिकार ,थोड़ी भय ग्रस्त होते हुए उस सत्य से दोनों प्रेमियों का परिचय कराती है जिसमे वे होशपूर्वक एक दूसरे को एक नहीं अनेको बार याद दिलाते है कि वे उससे कितना प्रेम करते है। इस प्रक्रिया में वे रोमांच के साथ एक दूसरे को खो देने की भयग्रंथि से भी ग्रसित रहते है। अक्सर कोई भी प्रेम में पड़ते समय एक कल्पना का सहारा लेता है कि वह अनजान बाहरी व्यक्ति उसके अंदर के खालीपन को भर देगा ! यधपि उसकी इस स्वनिर्मित आश्वस्ति के पीछे कोई ठोस आधार नहीं होता। यह उसका ही बनाया हुआ भ्रम होता। यह तब तक चलता है जब तक उस आगंतुक का वास्तविक जीवन में प्रवेश नहीं हो जाता। मनोवैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि अधिकांश प्रेम कहानिया हताशा की कहानियां होती। इस अवधारणा के समर्थन में तर्क देते हुए वे कहते है कि जब आप प्रेम में पड़ते है तो अवचेतन में आप स्वीकार लेते है कि आप अब तक हताश थे ! आप किसी के इंतजार में थे , आपके जीवन में किसी चीज की कमी थी। जो अब अचानक से पूर्ण हो गई है। प्रेम दरअसल आपके खालीपन की गहराई से आपका साक्षात्कार करा देता है।
प्रेम हो जाने के बाद उसकी नियति तय होने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। अमूमन दो ही विकल्प होते है जहाँ प्रेम पहुँचता है। एक , या तो जोड़े हमेशा के लिए बिना शर्त सुखद अनुभवों को गढ़ते हुए जीवन को निखार लेते है। दो , या तो प्रेम चूक जाता है या फिर चयनकर्ता उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता और प्रेम काफूर हो जाता है। मोटे तौर पर देखे तो प्रेमियों में उम्र का अंतर , समाज के रोड़े , भिन्न परिवेश , विचारों में मतभिन्नता , आर्थिक हालात इसके बिखरने की मूल वजह माना जाता है। यधपि इस तथ्य को कोई ध्यान नहीं देता कि प्रेम का न होना ही इस वियोग की मूल वजह है। शुरुआत में दैहिकता , रूपसौंदर्य , लोकप्रियता ,बुद्धिमानी , वाकपटुता , संपन्नता या ऐसा ही कोई अन्य प्रभावी कारण रूमानी आकर्षण बनकर इस तरह मन मस्तिष्क पर छा जाता है जिसे संजीदा लोग भी
प्रेम समझने की भूल कर बैठते है। फिर एक निश्चित समय पर उस प्रभावी कारक की कलई मंद होने की आवश्यक प्रक्रिया आरंभ हो जाती है और वह तथाकथित प्रेम धीमे धीमे रिस जाता है। कभी किसी एक का तो कभी एक साथ दोनों ही का !
यहाँ यह भी विचारणीय है कि जो लोग अतीत में प्रेम की मिसाल बन चुके है उन जैसा हो जाने की कामना करना भी प्रेम के संविधान में निषेध माना गया है। प्रेम के आरंभ में किसी प्रयोजन का होना- प्रेम न होना ही माना जाएगा। कोई भी प्रयोजन फिर वह भौतिक हो चाहे मानसिक एक समय के बाद हासिल हो ही जाता है। फिर प्रेम करने की गुंजाइश भी उसके साथ ही ख़त्म हो जाती है। लैला मजनू हो जाना , शिरी फरहाद हो जाना या अमृता इमरोज हो जाना किसी तपस्या से कम नहीं है। यह सार्वभौम सत्य गहरे उतारना जरुरी है।
दस बारह वर्ष पूर्व पटना के उम्रदराज प्रोफेसर और उनकी शिष्या के प्रेम प्रसंग को लोग आज तक भूले नहीं है। उनके इस संबंध और प्रोफेसर की पत्नी द्वारा शिष्या की सरेआम पिटाई को देश के एक प्रतिष्ठित न्यूज़ चैनल ने इस प्रमुखता से सनसनीखेज बना दिया था कि गुरु - शिष्या की जोड़ी शाम होने से पहले सेलेब्रिटी हो गई थी। टीवी चैनल ने ही प्रोफेसर को ' लवगुरु ' की उपाधि से नवाज दिया जो उनके साथ अब तक चिपकी हुई है। प्रोफेसर की नौकरी गई और आर्थिक हालात बदतर होने के बाद अब खबर है कि यह जोड़ा अलग हो चूका है। शिष्या वेस्ट इंडीज़ के किसी मानसिक अस्पताल में अपने अतीत की दुस्साहसिकता पर प्रायश्चित कर रही है। गुजरते समय और धुंधलाती प्रसिद्धि के साथ गुरु शिष्या के तथाकथित प्रेम की परते भी उधड़ गई !
प्रेम सिर्फ प्रेम होता है जो हर हाल में साथ खड़े होकर अपना संपूर्ण न्योछावर इस शर्त पर करता है कि उसकी( प्रेमी की ) निजता पर कोई आंच नहीं आती। किसी उद्देश्य के लिए किया हुआ प्रेम कभी प्रेम हो ही नहीं सकता। न ही उसके होने का ढिंढोरा पीटने की आवश्यकता होती है। प्रेमियों के लिए बिना वैचारिकता , बिना संवेदनशीलता और बिना विवेक के अनदेखे रास्तों पर चल पड़ना प्रायः दुखद ही रहा है।
बुद्ध , प्लेटो , बर्टेंड रसेल , सात्र ,सिमोन द बुवा जैसे कई शताब्दियों और पीढ़ियों पर अपने प्रभाव छोड़ने वाले विचारको ने रोमांटिक प्रेम के आधुनिक आदर्शो को कैसे आकार दिया और कैसे इसकी मौलिक खामियों को आदर्श के अनुरूप दुरुस्त करने का मार्ग सुझाया है - की समझ हरेक काल में प्रासंगिक है। कम से कम प्रेम के रास्ते पर चल पड़े और चलने का मन बना रहे लोगों के लिए तो बेहद जरुरी है !