पिछले दिनों एक तेलुगु फिल्म के हिंदी रीमेक ने महज आठ दिनों में दो सौ करोड़ कमाई का रिकॉर्ड बना दिया। नशाखोरी ,महिला पात्र के प्रति अपमानजनक व्यवहार और अशालीन भाषा व् दृश्यों के बावजूद फिल्म को मिला दर्शकों का समर्थन न सिर्फ चौंकाता है वरन चिंता भी पैदा करता है। क्या हम ऐसे समय की और बद रहे है जहाँ ' एंटी हीरो ' की भूमिका समाज में बगैर किसी किन्यु परन्तु के आत्मसात कर ली गई है ? फिल्म को मिले नेगेटिव रिव्यु के बावजूद थोक में दर्शक मिलना जताता है कि ' नकारात्मकता ' सामाजिक रूप से स्वीकारली गई है। लोगों को अपने नायक को गलत करते देखना अब कचोटता नहीं है।
हिंदी सिनेमा के कद्रदानों को भली भांति स्मरण होगा कि इस तरह की नकारात्मक भूमिका महान अभिनेता दादा मुनि अशोक कुमार ने काफी पहले पहली बार बुराइयों से भरे नायक के रूप में फिल्म ' किस्मत (1943) में निभाई थी। वे हिंदी फिल्मों के पहले ' एंटी हीरो ' माने जाते है। एंटी हीरो ' वह नायक होता है जिसमे परंपरागत प्रशंसनीय गुणों का सर्वथा अभाव होता है। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि हमारे माता पिता के दौर के नायक नायिकाओ से ये ठीक उलट होते है। उनके समय के नायक आदर्शवादी , मेहनत कश , नैतिक मूल्यों और परम्पराओ का पालन करने वाले हुआ करते थे। बुरे कामों के लिए खल पात्र होता ही था।
सिनेमा और विज्ञापन की दुनिया प्रायः ' मिरर इमेज थ्योरी ' पर काम करती है। जो वर्तमान में हो रहा है उसे कोई विषय बनाकर सिनेमा में प्रस्तुत कर दिया जाता है या फिल्म में दिखाए कथानक को देखकर लोग उसे अनुसरण करने लगते है। हमारे मौजूदा समय में तलाक , बिखरते परिवार , आदर्शो का पिघलते जाना , भ्रष्टाचार के प्रति संवेदनशून्यता जैसे माहौल ने यह महसूस कराना आरंभ कर दिया है कि कोई भी पूर्ण नहीं है। इसी विचार ने हमें चारित्रिक कमियों वाले नायको को पसंद करने के लिए प्रेरित किया है। यह भी उल्लेखनीय है कि जितने भी नायकों ने परम्परागत बायक के मुखोटे को उतार कर ' एंटी हीरो ' बनने का दुस्साहस किया है उन्हें अप्रत्याशित सफलता मिली है। दादा मुनि के नकारात्मक भूमिका निभाने के 14 बरस बाद सुनील दत्त ने ' मदर इंडिया (1957) में व्यवस्था से उपजे आक्रोश के चलते डकैत की भूमिका निभाई थी। बाद के वर्षों में वे ' मुझे जीने दो (1963) एवं ' 36 घंटे (1974) में भी घुसर चरित्र निभाते नजर आये। ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार ने अपनी फिल्म ' गंगा जमुना (1961) से दो भाइयों की कहानी का चलन आरंभ किया। इस तरह की कहानी में एक भाई विरोधी खेमे में खड़ा होकर नायक की राह में रोड़े अटकाता है।। एंटी हीरो को ग्लैमर दिया महानायक अमिताभ ने। सत्तर के दशक में आयी ' शोले (1975) ऐसे नायको को हमसे परिचित कराती है जिनमे दुर्गुणों की भरमार है। चूँकि वे गाँव की रक्षा करने आये है तो गाँव वालों के साथ दर्शक भी उन्हें सर माथे बिठा लेते है। शोले देखते हुए हमें अचानक से महान जापानी फिल्मकार अकीरो कुरोसावा की क्लासिक ' सेवन समुराई (1955) याद आजाती है जिसमे समाज से बहिष्कृत सात गुंडे गाँव वालों को डाकुओ के प्रकोप से मुक्ति दिलाते है। एंटी हीरो को एक नई ऊंचाई अमिताभ ने अपनी फिल्म ' डॉन (1978) से दी। उनका यह नेगटिव किरदार इतना लोकप्रिय हुआ कि एक समय उनके घोर आलोचक शाहरुख़ ' डॉन ' के रीमेक में नायक बनकर आये।यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि शाहरुख़ के कैरियर को गति देने में ग्रे -शेड्स की भूमिकाओं का अहम् योगदान है। उनकी 'डर (1990) बाजीगर (1993) अंजाम (1994 ) जैसी फिल्मों की वजह से ही दर्शकों ने उन्हें पसंद करना शुरू किया है।
सौरभ शुक्ला और अनुराग कश्यप द्वारा लिखी कहानी पर रामगोपाल वर्मा निर्मित ' सत्या (1998) मनोज बाजपेयी को रातो रात सितारा हैसियत दिला देती है। ऐसा ही कुछ सैफ अली के साथ ' ओंकारा (2006) में होता है। शेक्सपीअर के नाटक ओथेलो पर आधारित इस फिल्म के नायक ' लंगड़ा त्यागी ' को भला कौन भूल सकता है।
नकारात्मक भूमिकाओं से 'लाइम लाइट ' जल्द मिलती है -यह सोंच देसी विदेशी दोनों ही तरफ के नायक नायिकाओ को लुभाती रही है। कई बुराइयों और खामियों वाले हीरो आम दर्शको को लगातार प्रभावित कर रहे है। पूर्ण कोई नहीं है -यह विचार दर्शक को सीधे अपने नायक से जोड़ देता है लिहाजा नायक और उसकी फिल्म दोनों ही चल पड़ते है।
हिंदी सिनेमा के कद्रदानों को भली भांति स्मरण होगा कि इस तरह की नकारात्मक भूमिका महान अभिनेता दादा मुनि अशोक कुमार ने काफी पहले पहली बार बुराइयों से भरे नायक के रूप में फिल्म ' किस्मत (1943) में निभाई थी। वे हिंदी फिल्मों के पहले ' एंटी हीरो ' माने जाते है। एंटी हीरो ' वह नायक होता है जिसमे परंपरागत प्रशंसनीय गुणों का सर्वथा अभाव होता है। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि हमारे माता पिता के दौर के नायक नायिकाओ से ये ठीक उलट होते है। उनके समय के नायक आदर्शवादी , मेहनत कश , नैतिक मूल्यों और परम्पराओ का पालन करने वाले हुआ करते थे। बुरे कामों के लिए खल पात्र होता ही था।
सिनेमा और विज्ञापन की दुनिया प्रायः ' मिरर इमेज थ्योरी ' पर काम करती है। जो वर्तमान में हो रहा है उसे कोई विषय बनाकर सिनेमा में प्रस्तुत कर दिया जाता है या फिल्म में दिखाए कथानक को देखकर लोग उसे अनुसरण करने लगते है। हमारे मौजूदा समय में तलाक , बिखरते परिवार , आदर्शो का पिघलते जाना , भ्रष्टाचार के प्रति संवेदनशून्यता जैसे माहौल ने यह महसूस कराना आरंभ कर दिया है कि कोई भी पूर्ण नहीं है। इसी विचार ने हमें चारित्रिक कमियों वाले नायको को पसंद करने के लिए प्रेरित किया है। यह भी उल्लेखनीय है कि जितने भी नायकों ने परम्परागत बायक के मुखोटे को उतार कर ' एंटी हीरो ' बनने का दुस्साहस किया है उन्हें अप्रत्याशित सफलता मिली है। दादा मुनि के नकारात्मक भूमिका निभाने के 14 बरस बाद सुनील दत्त ने ' मदर इंडिया (1957) में व्यवस्था से उपजे आक्रोश के चलते डकैत की भूमिका निभाई थी। बाद के वर्षों में वे ' मुझे जीने दो (1963) एवं ' 36 घंटे (1974) में भी घुसर चरित्र निभाते नजर आये। ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार ने अपनी फिल्म ' गंगा जमुना (1961) से दो भाइयों की कहानी का चलन आरंभ किया। इस तरह की कहानी में एक भाई विरोधी खेमे में खड़ा होकर नायक की राह में रोड़े अटकाता है।। एंटी हीरो को ग्लैमर दिया महानायक अमिताभ ने। सत्तर के दशक में आयी ' शोले (1975) ऐसे नायको को हमसे परिचित कराती है जिनमे दुर्गुणों की भरमार है। चूँकि वे गाँव की रक्षा करने आये है तो गाँव वालों के साथ दर्शक भी उन्हें सर माथे बिठा लेते है। शोले देखते हुए हमें अचानक से महान जापानी फिल्मकार अकीरो कुरोसावा की क्लासिक ' सेवन समुराई (1955) याद आजाती है जिसमे समाज से बहिष्कृत सात गुंडे गाँव वालों को डाकुओ के प्रकोप से मुक्ति दिलाते है। एंटी हीरो को एक नई ऊंचाई अमिताभ ने अपनी फिल्म ' डॉन (1978) से दी। उनका यह नेगटिव किरदार इतना लोकप्रिय हुआ कि एक समय उनके घोर आलोचक शाहरुख़ ' डॉन ' के रीमेक में नायक बनकर आये।यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि शाहरुख़ के कैरियर को गति देने में ग्रे -शेड्स की भूमिकाओं का अहम् योगदान है। उनकी 'डर (1990) बाजीगर (1993) अंजाम (1994 ) जैसी फिल्मों की वजह से ही दर्शकों ने उन्हें पसंद करना शुरू किया है।
सौरभ शुक्ला और अनुराग कश्यप द्वारा लिखी कहानी पर रामगोपाल वर्मा निर्मित ' सत्या (1998) मनोज बाजपेयी को रातो रात सितारा हैसियत दिला देती है। ऐसा ही कुछ सैफ अली के साथ ' ओंकारा (2006) में होता है। शेक्सपीअर के नाटक ओथेलो पर आधारित इस फिल्म के नायक ' लंगड़ा त्यागी ' को भला कौन भूल सकता है।
नकारात्मक भूमिकाओं से 'लाइम लाइट ' जल्द मिलती है -यह सोंच देसी विदेशी दोनों ही तरफ के नायक नायिकाओ को लुभाती रही है। कई बुराइयों और खामियों वाले हीरो आम दर्शको को लगातार प्रभावित कर रहे है। पूर्ण कोई नहीं है -यह विचार दर्शक को सीधे अपने नायक से जोड़ देता है लिहाजा नायक और उसकी फिल्म दोनों ही चल पड़ते है।