बाजार अपना विस्तार कर चूका है। बाजार अब बाजार से निकलकर हमारे घरों तक आ पहुंचा है। बाजार अपनी यात्रा में सबसे पहले जिसे कुचलता है वे मानवीय संवेदनाएं ही होती है। घटना उत्तर प्रदेश के एक शहर की है। एक महिला ने अपने से उम्र में दो वर्ष बड़े पति को सिर्फ इस बात के लिए जिंदा जला दिया कि उसका रंग सांवला था ! भारतीयों की गोरेरंग के प्रति आसक्ति की यह पराकाष्टा है। चुनाव के हल्ले में राष्ट्रिय स्तर के समाचार पत्र में अंतिम पेज पर छपी यह लोहमहर्षक खबर अगर समाज को आंदोलित नहीं करती तो मान लेना चाहिए कि संवेदनाएं शून्य हो चुकी है।
ऐतिहासिक संदर्भ बताते है कि ' गौरवर्ण ' के लिए हमारा उतावलापन न केवल विदेशियों के हम पर ढाई सौ बरस शासन का परिणाम है वरन हमारे अवचेतन में भी इस तथ्य का गहरे से उतर जाना है कि गौरवर्णीय लोग ज्यादा बुद्धिमान , ज्यादा साहसी और ज्यादा समझदार रहे है। अंग्रेजों की बिदाई के बाद जैसे ही हमारे बाजार विकसित होने लगे हमारे सामने रूसी थे। शासक अंग्रेजों के बाद सहयोगी रुसी भी सुर्ख गोरे थे। जिस ब्रिटिश शासन और अत्याचारों से हमें नफरत थी उनके रंग से हमें प्यार हो गया था। बाजार ने यह बात गहरे तक उतार दी है कि सांवला रंग हीन भावना और समाज के निम्न स्तर का प्रतिनिधित्व करता है। अगर जीवन में कुछ करना है तो वह गोरे रंग की वजह से ही संभव हो पाएगा। अगर आपका रंग गेहुआ है तो उसे बदले बगैर आप आगे नहीं बढ़ सकते।
हमारी इसी कमजोरी को भुनाने के लिए 1978 में बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनि लीवर ने एक प्रोडक्ट बाजार में उतारा जिसका नाम था ' फेयर एंड लवली ' . गुजरे चालीस वर्षों से यह क्रीम गोरेपन को बेच रही है। इसका उपयोग कर कितने सांवले गोरे हुए इसका स्पस्ट आंकड़ा कंपनी के पास भी नहीं है। सत्ताईस अरब का व्यवसाय करने वाली यह क्रीम प्रतिवर्ष अठारह प्रतिशत की वृद्धि के साथ हिन्दुस्तानियो को गोरे रंग के सपने बेच रही है। भारत में हर वर्ष 233 टन त्वचा को गोरा बनाने वाली क्रीम की खपत होती है। कोक और पेप्सी से कही ज्यादा खर्च हिन्दुस्तानी अपने चेहरे के लिए कर रहे है !
देश के अधिकांश अखबारों में रविवार को प्रकाशित होने वाले वैवाहिकी विज्ञापन हमारे अवचेतन में जमी लालसा का ही विस्तार नजर आते है। कोई भी विज्ञापन उठा लीजिए सभी विवाह योग्य लडकियां श्वेतवर्ण की ही होती है वही वधु चाहने वाले सारे वर ' फेयर कॉम्प्लेक्शन ' को ही वरीयता देते नजर आते है। ऐसे में उत्तर प्रदेश जैसी घटना की पुनरावर्ती हो जाए तो उसे क्षम्य नहीं माना जाना चाहिए ? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाहरी रंग और आवरण से ज्यादा व्यक्ति का चरित्र और स्वभाव महत्वपूर्ण होता है। शक्ल सूरत से ज्यादा टिकाऊ सीरत रही है।
बहुसंख्यक समाज की मानसिकता को बदल देने में बाजार की शक्तियां किसी भी हद तक जा सकती है। मौजूदा समय में फ़िल्मी सितारे और नामचीन क्रिकेटर भी इस तरह के प्रोडक्ट के लिए विज्ञापन करते नजर आ रहे है। अधिकांश विज्ञापनों का संदेश स्पस्ट होता है कि इसे आजमा कर उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा और वे हर नामुमकिन काम कर सकेंगे। यकीन नहीं होता है कि कोई खुलेआम भ्रम बेच रहा है और समझदार उसे खरीद भी रहे है।
देश में चल रंगभेद पर सबसे पहले फिल्मकार अभिनेत्री नंदिता दास ने आवाज उठाई थी। उन्होंने बाकायदा एक अभियान ' सांवला सलोना है ' ( द डार्क इस ब्यूटीफुल ) के माध्यम से त्वचा के आधार पर हो रहे भेदभाव के खिलाफ आरम्भ किया था। सांवले रंग के लोगों को नीचा दिखाने और उन्हें कमतर साबित करने वाले विज्ञापनों के विरुद्ध इस अभियान ने ' एडवरटाइजिंग स्टैण्डर्ड कॉउंसिल ' को अपनी आपत्ति भी दर्ज कराई। जवाब में कॉउन्सिल ने विज्ञापनों के लिए एक गाइड लाइन जारी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली । भ्रामक और नस्लभेदी विज्ञापन आज भी बदस्तूर जारी है ।
यद्यपि चुनिदा ही सही कुछ सितारे इस विषय की गंभीरता को समझ कर और लुभावनी रकम ठुकरा कर गोरा बनाने वाली क्रीम का विज्ञापन करने से इंकार कर चुके है । उल्लेखनीय सितारों मैं रणवीर कपूर , रणदीप हुड्डा , कंगना राणावत और अनुष्का शर्मा प्रमुख नाम है ।
निसंदेह गोरे रंग का प्रचार करने में फिल्मो की अहम भूमिका रही है । हिंदी फिल्मों के अधिकांश गीत गोरे रंग का ही महिमा मंडन करते रहे है ।आर्क लाइट में दमकते नायिका के सौंदर्य ने देश की नवयुवतियों को वैसा ही बनने के लिए प्रेरित किया है । परंतु एक अपवाद भी है । गोरे रंग के हल्ले के बावजूद 1963 में बनी ' बंदिनी ' के एक गीत ' मोरा गोरा रंग लेइले , मोहे श्याम रंग दयीदे ' गा कर सांवली हो जाने की गुजारिश करती महान नूतन इकलौती नायिका नजर आती है।