अपना शहर छोड़े बगैर पलायन कर जाने के भाव को महसूस कर जाने का माध्यम है सिनेमा। निसंदेह परदे की चंचल छवियां छलावा भर होती है वास्तविकता से दूर वास्तविकता का भ्रम बनाती हुई। इन छवियों को निभाने वाले पात्र वास्तविक जीवन से ही आते है। ये लोग कथानक की मांग के अनुरूप थोड़ी देर के लिए पात्र की काया में उतरते है , उस किरदार को जीवंत करते है और पुनः यथार्थ में लौट जाते है। चूँकि दर्शक इनके काल्पनिक रूप को ही देख पाता है और वही उसे याद रहता है तो वह उसे ही आदर्श मान आचरण करने लगता है। ये काल्पनिक पात्र अनजाने ही बड़े समूह के लिए जीवन मूल्य तय कर बैठते है परन्तु यथार्थ में उन मूल्यों को गाहे बगाहे ध्वस्त करते रहते है।
भारतीय अवाम ने पिछले सात दशकों में सिद्ध किया है कि ' राजनीति , क्रिकेट और सिनेमा का जूनून देश की रगों में बहता है। कम खायेगे , कम पहनेगे परन्तु इन तीनो के लिए हमेशा समय निकाल लेंगे। इन तीनों ही क्षेत्रों के नायकों को उनकी मानवीय कमजोरियों के बावजूद सिर माथे बैठाने की परंपरा का नियम पूर्वक अनुसरण किया जाता रहा है। दक्षिण भारत में राजनेताओ और फिल्म अभिनेताओं के मंदिर बन जाना इस अपरिपक्व मानसिकता का ही परिणाम है। जबकि इन मंदिरों में विराजित लोग किसी समय आर्थिक और चारित्रिक दुर्बलताओं के दाग धब्बों से लांछित रहे है। अपने इन तथाकथित नायको की कारगुजारियों को नजरअंदाज कर जाने का भाव हमारे देश के एक बड़े वर्ग की सामूहिक सोंच में बदल चूका है। अगर यह सोंच नहीं होती तो भला आपराधिक पृष्टभूमि के सैंकड़ों व्यक्ति नगर पालिका से लेकर संसद तक कैसे पहुँच पाते ? क्रिकेट का एक उभरता सितारा अपने होटल के कमरे में अवांछनीय हरकत करते हुए सी सी टीवी में कैद हो जाता है। शर्मिंदा होने के बजाय वह अपने राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी का सदस्य बन जाता है , कुछ समय बाद एक राष्ट्रीय टीवी के रियलिटी शो का हिस्सा भी बन जाता है। जहाँ उसे नकारा जाना चाहिए था वहा वह समर्थन जुटा लेता है। इसी तरह एक दशक पूर्व एक टीवी चैनल के ' कास्टिंग काउच ' पर किये गए स्टिंग ऑपरेशन में उजागर मनोरंजन जगत के कुछ स्थापित नाम आज भी बाइज्जत जमे हुए हैं । उनके कैरियर पर कोई नकारात्मक असर इस घटना ने नही डाला क्योंकि दर्शकों ने उन्हें नकारने का उपक्रम भी नहीं किया था ।
हॉलीवुड फिल्मों के कथानक से प्रेरणा लेने वाला मनोरंजन उद्योग उनके साहस से प्रेरित नही होता । जिस तरह यौन उत्पीड़न की शिकायतों के बाद नामचीन हार्वे विन्स्टीन , बिल कॉस्बी और केविन स्पेसी को सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर सलाखों के पार पहुंचाया गया है वैसी नजीर भारत में दिखाई देगी इस बात में
संदेह है । तनु श्री दत्ता मी टू के भारतीय संस्करण की मशाल धावक बनी है और उनके उठाये गए सवालों ने अन्य महिलाओं को अपनी पीड़ा व्यक्त करने का साहस दिया है । परिणाम स्वरूप संस्कारी आलोक नाथ , नाना पाटेकर , पत्रकारिता से राजनीति में आये एम जे अकबर , गुजरे जमाने के निर्देशक सुभाष घई , सूफी गायक कैलाश खेर , निर्माता विकास बहल आदि कुछ ऐसे नाम है जो थोड़ी देर से जागी महिलाओ की वजह से सतह पर आये है।यह तूफ़ान यहीं थमता नहीं दिख रहा है। सूरज की पहली किरण के साथ रोज चौकाने वाले खुलासे हो रहे है। इन महिलाओ से बस इतनी सी गिला है कि इन्होने यह साहस जुटाने में समय क्यों जाया किया ? कुछ ऐसे भी आरोप सामने आ रहे है जिनके सच होने में संदेह है। इतना हो हल्ला होने के बाद भी बॉलीवुड के शीर्ष पर चुप्पी पसरी हुई है । जिनकी आवाज देश भर में सुनी जाती है ऐसे लोग इन दागियों के खिलाफ कुछ भी बोलने से बच रहे है । बॉलीवुड अपना दृष्टिकोण तय करे उसके पूर्व दर्शकों को अपना एजेंडा तय कर लेना चाहिए कि वे ऐसी तमाम फिल्मो और टीवी धारावाहिकों का बहिष्कार करेंगे जिसमे ये नाम शामिल हैं । मी टू की सफलता तभी है जब चकाचोंध के पीछे फैले अंधेरे की सफाई होगी ।
अतीत के अनुभवों से एक कटु सत्य स्पस्ट नजर आता है कि हमारे देश के बड़े जनसमूह की याददाश्त ज्यादा देर उनका साथ नहीं देती। या वे देखकर भी अनदेखा करने की अपनी आदत से मजबूर है। सजा के इंतजार में सलाखों के पीछे करवटे बदल रहे धार्मिक गुरुओ के अनुयायी कम नहीं हुए है न ही ऐसे राजनेताओ की साख पर किसी तरह की आंच आई है।
पीड़ितों को अपनी आवाज उठाना ही चाहिए और उनका समर्थन भी इस देश के नागरिकों को करना चाहिए परन्तु इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस तात्कालिक अंधड़ में कोई निर्दोष किसी पूर्वाग्रह का शिकार न हो जाए।