Monday, October 15, 2018

रोशनी के पीछे का अंधेरा !



अपना शहर छोड़े बगैर पलायन कर जाने के भाव को महसूस कर जाने का माध्यम है सिनेमा। निसंदेह परदे की चंचल छवियां छलावा भर होती है वास्तविकता से दूर वास्तविकता का भ्रम बनाती हुई। इन छवियों को निभाने वाले पात्र वास्तविक जीवन से  ही आते है। ये लोग कथानक की मांग के अनुरूप थोड़ी देर के लिए पात्र की काया में उतरते है , उस किरदार को जीवंत करते है और पुनः यथार्थ में लौट जाते है। चूँकि दर्शक इनके काल्पनिक  रूप को ही देख पाता है और  वही उसे याद रहता है तो वह उसे ही आदर्श मान आचरण करने  लगता है। ये काल्पनिक पात्र अनजाने ही बड़े समूह के लिए जीवन मूल्य तय कर  बैठते है परन्तु यथार्थ में उन  मूल्यों को गाहे बगाहे  ध्वस्त करते रहते  है। 
भारतीय अवाम ने पिछले सात दशकों में सिद्ध किया है कि ' राजनीति , क्रिकेट और सिनेमा का जूनून  देश की रगों में बहता है। कम खायेगे , कम पहनेगे परन्तु इन तीनो के लिए हमेशा समय निकाल लेंगे। इन तीनों ही क्षेत्रों के नायकों को उनकी मानवीय कमजोरियों के  बावजूद सिर माथे बैठाने की परंपरा का नियम पूर्वक अनुसरण किया जाता रहा है। दक्षिण भारत में राजनेताओ और फिल्म अभिनेताओं के मंदिर बन जाना इस अपरिपक्व मानसिकता का ही परिणाम है। जबकि इन मंदिरों में विराजित लोग किसी समय  आर्थिक और चारित्रिक दुर्बलताओं के दाग धब्बों से लांछित रहे है। अपने इन तथाकथित नायको की कारगुजारियों को नजरअंदाज कर जाने का भाव हमारे देश के एक बड़े वर्ग की सामूहिक सोंच में बदल चूका है। अगर यह सोंच नहीं होती तो भला  आपराधिक पृष्टभूमि के सैंकड़ों  व्यक्ति नगर पालिका से लेकर संसद तक कैसे पहुँच पाते ? क्रिकेट का एक उभरता सितारा अपने होटल के कमरे में अवांछनीय हरकत करते हुए सी सी टीवी में कैद हो जाता है। शर्मिंदा होने के बजाय वह अपने राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी का सदस्य बन जाता है , कुछ समय बाद एक राष्ट्रीय टीवी के रियलिटी शो का हिस्सा भी बन जाता है। जहाँ उसे नकारा जाना चाहिए था वहा वह समर्थन जुटा लेता है। इसी तरह एक दशक पूर्व एक टीवी चैनल के ' कास्टिंग काउच ' पर किये गए स्टिंग ऑपरेशन में उजागर मनोरंजन जगत के कुछ स्थापित नाम आज भी बाइज्जत जमे हुए हैं । उनके कैरियर पर कोई नकारात्मक असर इस घटना ने नही डाला क्योंकि दर्शकों ने उन्हें नकारने का उपक्रम भी नहीं किया था । 
हॉलीवुड फिल्मों के कथानक से प्रेरणा लेने वाला मनोरंजन उद्योग उनके साहस से प्रेरित नही होता । जिस तरह यौन उत्पीड़न की शिकायतों के बाद नामचीन हार्वे विन्स्टीन , बिल कॉस्बी और केविन स्पेसी को सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर सलाखों के पार पहुंचाया गया है वैसी नजीर भारत में दिखाई देगी इस बात में
संदेह है । तनु श्री दत्ता  मी टू के भारतीय संस्करण की मशाल धावक बनी है और उनके उठाये गए सवालों ने अन्य महिलाओं को अपनी पीड़ा व्यक्त करने का साहस दिया है । परिणाम स्वरूप संस्कारी आलोक नाथ , नाना पाटेकर  , पत्रकारिता से राजनीति में आये एम जे अकबर , गुजरे जमाने के निर्देशक सुभाष घई , सूफी गायक कैलाश खेर ,  निर्माता विकास बहल आदि  कुछ ऐसे नाम है जो थोड़ी देर से जागी महिलाओ की वजह से सतह पर आये है।यह तूफ़ान यहीं थमता नहीं दिख रहा है। सूरज की पहली किरण के साथ रोज चौकाने वाले खुलासे हो रहे है। इन महिलाओ से बस इतनी सी गिला है कि इन्होने यह साहस जुटाने में समय क्यों जाया किया ? कुछ ऐसे भी आरोप सामने आ रहे है जिनके सच होने में संदेह है।  इतना हो हल्ला होने के बाद भी बॉलीवुड के शीर्ष पर चुप्पी पसरी हुई है । जिनकी आवाज देश भर में सुनी जाती है ऐसे लोग इन दागियों के खिलाफ कुछ भी बोलने से बच रहे है । बॉलीवुड अपना दृष्टिकोण तय करे उसके पूर्व दर्शकों को अपना एजेंडा तय कर लेना चाहिए कि वे ऐसी तमाम फिल्मो और टीवी धारावाहिकों का बहिष्कार करेंगे जिसमे ये नाम शामिल हैं । मी टू की सफलता तभी है जब चकाचोंध के पीछे फैले अंधेरे की सफाई होगी । 
अतीत के अनुभवों से एक कटु सत्य स्पस्ट नजर आता है  कि हमारे देश के बड़े  जनसमूह की याददाश्त ज्यादा देर उनका साथ नहीं देती। या वे देखकर भी अनदेखा करने की अपनी आदत से मजबूर है। सजा के  इंतजार में  सलाखों के पीछे करवटे बदल रहे धार्मिक गुरुओ के अनुयायी कम नहीं हुए है न ही ऐसे राजनेताओ की साख पर किसी तरह की आंच आई है। 
पीड़ितों को अपनी आवाज उठाना ही चाहिए और उनका समर्थन भी इस देश के नागरिकों को करना चाहिए परन्तु इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इस तात्कालिक अंधड़ में कोई निर्दोष किसी पूर्वाग्रह का शिकार न हो जाए। 

Wednesday, October 10, 2018

कुछ प्रेम कहानियां ऐसी होती है जिनके होने का कोई सबूत नहीं होता


कुछ प्रेम कहानियां ऐसी होती है जिनके होने का  कोई सबूत नहीं होता परन्तु उनके किस्से बरस दर बरस सुनाये जाते रहे है। ऐसी ही एक कहानी महानायक अमिताभ से जुडी हुई है जो हर बरस उनके जन्मदिन (11 अक्टूबर ) पर हवाओ में तैरने लगती है। इसकी ठोस वजह भी है क्योंकि बिग बी के जन्म दिन से ठीक एक दिन पहले (10 अक्टूबर ) रुपहले परदे की दिवा रेखा का भी अवतरण दिवस पड़ता है। सत्तर  के दशक में आरम्भ इस प्रेमकथा की शुरुआत ' दो अनजाने ' से मानी जाती है। यद्धपि रेखा गणेशन फिल्मों के लिहाज से बच्चन जी से सीनियर है। वे जब फिल्मों में आई थी तब महज सोलह बरस की ही थी। उनकी पहली फिल्म ' सावन भादो ' थी जिसके प्रदर्शन के बाद फ़िल्मी पत्रिकाओं ने उन्हें ' मोटी बतख ' नाम दिया और उनके सहनायकों ने उन्हें  'काली कलूटी ' कहकर पुकारा। इस तथाकथित प्रेम कहानी के दोनों ही पात्र स्वभाव में एक दूसरे से जुदा थे। अमिताभ जहाँ धीर गंभीर किस्म के अनुशासन प्रिय थे वही रेखा घोर लापरवाह चुलबुली टाइप की अल्हड युवती हुआ करती थी।  शायद प्रेम ऐसी  ही परस्पर विरोधी परिस्तिथियों में अंकुरित हुआ करता है। 
अक्सर उद्धत किया जाता है कि जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के लोकप्रिय नाटक ' पिग्मेलियन ' के प्रमुख पात्र प्रोफेसर हिग्गिन्स की तरह अमिताभ रेखा की जिंदगी में आये।  और कई मायनों में यह सच भी है। फोनेटिक्स के विद्धान  प्रो हिग्गिन्स इस नाटक में सड़क किनारे फूल बेचने वाली गंवार लड़की को संवार कर इतनी सभ्य और सुसंस्कृत बना देते है कि राजपरिवार भी उसे सम्मान देने लगता है। अमिताभ के आभा मंडल का प्रभाव था कि रेखा ने उसमे खुद को तलाशा और निखर गई। भारतीय आख्यानों में देह को मंदिर मानने की बाते सदियों से मौजूद है। इसे चरितार्थ करने वाली रेखा संभवतः पहली नायिका बनी। उन्होंने खुद को इतना तराशा कि सौन्दर्य के प्रतिमान स्थापित होते चले गए। उनका बदला रूप और उनके अभिनय से सजी दर्जनों फिल्मे उनकी देह के सुन्दरतम हो जाने के रिकार्डेड दस्तावेज की शक्ल में चिर स्थायी हो गए है। 
अमिताभ रेखा की जिंदगी में प्रो हिग्गिन्स की तरह आये थे  और उसी तरह निकल भी गए। यह एक ऐसी कहानी थी जिसका क्लाइमेक्स इसकी शुरुआत में ही तय हो गया था।  शादी शुदा अमिताभ के लिए इस रिश्ते को परवान चढ़ाना संभव नहीं था। उनका करियर बुलंदी पर था और किसी भी तरह की नकारात्मक खबर उन्हें और उनके परिवार को तबाह कर सकती थी इसलिए वे चुपचाप किनारे हो गए। फिल्म सिलसिला इस कहानी का पटाक्षेप मानी जाती है क्योंकि इसके बाद यह जोड़ी फिल्म जगत के दिग्गजों की मनुहार के बाद भी एक फ्रेम में कभी नजर नहीं आई। 
मुखर रेखा आज भी घुमा फिराकर इस रिश्ते को स्वीकार लेती है परन्तु महानायक ने इस विषय पर बीते तीन  दशक में कभी मुंह नहीं खोला। सिलसिला संभवतः ऐसी पहली  फिल्म थी जिसके प्रमुख तीन  पात्र अभिनय नहीं कर रहे थे , वे यथार्थ में जी रहे थे। अमिताभ भले ही आज  इस बात को नहीं स्वीकारते हो   परन्तु जब कभी केबीसी का कोई  प्रतियोगी  उनसे ' तन्हाई की एक रात इधर भी है उधर भी ' सुनाने की फरमाइश करता है तो उस पल उनकी आवाज में गुजरा लम्हा जैसे ठिठक सा जाता है।     
कुछ प्रेम कहानियों के पात्र कभी नहीं मिलते।एक ही शहर में  वे रेल की पटरियों की तरह साथ रहते हुए कभी नहीं मिलते  शायद इसीलिए वे कहानियां अमर हो जाती है। 

Tuesday, October 2, 2018

गांधीजी : इतिहास से सिनेमा तक

अगर आज गांधीजी जीवित होते तो अपना 149 वां जन्मदिवस मना रहे होते। लेकिन इस नाशवान  जगत का नियम है कि मनुष्य को एक निश्चित उम्र के बाद बिदा होना ही पड़ता है। लेकिन कुछ लोग होते है जो अपने पीछे इतनी बड़ी लकीर  छोड़ जाते है कि लोगों को सदिया लग जाती है उन्हें समझने में। अफ़सोस गांधीजी को बलात इस दुनिया से हटाया गया था।  यह तथ्य आज भी दुनिया के एक बड़े वर्ग को सालता है। उनसे मतभेद होना स्वाभाविक था परन्तु उनका अंत तय करना सम्पूर्ण मानव जाति के लिए शर्म का सबब रहा है। 
गांधीजी के जीवन और विचारो  को समेटने की कोशिश में सैंकड़ों किताबे लिखी गई है परन्तु उनकी मृत्यु के बीस बरस तक सिनेमा ने उन्हें लगभग नजर अंदाज ही किया। स्वयं गांधीजी सिनेमा के विरोधी थे और अपने जीवन में उन्होंने एकमात्र फिल्म ' राम राज्य (1943) ही देखी थी। लेकिन उनके अनुयायियों में हर विधा के लोग थे जो उन्हें इन माध्यमों  से जोड़कर करोडो लोगो तक पहुँचाना चाहते थे। ऐसे ही एक थे श्री ए के चट्टीएर मूलतः चीन के निवासी। घुमन्तु , पत्रकार और फिल्मकार - उन्होंने 1938 में भारत के चारो कोनो में एक लाख किलोमीटर की यात्राए  गांधीजी के फोटो और फिल्मों को एकत्र करने के लिए की थी। इस संग्रह के आधार पर उन्होंने गांधीजी पर 81 मिनिट की डॉक्यूमेंट्री ' 20 वी सदी का पैगम्बर - महात्मा गांधी ' ( Mahatma Gandhi -20 th century prophet ) बनाई। महात्मा पर बनी यह पहली आधिकारिक डॉक्यूमेंट्री थी जिसे बकायदा सेंसर बोर्ड का प्रमाण पत्र मिला था. यद्धपि गांधीजी की गोलमेज कॉन्फ्रेंस के लिए  लंदन यात्रा को बी बी सी ने संजो लिया था परन्तु यह द्रश्य कई बरस बाद भारत पहुंचे थे। चट्टीएर की बनाई डॉक्यूमेंट्री 15 एम् एम् के कैमरे से शूट की गई थी और इसका पहला प्रसारण 15 अगस्त 1947 को दिल्ली में किया गया था। प्रधानमंत्री नेहरू की और से उनकी पुत्री इंदिरा और भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद इसके प्रदर्शन के साक्षी बने थे । 1953 में चट्टीएर इस फिल्म को अंग्रेजी में डब कर अपने साथ अमेरिका ले गए जहाँ इसकी दूसरी स्क्रीनिंग तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डी डी आइसनहोवर और उनकी पत्नी के लिए हुई। इसके बाद यह फिल्म अगले छे साल तक लगभग गुम ही रही और 1959 में इसे फिर तलाशा गया। 2015 में इस फिल्म को पूर्णतः डिजिटल फॉर्मेट में बदल कर संजो लिया गया है। अब यह फिल्म  ' गांधी मेमोरियल म्यूजियम '  की धरोहर है। 
गांधीजी पर बनी पहली फीचर फिल्म के निर्माण की कहानी भी गांधी जी के जीवन की तरह दिलचस्प और उतार चढ़ाव से भरी है। 1952 में हंगरी के फिल्मकार गेब्रियल पिस्कल ने प्रधानमंत्री नेहरू से गांधीजी पर फिल्म निर्माण की अनुमति हासिल कर ली।  वे कुछ कर पाते उससे पहले 1954 में उनकी मृत्यु हो गई और यह प्रयास निष्फल हो गया। 1960 में रिचर्ड एटेनबरो ख्यातनाम निर्देशक डेविड लीन से मिले और उन्हें अपनी स्क्रिप्ट दिखाई।  डेविड लीन इस फिल्म को निर्देशित करने के लिए राजी हो गए , यद्धपि उस समय वे अपनी फिल्म ' द ब्रिजेस ऑन  रिवर क्वाई ' में व्यस्त थे। डेविड ने अभिनेता एलेक गिनेस को गांधी की भूमिका में चुन लिया परन्तु इसके बाद किन्ही कारणों से यह प्रोजेक्ट फिर ठंडे बस्ते में चला गया और डेविड अपनी नई फिल्म ' लॉरेंस ऑफ़ अरेबिया ' में मशगूल हो गए । एक दिन 1962 में  लन्दन स्थित इंडियन हाई कमिशन में कार्यरत प्रशासनिक अधिकारी मोतीलाल कोठारी ने रिचर्ड एटेनबरो से मुलाकात की और उन्हें गांधीजी पर बनने वाली फिल्म के निर्देशक की भूमिका करने के लिए मना लिया।  इससे पहले श्री कोठरी लुई फिशर की गांधीजी पर लिखी किताब के अधिकार हासिल कर चुके थे जो स्वयं लुई फिशर ने उन्हें नि - शुल्क प्रदान कर दिए थे। 1963 में लार्ड माउंटबेटन की सिफारिश पर नेहरूजी की मुलाकात एटेनबरो से हुई , नेहरूजी को स्क्रिप्ट पसंद आई और उन्होंने फिल्म को प्रायोजित करना स्वीकार कर लिया। लेकिन अभी और अड़चने आना बाकी थी। नेहरूजी का अवसान , शास्त्रीजी का अल्प कार्यकाल , इंदिरा गांधी की समस्याए और व्यस्तता , अंततः एटेनबरो का जूनून और अठारह बरस के इंतजार के बाद 1980 में  ' गांधी ' का फिल्मांकन आरंभ हुआ। यहाँ तक आते आते एटेनबरो का बतौर अभिनेता करियर बर्बाद हो चूका था। उनका घर और कार गिरवी रखे जा चुके थे। मुख्य भूमिका के लिए बेन किंग्सले को लिया गया। इस बात पर अखबारों ने बहुत हल्ला मचाया परन्तु एटेनबरो टस  से मस नहीं हुए।  बहुत बाद में मालुम हुआ कि किंग्सले आधे भारतीय ही थे। उनके पिता गुजराती थे और माँ अंग्रेज।  इसके बाद की कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं है। 
यूँ तो गांधीजी पर अनेको डॉक्यूमेट्रियाँ बनती रही है परन्तु 2009 में बीबीसी द्वारा निर्मित मिशेल हुसैन की ' गांधी ' विशेष उल्लेखनीय है। यह  अलग ही तरह से इस युग पुरुष का आकलन करती है। यह डोक्युमेंटी एक तरह से गांधीजी के जीवन का यात्रा वृतांत प्रस्तुत करती है। इसकी प्रस्तुता पाकिस्तानी मूल की ब्रिटिश नागरिक उन सभी  जगहों पर जाती है जहाँ जहाँ अपने जीवन काल में गांधी जी गए थे। 
 विडंबना देखिये ! जिस ब्रिटिश साम्राज्य को गांधी ने बाहर का रास्ता दिखाया था  उसी के एक नागरिक ने उन्हें परदे पर उतार कर अपनी आदरांजलि अर्पित की।
published in indiareview.com and amarujala.com

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...