अंततः एक विरासत के भविष्य पर ताला लग गया। खंडवा स्थित लोकप्रिय गायक किशोर कुमार गांगुली का पुश्तैनी घर ' गौरीकुंज ' बिक गया। खंडवा और मध्यप्रदेश के निवासियों के लिए गर्व और कौतुहल का सबब रहे इस घर की जगह शीघ्र ही कोई शॉपिंग काम्प्लेक्स या रिहाइशी बहुमंजिला भवन आकार ले लेगा। 1987 में इस खिलंदड़ स्वाभाव के गायक की मृत्यु के बाद से ही उनकी समाधि पर हरवर्ष देशभर से आये उनके डाई हार्ड प्रशंसक जुटते रहे है। किशोर कुमार के जन्मदिवस 4 अगस्त पर यहाँ केक की बजाए ' पोहे जलेबी ' खाकर उन्हें याद करने की परंपरा रही है।किशोर कुमार ने अपने कॉलेज के दिन इंदौर के क्रिस्चियन कॉलेज में बिताये थे यही उन्हें पोहे जलेबी का शौक लगा था। गांगुली परिवार ने प्रदेश की सांस्कृतिक पहचान के एवज में कुछ करोड़ रूपये लेकर अपना वर्तमान सुधार लिया परन्तु लाखों लोगों को भावनात्मक जुड़ाव से वंचित कर दिया। खुद को 'रशोकि रमाकु ' खंडवा वाला कहने वाला यह बहुमुखी कलाकार इस गौरीकुंज में ही जन्मा था और यही पला बड़ा था। उनके प्रशंसकों और नवोदित गायकों के लिए इस भवन को ' तीर्थ ' के रूप में विकसित किया जा सकता था। परन्तु हरेक पीढ़ी के लोग अपने अतीत को अपने नजरिये से आंकते है। संभव है अमित कुमार को एक यादगार स्मारक की जगह तात्कालिक आर्थिक लाभ ने ज्यादा आकर्षित किया हो । वैसे भी अपने पिता के गाये गीतों की रॉयल्टी की बदौलत उनका जीवन ऐश्वर्य में तो गुजर ही रहा है। उनके लिए यह मकान जमीन के कीमती टुकड़े पर मिट्टी गारे के ढेर से ज्यादा महत्त्व नहीं रखता , यह उन्होंने जतला दिया है। मध्यप्रदेश सरकार ने किशोर कुमार की मृत्यु परान्त ही उनकी स्मृति को चिर स्थायी करने के लिए एक फ़िल्मी शख्सियत को हर वर्ष ' किशोर कुमार अवार्ड ' देने की परंपरा कायम की है। म प्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने इस धरोहर को विकसित करने के लिए गांगुली परिवार से अनुमति चाही थी परन्तु उन्होंने स्मारक के एवज में पच्चीस करोड़ की मांग रख दी जिसे सुनकर सरकारी नुमाइंदे उलटे पाँव लौट आये थे। यही कहानी सुर कोकिला लता मंगेशकर के इंदौर स्थित जीर्ण शीर्ण पुश्तैनी निवास की भी है। इंदौर नगर निगम उस जगह को अपने खर्चे से विकसित कर ' लता मंगेशकर सभागृह ' बनाना चाहता था बदले में लता जी से इंटीरियर डेकोरेशन के भार वहन का प्रस्ताव किया था। सूत्र बताते है कि लता मंगेशकर ने इस प्रोजेक्ट पर आज तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
1960 के दशक में अमेरिकी गायक ' एल्विस प्रेस्ले ' सनसनी बन चुके थे। हर नए गीत के साथ उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ता जा रहा था। जितनी दीवानगी ब्रिटेन में उस समय ' बिटल्स ' को लेकर थी उतनी अमेरिका में एल्विस को लेकर थी। महज बयालीस बरस की उम्र में हुई एल्विस की अचानक मौत ने अमेरिका को राष्ट्रीय शोक में डूबा दिया था। किंग ऑफ़ द रॉक एन रोल ' कहे गए इस गायक की मृत्यु के चार दशक बाद भी उनके प्रशंसक उन्हें लेकर काफी भावुक है। एल्विस की इकलौती बेटी मारी लिसा प्रेस्ले ने अपने पिता से जुडी हरेक चीज को जस का तस संजोया है। उनके कोट के बटन से लेकर कार तक को संरक्षित किया है। और इस वास्तविकता के बावजूद किया है जबकि निजी संग्रहकर्ता एल्विस से जुडी किसी भी चीज के लिए लाखों डॉलर देने को तैयार बैठे है।
लिसा प्रेस्ले ने लालच को हरा दिया और अमित कुमार लालच से हार गए !
सिर्फ अमित कुमार ही नहीं हम औसत भारतीय भी अपनी विरासत को लेकर खासे लापरवाह रहे है। अपने नायको से जुडी वस्तुओ का अलगाव हमें उदास नहीं करता। महात्मा गांधी से जुडी बहुत सी वस्तुओ का पता हमें तब लगा जब वे किसी दूसरे देश में सार्वजनिक रूप से नीलाम हो रही थी। प्रसंगवश महान रुसी लेखक लियो टॉलस्टॉय का जिक्र जरुरी है। इस कालजयी लेखक के निधन के एक सो दस वर्ष बाद भी उनके निवास को उसी हालत में सहेजकर रखा गया है। जिस रेलवे स्टेशन पर उनकी तबियत ख़राब हुई थी उस स्टेशन की घडी आज भी उनकी मृत्यु के समय को दर्शाती है।
अतीत की उपलब्धियों को सहेजने का सलीका हमें विदेशियों से ही सीखना होगा और इसमें को
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