बॉलीवुड के ' भीखू महात्रे ' मनोज बाजपाई ने ऐसा सच कहा है जिस पर अमूमन किसी का ध्यान नहीं जाता परन्तु जानते सब है। एक साक्षात्कार में मनोज का कहना है कि फिल्म इंडस्ट्री में अभिनय की बाते कम होती है , कमाई की ज्यादा !! उनका कथन सिने दर्शको के एक बड़े समूह के मन की बात कहता है। एक जमाने में कला फिल्मों के शीर्ष पर रहे नसीरुद्दीन शाह ने भी अपनी पीड़ा कुछ इसी तरह व्यक्त की थी। इन दोनों ही अभिनेताओं ने अपना मुकाम सशक्त अभिनय की बदौलत बनाया है। फिल्मो की घोर व्यावसायिकता के चलते अभिनय को हाशिये पर धकेल देने पर उनका तल्ख़ हो जाना लाजमी है। कला फिल्मे सिनेमा का नया अंदाज है जिसमे अभिनय की श्रेष्टता को प्रमुखता दी जाती है। इन्हे समानांतर सिनेमा के नाम से भी निरूपित किया जाता है। इस तरह के सिनेमा को गंभीर विषय , वास्तविकता और नैसर्गिकता के साथ जोड़कर माना गया है। यह व्यावसायिक या लोकप्रिय सिनेमा के ठीक उलट होता है जिसमे सतही बाते ज्यादा होती है।
सिनेमा के आरंभिक दौर में चलायमान छवियों का एकमात्र उद्देश्य मनोरंजन था। चूँकि सिनेमा नाटक से जन्मा था तो उसके कई टोटके जैसे नृत्य और संगीत भी शुरूआती फिल्मों में जस के तस आगये थे । उस वक्त की फिल्मे ( हालांकि अब वे अस्तित्व में नहीं है ) गीत संगीत से ठसाठस भरी होती थी। पहली सवाक फिल्म ' आलमआरा ' के बाद बनी ' इंद्रसभा ' में पचहत्तर गीत थे ! गीत संगीत से लबरेज इस दौर से कई फिल्मकारों को ऊब होने लगी थी और वे ऐसे विकल्प पर गौर करने लगे थे जहाँ परदे पर चलने वाली छवियाँ दर्शक के यथार्थ से जुड़ सके या वास्तविकता को दर्शा सके। संयोग से इसी समय जापान और फ्रांस के सिनेमा में यथार्थवादी दृष्टिकोण से बनी फिल्मों को सफलता मिलने लगी थी। वहा सिनेमा सपनो और मनोरंजन की खुमारी से निकल कर जीवन की वास्तविक समस्याओ पर बात करने लगा था। इन फिल्मों की सफलता से प्रेरणा लेकर सबसे पहले बंगाली सिनेमा में समानांतर या कला फिल्मों का प्रवेश सत्यजीत रे ने कराया। सत्यजीत रे की सर्वाधिक प्रसिद्ध फिल्मों में पाथेर पांचाली , अपराजितो एवं ' द वर्ल्ड ऑफ़ अप्पू ' याद रखने वाली फिल्मे है।
कला फिल्मों को सत्यजीत रे के बाद ऋत्विक घटक , मृणाल सेन, श्याम बेनेगल , अडूर गोपालकृष्णन ,गिरीश कासरवल्ली ,मणि कॉल, बासु चटर्जी, कुमार साहनी, गोविन्द निहलानी, अवतार कौल, गिरीश कर्नाड, प्रकाश झा और सई परांजपे जैसे संवेदनशील फिल्मकारों ने लीक से हटकर यथार्थवादी सिनेमा का निर्माण किया। इन फिल्मकारों की फिल्मों ने विचारों के संसार को एक नयी दिशा प्रदान की। जीवन से सीधे जुड़े विषयों पर विचारोत्तेजक फ़िल्में बनाकर इन फिल्मकारों ने सिनेमा के सृजन शिल्प का अनूठा प्रयोग किया। इनमें से कुछ फिल्मकार आज भी सार्थक सिनेमा की मशाल थामे आगे बढ़ रहे हैं। इन नव यथार्थवादी फिल्मकारों के लिए राह कभी आसान नहीं रही। कला फिल्मो के शुरूआती दौर में इन्हे सरकार पोषित भी कहा जाता था क्योंकि आज की तरह उस समय स्वतंत्र पूंजी निवेशक इन फिल्मो को इनकी संदिग्ध सफलता के चलते हाथ नहीं लगाते थे। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कला फिल्मे सिर्फ घाटे का सौदा होती थी। 1953 में विमल राय द्वारा निर्मित ' दो बीघा जमीन ' समीक्षकों की प्रशंसा के साथ व्यावसायिक रूप से भी सफल रही थी। श्याम बेनेगल ने 1973 में ' अंकुर ' बनाकर साबित किया कि कला के साथ व्यावसायिक सफलता भी संभव है।
1970 -80 के दशक में सार्थक ( समानांतर ) सिनेमा ने डटकर विकास किया। अंकुर ' की सफलता ने फिल्मकारों के होंसलों को ऊंचाई दी। इसी दौर में शबाना आजमी , स्मिता पाटिल , ओम पूरी , नसीरुद्दीन शाह ,अमोल पालेकर , अनुपम खेर , कुलभूषण खरबंदा , पंकज कपूर , गिरीश कर्नार्ड जैसे प्रतिभाशाली सितारो का सानिध्य कला फिल्मों को मिला। सन 2000 के बाद एक बार फिर सामानांतर सिनेमा नए अंदाज में लौट आया है। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम पर नए प्रयोग होने लगे है। मणिरत्नम की ' दिल से (1998) युवा (2004) नागेश कुकनूर की ' तीन दीवारे (2003 ) और ' डोर (2006 ) सुधीर मिश्रा की ' हजारों ख्वाइशे ऐसी (2005 ) जान्हू बरुआ की ' मेने गांधी को नहीं मारा (2005 ) नंदिता दास की 'फ़िराक (2008 ) ओनिर की ' माय ब्रदर निखिल (2005 ) अनुराग कश्यप की ' देव डी और ' गुलाल (2009 ) विक्रमादित्य मोटवानी की ' उड़ान (2009 ) आदि को कला फिल्मों की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।
मनोज बाजपाई के लिए यही कहा जा सकता है कि उन्हें इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए जो बताता है कि विश्व पटल पर होने वाली सभी प्रतियोगिताओ में कला फिल्मे ही भारत का प्रतिनिधित्व करती रही है। दुनिया की श्रेस्ठ पत्रिकाए जब भारत की अच्छी फिल्मों की बात करती है तो वहां सिर्फ कला फिल्मों का ही जिक्र होता है , व्यावसायिक सिनेमा का नहीं !