Saturday, January 27, 2018

why manoj bajpai is angry ?मनोज बाजपाई को गुस्सा क्यों आया ?

बॉलीवुड के '  भीखू महात्रे  ' मनोज बाजपाई ने ऐसा सच कहा है जिस पर अमूमन किसी का ध्यान नहीं जाता परन्तु जानते सब है। एक साक्षात्कार में मनोज का कहना है कि फिल्म इंडस्ट्री में अभिनय की बाते कम होती है , कमाई की ज्यादा !! उनका कथन  सिने  दर्शको के एक बड़े समूह के मन की बात कहता है। एक जमाने में कला फिल्मों के शीर्ष पर रहे नसीरुद्दीन शाह ने भी अपनी पीड़ा कुछ इसी तरह व्यक्त की थी। इन दोनों ही अभिनेताओं ने अपना मुकाम सशक्त अभिनय की बदौलत बनाया है। फिल्मो की घोर व्यावसायिकता के चलते अभिनय को हाशिये पर धकेल देने पर उनका तल्ख़ हो जाना लाजमी है। कला फिल्मे सिनेमा का नया अंदाज है जिसमे अभिनय की श्रेष्टता को प्रमुखता दी जाती है। इन्हे समानांतर सिनेमा के नाम से भी निरूपित किया जाता है। इस तरह के सिनेमा को गंभीर विषय , वास्तविकता और नैसर्गिकता के साथ जोड़कर माना गया है। यह व्यावसायिक या लोकप्रिय सिनेमा के ठीक उलट होता है जिसमे सतही बाते ज्यादा होती है। 
सिनेमा के आरंभिक दौर में चलायमान छवियों का एकमात्र उद्देश्य मनोरंजन था।  चूँकि सिनेमा नाटक से जन्मा था तो उसके कई टोटके जैसे नृत्य और संगीत भी शुरूआती फिल्मों में जस के तस आगये थे । उस वक्त की फिल्मे ( हालांकि अब वे अस्तित्व में नहीं है ) गीत संगीत से ठसाठस भरी होती थी।  पहली सवाक फिल्म ' आलमआरा ' के बाद बनी ' इंद्रसभा ' में पचहत्तर गीत थे ! गीत संगीत से  लबरेज इस दौर से  कई फिल्मकारों को ऊब होने लगी थी और वे ऐसे विकल्प पर गौर करने लगे थे जहाँ परदे पर चलने वाली छवियाँ दर्शक के यथार्थ से जुड़ सके या वास्तविकता को दर्शा सके। संयोग से इसी समय जापान और फ्रांस के सिनेमा में यथार्थवादी दृष्टिकोण से बनी  फिल्मों को सफलता मिलने लगी थी। वहा सिनेमा सपनो और मनोरंजन की खुमारी से निकल कर जीवन की वास्तविक समस्याओ पर बात करने लगा था। इन फिल्मों की सफलता से प्रेरणा लेकर सबसे पहले बंगाली सिनेमा में समानांतर या कला फिल्मों का प्रवेश सत्यजीत रे ने कराया। सत्यजीत रे की सर्वाधिक प्रसिद्ध फिल्मों में पाथेर पांचाली , अपराजितो एवं  ' द वर्ल्ड ऑफ़ अप्पू ' याद रखने वाली फिल्मे है। 
 कला फिल्मों को सत्यजीत रे के बाद ऋत्विक घटक , मृणाल सेन, श्याम बेनेगल , अडूर गोपालकृष्णन ,गिरीश कासरवल्ली  ,मणि कॉल, बासु चटर्जी, कुमार साहनी, गोविन्द निहलानी, अवतार कौल, गिरीश कर्नाड, प्रकाश झा और सई परांजपे जैसे संवेदनशील फिल्मकारों ने लीक से हटकर यथार्थवादी सिनेमा का निर्माण किया। इन फिल्मकारों की फिल्मों ने विचारों के संसार को एक नयी दिशा प्रदान की।  जीवन से सीधे जुड़े विषयों पर विचारोत्तेजक फ़िल्में बनाकर इन फिल्मकारों ने सिनेमा के सृजन शिल्प का अनूठा प्रयोग किया। इनमें से कुछ फिल्मकार आज भी सार्थक सिनेमा की मशाल थामे आगे बढ़ रहे हैं।  इन नव यथार्थवादी फिल्मकारों के लिए राह कभी आसान नहीं रही। कला फिल्मो के शुरूआती दौर में इन्हे सरकार पोषित भी कहा जाता था क्योंकि आज की तरह उस समय स्वतंत्र पूंजी निवेशक इन फिल्मो को इनकी संदिग्ध सफलता के चलते हाथ नहीं लगाते थे। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कला फिल्मे सिर्फ घाटे का सौदा होती थी। 1953 में विमल राय द्वारा निर्मित ' दो बीघा जमीन ' समीक्षकों की प्रशंसा के साथ व्यावसायिक रूप से भी सफल रही थी। श्याम बेनेगल ने 1973 में ' अंकुर ' बनाकर साबित किया कि कला के साथ व्यावसायिक सफलता भी संभव है। 
1970 -80 के दशक में सार्थक ( समानांतर ) सिनेमा ने डटकर विकास किया।  अंकुर ' की सफलता ने फिल्मकारों के होंसलों को ऊंचाई दी। इसी दौर में शबाना आजमी , स्मिता पाटिल , ओम पूरी , नसीरुद्दीन शाह ,अमोल पालेकर , अनुपम खेर , कुलभूषण खरबंदा , पंकज कपूर , गिरीश कर्नार्ड जैसे प्रतिभाशाली सितारो का सानिध्य कला फिल्मों को मिला। सन 2000 के बाद एक बार फिर सामानांतर सिनेमा नए अंदाज में लौट आया है। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम पर नए प्रयोग होने लगे है। मणिरत्नम की ' दिल से (1998) युवा (2004) नागेश कुकनूर की ' तीन दीवारे (2003 ) और ' डोर (2006 ) सुधीर मिश्रा की ' हजारों ख्वाइशे ऐसी (2005 ) जान्हू बरुआ की ' मेने गांधी को नहीं मारा (2005 ) नंदिता दास की 'फ़िराक (2008 ) ओनिर की ' माय ब्रदर निखिल (2005 ) अनुराग कश्यप की ' देव डी  और ' गुलाल (2009 ) विक्रमादित्य मोटवानी की ' उड़ान (2009 ) आदि को कला फिल्मों की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।  
मनोज बाजपाई के लिए यही कहा जा सकता है कि उन्हें इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए जो बताता है कि विश्व पटल पर होने वाली सभी प्रतियोगिताओ में कला फिल्मे ही भारत का प्रतिनिधित्व करती रही है। दुनिया की श्रेस्ठ पत्रिकाए  जब भारत की अच्छी फिल्मों की बात करती है तो वहां सिर्फ कला फिल्मों का ही जिक्र होता है , व्यावसायिक सिनेमा का नहीं !

Thursday, January 18, 2018

celebration of love and beauty . श्रृंगार और सौंदर्य का उत्सव

एक अच्छे गीत की मोटी विशेषता सिर्फ इतनी होती है कि समय की परतो में दबा होने के बावजूद किसी प्रसंग या जिक्र के चलते उसका मुखड़ा या अंतरा मन में गूंज उठता है। ' मन क्यूँ बहका रे  बहका , आधी रात को ' ऐसा ही गीत है। लता आशा की मीठी मादक जुगलबंदी ने इस गीत को अमर कर दिया है। 1984 में शशिकपुर द्वारा निर्मित और गिरीश कर्नार्ड निर्देशित ' उत्सव ' का यह  गीत तीन दशक बीतने के बाद भी नया नवेला लगता है।आप  इस गीत को भूले बिसरे गीतों की कतार में खड़ा करने का दुस्साहस नहीं कर सकते। सिर्फ गीत ही नहीं वरन फिल्म को भी आसानी से नहीं  बिसार सकते। 
भारतीय सिनेमा के सौ साला सफर में अंग्रेजी राज , मुग़ल काल को केंद्र में रखकर दर्जनों फिल्मे बनी है। ये पीरियड फिल्मे सफल भी रही और सराही भी गई। परन्तु भारत के समृद्ध शास्त्रीय एवं साहित्य संपन्न काल पर ' आम्रपाली ( 1966 )  ' उत्सव (1984 ) और दूरदर्शन निर्मित ' भारत एक खोज ' के दर्जन भर एपिसोड के अलावा हमारे पास इतराने को कुछ भी नहीं है। ईसा से पांच शताब्दी पूर्व मगध सम्राट अजातशत्रु एक नगर वधु पर आसक्त हुए और उसे हासिल करने के लिए उन्होंने वैशाली को मटियामेट कर दिया। उतरोत्तर  आम्रपाली भगवान् बुद्ध की शिष्या बन सन्यासी हुई। ऐतिहासिक दस्तावेज और बौद्ध धर्मग्रन्थ इस घटना की पुष्टि करते है। शंकर जयकिशन के मधुर संगीत , लता मंगेशकर के सर्वश्रेष्ठ गीतों ,वैजयंतीमाला के मोहक नृत्यों , भानु अथैया के अजंता शैली के परिधान रचना के बावजूद  ' आम्रपाली 'असफल होगई । बरसों बाद भानु अथैया को ' गांधी ' फिल्म में कॉस्ट्यूम डिज़ाइनिंग के लिए ' ऑस्कर ' से नवाजा गया। 
ईसा बाद चौथी शताब्दी में क्षुद्रक रचित संस्कृत नाटिका ' मृच्छकटिकम ' ( मिटटी की गाडी ) पर आधारित ' उत्सव ' हमें ऐसे समाज से रूबरू कराती है जो वैचारिक रूप से उदार है। जहाँ मजबूत सामाजिक  अंतर्धारा विद्यमान है। फिल्म का सूत्रधार ( अमजद खान ) हमें बताता है कि इस काल में हर कर्म को कला का दर्जा दिया गया था। चोरी , जुआं ,एवं  प्रेम भी कलात्मक रीति से किये जाते थे। यद्धपि ऐतिहासिक प्रमाण इस तथ्य से सहमत नहीं है। फिल्म का कथानक ' गुप्त कालीन ' है।  यह वह समय था जिसे भारत का स्वर्ण युग कहा गया। उत्तर एवं मध्य भारत में बसंत आगमन को उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा इसी समय आरम्भ हुई मानी जाती है । एक लोकोक्ति के अनुसार बसंत कामदेव के पुत्र थे.कामदेव का आव्हान करने के लिए भी इस उत्सव को मनाया जाता है।  निर्देशक गिरीश कर्नार्ड ने फिल्म को श्रंगारिक टच देने के लिए ' कामसूत्र ' के रचियता  ऋषि वात्सायन का पात्र कथानक में जोड़ा है जो की मूल नाटक में नहीं है। कामसूत्र का रचनाकाल भी इसी समय को माना जाता है। इस काल में जीवन के प्रमुख उद्देश्यों में ' काम ' अर्थ ' और धर्म ' को माना गया है। फिल्म उत्सव महज पीरियड फिल्म या कॉस्ट्यूम ड्रामा  नहीं थी। यह मनुष्य के श्रृंगार , सौन्दर्य, प्रकृति और कला को जीवन में समाहित करने का आग्रह करती है। फिल्म का कथानक उज्जयनी की गणिका वसंतसेना ( रेखा) और गरीब विवाहित ब्राह्मण चारुदत्त ( शेखर सुमन ) की प्रेमकहानी और खलनायक संस्थानक्  ( शशिकपूर ) की वसंतसेना को हरने की चालाकियों के इर्द गिर्द घूमता है। 'आम्रपाली ' की ही तरह  ' उत्सव ' भी व्यावसायिक रूप से असफल हुई। इस फिल्म की घोर असफलता ने शशिकपूर को वर्षों तक कर्ज में दबाए रखा। 
बसंत ऋतू के आगमन का उदघोष करने  वाली ' उत्सव ' संभवतः पहली और अंतिम फिल्म है।

Saturday, January 13, 2018

चीन अब रेडियो के माध्यम से भी घुस आया है घर में

जो लोग आज भी रेडियो के कायल है और  उन्हें जिस समस्या से जूझना पड़ रहा है उसे टीवी के दर्शक नहीं समझ सकते। रेडियो की शॉर्टवेव फ्रीक्वेंसी पर बाल बराबर अंतर से चीनी कार्यक्रमों की भरमार हो गई है। आप सुबह बीबीसी सुनने के लिए ट्यून करते है या रेडियो सीलोन पर पुराने गीत सुनना चाहते है या दोपहर में शहद घुली उर्दू सर्विस के कार्यक्रम सुनना चाहते है तो सबसे पहले आपको नासा के वैज्ञानिकों के परफेक्शन की तरह रेडियो की सुई को सेट करना होता है। एक डिग्री के दसवे भाग बराबर भी सुई इधर उधर हुई कि चीनी आपके घर में घुसपैठ कर जाते है। पांच बरस पहले ऐसा नहीं था।  जब से चीन ने अपने आप को वैश्विक स्तर पर पसारने की महत्वाकांक्षा को आकार दिया है तब से उसने कोई भी विकल्प नहीं छोड़ा है।  
डोनाल्ड ट्रम्प के  ' अमेरिका फर्स्ट ' आव्हान के बाद चीन के सपनों में पंख लग गए है।  वन बेल्ट वन रोड , डोकलाम में सड़क , पाकिस्तान , श्रीलंका में बंदरगाह , नेपाल अफगानिस्तान को भारी वित्तीय मदद , भारत को घेरने के  चीनी मंसूबों की छोटी सी फेहरिस्त है। भारतीय प्रायद्वीप में अपनी उपस्तिथि बढ़ाने के लिए  चीनी अपने सस्ते प्रोडक्ट के अलावा मुफ्त की रेडियो तरंगों का भी सहारा ले रहे है। अलसाये हिमालय के उस पार से रेडियो तरंगे नेपाल पहुँचती है और नेपाल में स्थापित 200 से अधिक रेडियो स्टेशन अंग्रेजी , हिंदी , नेपाली , और मैंडरिन भाषा में उन्हें भारतीय आकाश में फैला देते है। भारत में घटने वाली घटनाये हो या अंतराष्ट्रीय - चीनी अपने समाचारों में अपना दृष्टिकोण मिला कर परोस देते है। बीबीसी अंग्रेजी और  हिंदी के कार्यक्रमों की तरह चीनी कार्यक्रमों  का लहजा इतना सटीक और मिलता जुलता  होता है कि बरसों से इन्हे सुनने वाला श्रोता भी चकरा जाता है। 
2011 में भारत और चीन में सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों की संख्या नौ हजार के आसपास थी। भारत  पिछले पांच सालों से इसी संख्या पर टिका हुआ है परन्तु चीन ने हॉलीवुड को टक्कर देने की रणनीति पर चलते हुए इस संख्या को चालीस हजार पर पहुंचा दिया है। चीनी फिल्म उद्योग हॉलीवुड की फिल्मों की वजह  से पनप नहीं पा रहा था। चीनियों ने घरेलु माहौल को सुधारते हुए हॉलीवुड की बराबरी करने का प्रयास किया है।चीन इस तथ्य से भी परिचित है कि गुणवत्ता के स्तर पर वह अमेरिकन फिल्मों के सामने टिक नहीं सकता लिहाजा  मौजूदा वक्त में हॉलीवुड की नवीनतम फिल्मों को चीन में भारी इंट्री फीस चुकाकर प्रवेश दिया जा रहा है। चीनियों को फिलहाल बॉलीवुड से कोई खतरा नजर नहीं आता क्योंकि दोनों देशों की सांस्कृतिक पृष्टभूमि  एक दूसरे से उलट है। इसलिए रेडियो के जरिये भारत के घरों  में प्रवेश किया जा रहा है।  
2016 में प्रकाशित वैश्विक बॉक्स ऑफिस की रिपोर्ट के आंकड़ों से भी  चीनी महत्वाकांक्षा को समझा जा सकता है। वैश्विक सिनेमा का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन  इस वर्ष 38. 6 अरब डॉलर था जिसमे चीन की बड़ी हिस्सेदारी थी। इस सर्वे में हॉलीवुड दूसरे और बॉलीवुड तीसरे क्रम पर रहा। 
भारत को अब अपनी सीमाओं के साथ अदृश्य रेडियो तरंगों का भी ख्याल रखना

Saturday, January 6, 2018

सफलता का शॉर्टकट रिमेक ?

कोई भी विचार हवा की तरह होता है। मुक्त , मुफ्त , सबके लिए और अनमोल भी। विचार कभी किसी की मिलकियत नहीं रहा। महावीर ने जो कुछ  अपने उपदेशों  में कहा ओशो ने उन्हें अपने  प्रवचनों में दोहरा दिया।  बुद्ध और कृष्ण के साथ भी उन्होंने यही किया। सबसे बढ़िया बात जो उन्होंने कही वह यह कि ये मेरे अपने विचार नहीं है।  मेने इनकी मीमांसा अपने शब्दों में की है। विचार हमें मीरा के गीतों से भी मिल सकते है और कबीर के दोहों से भी। उन्मुक्त आकाश में भला हवा को बाँधा जा सकता है क्या ? उसी तरह विचार मात्र को भी बौद्धिक संपदा के दायरे में नहीं लाया जा सकता। विचार से कोई रचना बन जाए तो वह जरूर किसी की निजी सम्पति होगी।  कोरा विचार स्वतंत्र है। 
अस्सी के दशक तक जब मीडिया इतना उन्नत नहीं हुआ था तब हॉलीवुड की फिल्मे भारतीय दर्शकों तक बरसों में पहुँचती थी , और वह भी सीमित दायरे में। उस दौर में उनकी हूबहू नक़ल आसान काम हुआ करती थी। यह वह दौर था जब कॉपीराइट और इंटेलेचुअल प्रॉपर्टी की बात भी  कोई नहीं करता था। लॉस एंजेलेस में बैठा किसी हिट हॉलीवुड फिल्म का निर्माता कभी यह नहीं जान पाता था कि उसकी मेहनत  और मौलिकता को  'प्रेरणा ' बताकर बम्बई का फिल्मकार माल कूट रहा है। संवाद दर संवाद और दृश्य दर दृश्य नक़ल मारने का पता भी आसानी से नहीं लगता था। वर्षों तक सफलता के शिखर पर बैठे और अब रिटायर होने की कगार पर खड़े कई निर्माता निर्देशक इस खेल के पारंगत खिलाड़ी रह चुके है। 1976 में ऋषिकेश मुखर्जी की संजीव कुमार अभिनीत फिल्म ' अर्जुन पंडित ' में कॉमेडियन  देवेन  वर्मा ने ऐसे ही फ़िल्मी लेखक का पात्र निभाया था जो अंग्रेजी उपन्यासों से कहानी चुराकर हिंदी में लिखता है। 
फिल्म इंडस्ट्री में सफलता का प्रतिशत कभी भी दस पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा नहीं रहा है। किसी कहानी के चलने या नकार दिए जाने की शर्तिया ग्यारंटी कोई नहीं ले सकता। किसी और उद्योग से ज्यादा जोखिम छवियों की इस दुनिया में सदा से रहा है। चुनांचे फिल्मकार सफलता का शॉर्टकट चुनते है - रिमेक ! दस बीस बरस पुरानी या क्षेत्रीय भाषा की नवीनतम  सफल फिल्म के अधिकार खरीद कर उसे नई स्टार कास्ट के साथ बनाया जाता है।  न तो मौलिकता के लिए सर खपाना पड़ता है न ही नई कहानी के चलने ना चलने की दुविधा से दो चार होना पड़ता है। 
जब से फिल्मों के विधिवत अधिकार खरीद कर ' रिमेक ' बनाने का प्रचलन चला है तब से अब तक के आंकड़े दिलचस्प कहानी बयान करते है। ये आंकड़े यह भी बताते है कि दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्मे प्रदर्शित करने वाला देश नई कहानी से कितना कंगाल है। अब तक तमिल की 406 फिल्मे रिमेक के नाम पर दूसरी भाषा में बन चुकी है। इसके बाद 272 तेलुगु फिल्मे है जिन्हे हिंदी के अलावा अन्य भाषा में बनाया जा चूका है। हिंदी की 198 फिल्मों ने भी क्षेत्रीय फिल्मकारों को प्रभावित किया है और वे अन्य भारतीय भाषा में नया जन्म ले चुकी है। मलयालम की 175 , कन्नड़ की 109 ,बंगाली की 15 , मराठी की 16 फिल्मो के रिमेक अब तक प्रदर्शित हो चुके है। शरत चंद्र चटर्जी के काल्पनिक पात्र ' देवदास ' को अब तक 16 बार अलग अलग भाषाओ में सिनेमा के परदे पर लड़खड़ाते देखा जा चूका है। इस आकलन में हिंदी से हिंदी में ही ' रिमेक ' होने वाली फिल्मों को शामिल नहीं किया गया है। डॉन , अग्निपथ , दोस्ताना , उमराव जान ,कर्ज ,जैसी फिल्मों की संख्या दो दर्जन से अधिक है। 
इंटरनेट और मीडिया ने चोरी पर रोक लगाईं है और नए आईडिया के लिए उन्मुक्त आकाश भी उपलब्ध कराया है। अफ़सोस  सृजन की पीड़ा से कोई नहीं गुजरना चाहता। टू मिनट मैगी या इंस्टेंट कॉफी के दौर में भी दर्शक नवीनता चाहते है। क्लासिक फिल्मों को क्लासिक ही बने रहने देना चाहिए। अधिकांश रिमेक की असफलता यही सन्देश देने का प्रयास करती है। अगर फिल्मकार इन संकेतों को नहीं समझता है तो फिर उसे हाराकारी करने से कोई नहीं बचा सकता। 



दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...