Monday, July 17, 2017

partition 1947 बंटवारे से उपजा सिनेमा


हमारी पीढ़ी कई मामलों में  सौभाग्यशाली है। हमें  बंटवारे का दंश नहीं झेलना पड़ा जैसा हमारे पूर्वजों ने भोगा था। हमारे बचपन से ही हमने पाकिस्तान को एक अशांत और हैरान परेशान देश के रूप में देखा है । सिर्फ एक  काल्पनिक लकीर खींच देने से दो देश धर्म के नाम पर अलग हो गए।  परन्तु इस बड़ी घटना से उपजी जातीय हिंसा ने एक करोड़ से ज्यादा लोगों को अपनी जड़ों से उखाड़  दिया और लाखों की बलि ले ली। अफ़सोस की बात है पीढ़ी दर पीढ़ी यह जातीय नफरत  अब जैसे हमारे डी एन ए में समा गयी  है। बंटवारे और उससे उत्पन्न हिंसा को इतिहासकारो , फिल्मकारों और साहित्यकारों ने अपने नजरिये से देखा है। बतौर पाठक जब आप इतिहास के इस हाहाकारी गलियारे से गुजरते है या सिनेमा हाल के अँधेरे में उन नारकीय और दशहत भरे पलों से दो चार होते है तो एकबारगी उन लोगों के प्रति सहानुभूति से भर जाते है जिन्होंने वास्तविकता में उस क्षण को जिया था। 
इस वाकये को अमृता प्रीतम ने अपने उपन्यास ' पिंजर ' (1950 ) में एक औरत के दृष्टिकोण  से उजागर किया था। बंटवारे की वजह से नागरिकों ने न सिर्फ अपनी चल अचल सम्पति को खोया था वरन अपने परिवार की महिलाओ को भी महज धर्म के आधार पर  बलात अगवा होते देखा था। 2003 में इसी नाम से उर्मिला मार्तोंडकर को केंद्र में  रखकर चंद्र प्रकाश द्धिवेदी ने फिल्म बनाई थी। ' पिंजर ' बॉक्स ऑफिस पर तो कमजोर रही परन्तु उस वर्ष का ' नेशनल अवार्ड ' इसी ने जीता था। 
 तीखे व्यंग्यों और तेजाबी भाषा के धनी खुशवंत सिंह ने बंटवारे की पीड़ा को नजदीक से देखा था। उन्होंने जब लिखना आरम्भ किया तो सबसे पहला उपन्यास ' ट्रैन टू पाकिस्तान '' (1956 ) लिखा था।  अंग्रेजी में लिखे इस उपन्यास के  केंद्र में  सीमा पर बसे  ' मनो माजरा ' गाँव  के स्थानीय निवासियों की  नजर से बंटवारे को देखा गया था। पीढ़ियों से पड़ोस में रह रहे लोग सिर्फ एक खबर पर कैसे एक दूसरे की जान के प्यासे हो गए और भीड़ में बदल गए इस उपन्यास की कथा वस्तु है। 1998 में पामेला रूक्स ने इस कहानी पर बनी फिल्म को निर्देशित किया था। ' ट्रैन टू पाकिस्तान '  को भारत के अलावा ब्रिटेन , श्रीलंका और अमेरिका में भी रिलीज़ किया गया था। इसके जुनूनी हिंसा के दृश्यों ने विभिन्न फिल्म महोत्सवों में बंटवारे के दर्द को दुनिया को महसूस कराया था। 
' तमस ' बंटवारे की चपेट में आये एक बुजुर्ग सिख दंपति की भारत वापसी की कहानी कहता है। मृत जानवरों की खाल उतारने वाले नाथू को कुछ लोग एक सुअर मारने को कहते है।  अगले दिन उस सुअर की लाश एक मस्जिद के दरवाजे पर मिलती है। बंटवारे की विकराल हिंसा के शिकार सिख और हिन्दुओ का दारुण वर्णन और तात्कालीन राजनीति की उथल पुथल ' तमस ' का कथानक है। इस उपन्यास के लिए भीष्म साहनी को 1975 का साहित्य अकादमी पुरूस्कार मिला था। 1988 में इस कहानी को गोविन्द निहलानी के निर्देशन में  ' दूरदर्शन ' पर टीवी सीरीज के रूप में दिखाया गया था। 
भारतीय मूल की ब्रिटिश नागरिक और फिल्मकार गुरिंदर चड्ढा बंटवारे को कथानक बनाकर अपनी फिल्म ' पार्टीशन 1947 ' को अगस्त में रिलीज़ कर रही है। इस फिल्म को उन्होंने बंटवारे के रचनाकार ' लार्ड माउंटबेटन और उनकी पत्नि  लेडी एडविना माउंटबेटन ' को केंद्र में रखकर बनाया है। बंटवारे की बेला में भारत से साजो सामान  समेट रहे अंग्रेज क्या सोंच रहे थे, इस फिल्म की कहानी है। स्वर्गीय ओम पूरी की यह अंतिम  फिल्म है।वैश्विक स्तर पर यह फिल्म ' वायसरॉय हाउस ' के नाम से प्रदर्शित होगी। 

Monday, July 10, 2017

हम तो चले हॉलीवुड indian actors to vote for oscar !!

बॉलीवुड के लिए हॉलीवुड का जूनून किसी से छुपा नहीं है। अधिकांश भारतीय फिल्मकार अपने इस लगाव को जाहिर करने में संकोच भी नहीं करते। जब भी कभी हॉलीवुड की कोई खबर भारतीय फ़िज़ा में तैरती है तो  यकायक कई कान चौकन्ने हो जाते है।  और गर  वह खबर भारत से सम्बंधित है तो पाली हिल से लेकर अँधेरी और बांद्रा के कई सुरक्षित और भव्य घरों में उम्मीदों को पंख लग जाते है। लॉस एंजेलिस की पहाड़ी पर मजबूती से जमाये हुए विशालकाय HOLLYWOOD के अक्षर सपनो को इंद्रधनुषि रंगो में रंग देते है। 
पिछले दिनों अकडेमी ऑफ़  मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंसिज ( ऑस्कर पुरूस्कार प्रायोजित करने वाली संस्था ) के एक ईमेल ने कई फ़िल्मी सितारों को रोमांचित और कई को उदास कर दिया। अकडेमी ने अपने मौजूदा 6688  सदस्यों की संख्या को विश्व स्तर पर बढ़ाने का निर्णय लिया है। इसके लिए  दुनिया भर के 774  फिल्मकारों को मेम्बरशिप प्रदान की। भारत की भी चौदह हस्तियों -अमिताभ बच्चन , आमिर खान , ऐश्वर्या , वयोवृद्ध मृणाल सेन ,प्रियंका चोपड़ा ,इरफ़ान खान ,सलमान खान , गौतम घोष ,सूनी तारापोरवाला ,बुद्धदेब दासगुप्ता ,अर्जुन भसीन ,आनंद पटवर्धन ,अमृत प्रीतम दत्ता और दीपिका पादुकोण -अकडेमी के अन्य सदस्यों की तरह अगले वर्ष होने वाले ऑस्कर समारोह में शामिल होने वाली चयनित फिल्मो के लिए वोट करेंगे। शाहरुख़ खान का इस सूची में शामिल न होना आश्चर्य में डालता है। जब इस बात को लेकर ट्विटर पर हंगामा बरपा तो अकडेमी ने टका सा जवाब उछाल दिया कि हम उन्ही लोगों को सदस्य बना रहे है जिन्होंने  सिनेमा में अद्वितीय योगदान किया हो !!
 एक तरह से यह निमंत्रण बॉलिवुड की वैश्विक सिनेमाई  क्षितिज पर स्वीकार्यता दर्शाता है। परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। विगत वर्षों में ऑस्कर पर नस्लीय और लैंगिक भेदभाव के आरोप लगते रहे है। दुनिया भर के फिल्मकारों को जोड़ना उस अपराध बोध से मुक्ति का प्रयास मात्र है। 
यद्धपि ऑस्कर श्रेश्ठतम अमरीकी फिल्मो को दिए जाने वाले पुरूस्कार है परन्तु इनकी भव्य प्रस्तुति ने इन्हे सारी दुनिया में लोकप्रिय बना दिया है। समारोह के हफ्तों पूर्व  'टॉप फाइव ' श्रेणियों के लिए अटकल और सट्टेबाजी का बाजार गर्म हो जाता है। लोकप्रियता की इस लहर को बनाये रखने के लिए 1956 में ' फॉरेन लैंग्वेज ' नाम की केटेगरी बनाई गई।  इस केटेगरी में दुनिया के सभी देश अपनी भाषा की फिल्मे भेज सकते है। सन 2000 में  ' लगान ' के टॉप फाइव में पहुँचने की घटना ने जैसे बॉलिवुड को नींद से जगा दिया।उसके बाद से हर वर्ष भेजी जाने वाली फिल्मों को लेकर उत्साह बनने लगा है। यह बात दीगर है कि इन फिल्मों के चयन को लेकर राजनीति और गर्म बहसों के अलावा कुछ नहीं होता। फिल्मों के कला पक्ष को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं होती।    यहाँ यह याद रखना जरुरी है कि लगान से पूर्व  'मदर इंडिया ' और  'सलाम बॉम्बे ' टॉप फाइव में जगह बना चुकी है। परन्तु पुरूस्कार की दौड़ में पिछड़ गई। 
भारतीय फिल्मकारों ने हाल ही में एक और हॉलिवुड जूनून से मन मारकर पल्ला झाड़ा है। कुछ वर्ष पहले तक हरेक निर्देशक यह कहता हुआ पाया जाता था कि ' मेरी फिल्म की स्क्रिप्ट ऑस्कर  लाइब्रेरी के लिए सलेक्ट  हुई है। सिने  प्रेमियों को यह बात कभी समझ नहीं आई कि बंडल और बकवास फिल्मों की स्क्रिप्ट का ऑस्कर भला क्या करेगा। ' युवराज ' एक्शन रीप्ले ' गुजारिश ' रॉक ऑन ' खेले हम जी जान ' से जैसी फ्लॉप फिल्मे ऑस्कर का मान बड़ा सकती है क्या ? दरअसल इस लाइब्रेरी का नाम मार्गरेट हेर्रिक लाइब्रेरी है जो किसी भी रिलीज़ फिल्म की स्क्रिप्ट को स्वीकार लेती है। सिर्फ संग्रह के लिए। 
भारतीय फिल्मकारों के लिए बेहतर है कि वे जल्द से जल्द अपने हॉलिवुड प्रेम से छुटकारा पाए। अकैडमी की सदस्य्ता से जरूर बॉलिवुड का मान बड़ा है परन्तु यह काफी नहीं है।  हमारे फिल्मकारों को ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी और जफ़र पनाही से प्रेरणा लेनी चाहिए जिनकी फिल्मों को देखने के लिए  दुनिया भर के फिल्मकार उतावले रहते है। जब तक हमारी फिल्मों से हमारी मिट्टी की सुगंध नहीं आएगी तब तक हमें  हॉलीवुड से ही सर्टिफिकेट लेकर काम चलाना पड़ेगा।

Sunday, July 2, 2017

दर्शक के इन्तजार में फिल्मे

फिल्मों के अर्थशास्त्र को समझ पाना थोड़ा मुश्किल है। देश में  हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओ में हर वर्ष तकरीबन एक हजार फिल्मे बनायीं जाती है। कितनी फिल्मे अपनी लागत निकाल पाती है और कितनो की लागत पानी में चली जाती है इसका ठीक ठीक अनुमान लगाना सर खपाऊ कवायद है। जो फिल्मे अच्छा व्यवसाय करती है उनके बारे में हर चैनल और  समाचार पत्र विस्तार से बात करता है और चलन के मुताबिक़ फिस्सड्डी फिल्मों को तीसरे दिन भुला दिया जाता है। ये भुला दी गई फिल्मे कितने सपनो और कितने रुपयों की बलि लेती है , इस पर  शायद ही कोई चर्चा करता हो ! हमेशा की तरह फ्लॉप फिल्मो की संख्या हिट फिल्मों से ज्यादा रहती है। फिल्म निर्माण व्यवसाय की यह विचित्रता काबिले गौर है , बमुश्किल दस प्रतिशत फिल्मे अपनी लागत निकालती है। परन्तु इसके बाद भी हर वर्ष बनने वाली फिल्मों की संख्या बढ़ती जा रही है।  
होने को 2017 अभी आधा ही गुजरा है परन्तु कई बड़ी फिल्मे धूल धसरित हो गई है। अधिकांश  फिल्मे मीडियम बजट और डिफरेंट कथानक के बावजूद दर्शकों को सिनेमा घर तक नहीं ला पाई। यहां में इस वर्ष की प्रमुख  ' डिजास्टर ' फिल्मो की बात करूंगा। '' राब्ता '' की असफलता ने कृति  शेनन और सुशांत सिंह के करियर पर ग्रहण लगा दिया। इस फिल्म के गाने लोकप्रिय हो रहे थे और माना जा रहा था कि यह फिल्म सुशांत को बड़ा सितारा बना देगी। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। सफल तमिल फिल्म का रीमेक बनी ' ओके जानू ' आदित्य राय कपूर और श्रद्धा कपूर की सफल जोड़ी के बावजूद ठंडी रही जबकि इन्ही दोनों ने ' आशिकी 2 ' में समां बाँध दिया था। '' क्वीन '' की
सफलता ने कंगना रणावत को आत्मविश्वास से लबरेज कर दिया था। इसी आत्मविश्वास के चलते कंगना ने अपनी फीस ' रंगून ' के सह कलाकार शाहिद कपूर और सैफ अली खान के बराबर रखी थी। तीनो की फीस ने कालजयी हॉलिवुड फिल्म ' कासाब्लांका ' के हिंदी वर्शन रंगून को ओवर बजट कर दिया विशाल भारद्वाज के लिए यह झटका कम नहीं है। रंगून ने उनकी जमा पूंजी ख़त्म कर दी है। बंगाली फिल्म ' राजकहनि ' का रीमेक ' बेगम जान ' विद्या बालन और शानदार स्टार कास्ट के बावजूद बेनूर साबित हुआ। अमिताभ बच्चन के प्रशंसक मानते है कि बिग बी जिसको भी हाथ लगा देते है वह सोना हो जाता है। इस बार ऐसा नहीं हुआ। 'सरकार 3 ' ने महज 9. 50 करोड़ का बिजनेस किया। सम्भवतः यह अमिताभ बच्चन के नाम से होने वाला निम्नतम कलेक्शन है। ' मेरी प्यारी बिंदु ' ( परिणीति चोपड़ा )' बैंक चोर ' ( रितेश देशमुख ) ' नूर ' ( सोनाक्षी सिन्हा ) दर्शकों के नोटिस में आये बगैर ही डब्बा हो गई। स्टाइलिश फिल्मकार जोड़ी अब्बास -मस्तान ने अतीत में कुछ बेहद सफल फिल्मे बनाई है। पुत्र मोह में अब्बास ने हादसा रचा ' मशीन ' . इस फिल्म का कलेक्शन उनकी सफल फिल्मों के पहले दिन के कलेक्शन से भी कम रहा।
नब्बे के दशक में विरार के छोकरे गोविंदा ने सफल फिल्मों की झड़ी लगा दी थी।  उनकी अधिकांश फिल्मों में कादर खान और शक्ति कपूर की कॉमेडी (?) एक दम  से जुबान पर चढ़ने वाले गीतों ( सरकाय लो खटिया ) ने गोविंदा को बिकाऊ स्टार बना दिया था। 140 फिल्म पुराने गोविंदा की हालिया रिलीज़ ' आगया हीरो ' ने उनकी दूसरी पारी की उम्मीदों को सिरे से नकार दिया है। 
 फ़िल्मी दुनिया में शुक्रवार का बड़ा महत्व है। इस दिन या तो दिवाली हो जाती है या मातम हो जाता है। विदित हो कि हर नई फिल्म अमूमन शुक्रवार को ही रिलीज़ होती है। इसी दिन कोई  सितारा सिनेमाई आकाश में  टिमटिमाने लगता है और कोई अस्त हो जाता है। फ्लॉप और हिट के बीच फिल्म इंडस्ट्री चलती रहती है। 

दिस इस नॉट अ पोलिटिकल पोस्ट

शेयर बाजार की उथल पुथल में सबसे ज्यादा नुकसान अपने  मुकेश सेठ को हुआ है। अरबपतियों की फेहरिस्त में अब वे इक्कीसवे नंबर पर चले गए है। यद्ध...