हमारी पीढ़ी कई मामलों में सौभाग्यशाली है। हमें बंटवारे का दंश नहीं झेलना पड़ा जैसा हमारे पूर्वजों ने भोगा था। हमारे बचपन से ही हमने पाकिस्तान को एक अशांत और हैरान परेशान देश के रूप में देखा है । सिर्फ एक काल्पनिक लकीर खींच देने से दो देश धर्म के नाम पर अलग हो गए। परन्तु इस बड़ी घटना से उपजी जातीय हिंसा ने एक करोड़ से ज्यादा लोगों को अपनी जड़ों से उखाड़ दिया और लाखों की बलि ले ली। अफ़सोस की बात है पीढ़ी दर पीढ़ी यह जातीय नफरत अब जैसे हमारे डी एन ए में समा गयी है। बंटवारे और उससे उत्पन्न हिंसा को इतिहासकारो , फिल्मकारों और साहित्यकारों ने अपने नजरिये से देखा है। बतौर पाठक जब आप इतिहास के इस हाहाकारी गलियारे से गुजरते है या सिनेमा हाल के अँधेरे में उन नारकीय और दशहत भरे पलों से दो चार होते है तो एकबारगी उन लोगों के प्रति सहानुभूति से भर जाते है जिन्होंने वास्तविकता में उस क्षण को जिया था।
इस वाकये को अमृता प्रीतम ने अपने उपन्यास ' पिंजर ' (1950 ) में एक औरत के दृष्टिकोण से उजागर किया था। बंटवारे की वजह से नागरिकों ने न सिर्फ अपनी चल अचल सम्पति को खोया था वरन अपने परिवार की महिलाओ को भी महज धर्म के आधार पर बलात अगवा होते देखा था। 2003 में इसी नाम से उर्मिला मार्तोंडकर को केंद्र में रखकर चंद्र प्रकाश द्धिवेदी ने फिल्म बनाई थी। ' पिंजर ' बॉक्स ऑफिस पर तो कमजोर रही परन्तु उस वर्ष का ' नेशनल अवार्ड ' इसी ने जीता था।
तीखे व्यंग्यों और तेजाबी भाषा के धनी खुशवंत सिंह ने बंटवारे की पीड़ा को नजदीक से देखा था। उन्होंने जब लिखना आरम्भ किया तो सबसे पहला उपन्यास ' ट्रैन टू पाकिस्तान '' (1956 ) लिखा था। अंग्रेजी में लिखे इस उपन्यास के केंद्र में सीमा पर बसे ' मनो माजरा ' गाँव के स्थानीय निवासियों की नजर से बंटवारे को देखा गया था। पीढ़ियों से पड़ोस में रह रहे लोग सिर्फ एक खबर पर कैसे एक दूसरे की जान के प्यासे हो गए और भीड़ में बदल गए इस उपन्यास की कथा वस्तु है। 1998 में पामेला रूक्स ने इस कहानी पर बनी फिल्म को निर्देशित किया था। ' ट्रैन टू पाकिस्तान ' को भारत के अलावा ब्रिटेन , श्रीलंका और अमेरिका में भी रिलीज़ किया गया था। इसके जुनूनी हिंसा के दृश्यों ने विभिन्न फिल्म महोत्सवों में बंटवारे के दर्द को दुनिया को महसूस कराया था।
' तमस ' बंटवारे की चपेट में आये एक बुजुर्ग सिख दंपति की भारत वापसी की कहानी कहता है। मृत जानवरों की खाल उतारने वाले नाथू को कुछ लोग एक सुअर मारने को कहते है। अगले दिन उस सुअर की लाश एक मस्जिद के दरवाजे पर मिलती है। बंटवारे की विकराल हिंसा के शिकार सिख और हिन्दुओ का दारुण वर्णन और तात्कालीन राजनीति की उथल पुथल ' तमस ' का कथानक है। इस उपन्यास के लिए भीष्म साहनी को 1975 का साहित्य अकादमी पुरूस्कार मिला था। 1988 में इस कहानी को गोविन्द निहलानी के निर्देशन में ' दूरदर्शन ' पर टीवी सीरीज के रूप में दिखाया गया था।
भारतीय मूल की ब्रिटिश नागरिक और फिल्मकार गुरिंदर चड्ढा बंटवारे को कथानक बनाकर अपनी फिल्म ' पार्टीशन 1947 ' को अगस्त में रिलीज़ कर रही है। इस फिल्म को उन्होंने बंटवारे के रचनाकार ' लार्ड माउंटबेटन और उनकी पत्नि लेडी एडविना माउंटबेटन ' को केंद्र में रखकर बनाया है। बंटवारे की बेला में भारत से साजो सामान समेट रहे अंग्रेज क्या सोंच रहे थे, इस फिल्म की कहानी है। स्वर्गीय ओम पूरी की यह अंतिम फिल्म है।वैश्विक स्तर पर यह फिल्म ' वायसरॉय हाउस ' के नाम से प्रदर्शित होगी।