औरते कितने प्रकार की होती है ? सवाल सुनकर कोई भी हड़बड़ा सकता है परन्तु टेलीविज़न देखने वाला शख्स दावे के साथ कह सकता है कि दो प्रकार की होती है। एक तो वह जो आम जींदगी में हमारे इर्द गिर्द नजर आती है और दूसरी वह जो टीवी स्क्रीन पर प्रकट होती है- सुन्दर ,गौरी चिट्टी , आकर्षक , तीखे नैन नक्श वाली, गहनों से लदी हुई, चमकीली साड़ियों में लिपटी हुई मगर ईर्ष्या और द्वेष से भरी हुई,षड़यंत्र करती हुई,विश्वासघात और प्रतिशोध की आग में जलती हुई,सोलहवीं सदी के दकियानूसी रीती रिवाजों को पालती हुई, अंधविश्वास , टोन टोटके,हवन पूजा में उलझी हुई। टेलिविजन की माने तो लगता है ऐसी औरते होती है।
टी आर पी के नाम पर अधिकांश मनोरंजन चैनल आधुनिक भारतीय नारी को इसी फ्रेम में दिखा रहा है। अगर कारपोरेट परिवार से है तो भी इतनी ही कूप मण्डूक दर्शाई जाती है। फिल्मों और टीवी से पहले ग्रामीण परिवेश गायब हुआ। फिर मध्यम वर्गीय परिवार गायब हुए। अब मेहनती , कामकाजी ,सपने देखने और उन्हें पूरा करने वाली नारी लुप्त हो रही है। तात्कालिक धारावाहिक निसंदेह काल्पनिक हैऔर उनके पात्र भी , परन्तु यह कैसी कल्पना शीलता जो दर्शक को ' जड़ता ' और 'नकारात्मकता ' की और ले जा रही है। कई सौ एपिसोड में चलने वाले 'सीरियल ' के नारी पात्र इस तथा कथित डिजिटल युग में भी सिंदूर ,सुहाग और मंगलसूत्र पर अटके दर्शाए जा रहे है जबकि वास्तविक नारी इन सबसे कही आगे निकल चुकी है।
भारतीय टेलीविजन पर एकता कपूर के सफल फार्मूले 'सास बहु ' से आरम्भ सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। इन धारवाहिकों को हिमालयीन सफलता नारी दर्शकों के कारण ही संभव हुई है। जब तक महिलाएं इन्हे देखना बंद नहीं करेगी ये काल्पनिक महिला पात्र छोटे परदे पर जीवित रहेंगे। यहां यह जान लेना भी जरुरी है कि नारी पात्रों का नकारात्मक चित्रण पहली घटना नहीं है। अंग्रेजी के सर्वाधिक लोकप्रिय क्राइम सीरीज लेखक 'जेम्स हेडली चेस ' की सिर्फ इस बात के लिए आलोचना की जाती है कि उनके अधिकाँश नारी पात्र बेहद कुटिल और बुरे होते थे।
टी आर पी के नाम पर अधिकांश मनोरंजन चैनल आधुनिक भारतीय नारी को इसी फ्रेम में दिखा रहा है। अगर कारपोरेट परिवार से है तो भी इतनी ही कूप मण्डूक दर्शाई जाती है। फिल्मों और टीवी से पहले ग्रामीण परिवेश गायब हुआ। फिर मध्यम वर्गीय परिवार गायब हुए। अब मेहनती , कामकाजी ,सपने देखने और उन्हें पूरा करने वाली नारी लुप्त हो रही है। तात्कालिक धारावाहिक निसंदेह काल्पनिक हैऔर उनके पात्र भी , परन्तु यह कैसी कल्पना शीलता जो दर्शक को ' जड़ता ' और 'नकारात्मकता ' की और ले जा रही है। कई सौ एपिसोड में चलने वाले 'सीरियल ' के नारी पात्र इस तथा कथित डिजिटल युग में भी सिंदूर ,सुहाग और मंगलसूत्र पर अटके दर्शाए जा रहे है जबकि वास्तविक नारी इन सबसे कही आगे निकल चुकी है।
भारतीय टेलीविजन पर एकता कपूर के सफल फार्मूले 'सास बहु ' से आरम्भ सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। इन धारवाहिकों को हिमालयीन सफलता नारी दर्शकों के कारण ही संभव हुई है। जब तक महिलाएं इन्हे देखना बंद नहीं करेगी ये काल्पनिक महिला पात्र छोटे परदे पर जीवित रहेंगे। यहां यह जान लेना भी जरुरी है कि नारी पात्रों का नकारात्मक चित्रण पहली घटना नहीं है। अंग्रेजी के सर्वाधिक लोकप्रिय क्राइम सीरीज लेखक 'जेम्स हेडली चेस ' की सिर्फ इस बात के लिए आलोचना की जाती है कि उनके अधिकाँश नारी पात्र बेहद कुटिल और बुरे होते थे।
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