एक समय की बात है। उस समय लोग अपना समय छोटे छोटे गैजेट्स ( gadgets ) के साथ बिताया करते थे। ये गैजेट्स बड़े चमत्कारी हुआ करते थे। लोग इन पर खेल खेलते, गाने सुनते और वीडियो या फिल्मे देखा करते थे। हर उम्र के लोगों को इन नन्हे खिलोनो से बड़ा प्यार हुआ करता था। ये वह दौर था जब किताबे नाम की चीज लुप्त हो रही थी - संभवतः कुछ सौ साल बाद हमारे काल को शायद इसी तरह याद किया जाएगा।
पहले टेलीविज़न फिर इंटरनेट और अब मोबाइल - निसंदेह , पढ़ने की आदत को इन तीनो ने ही जबरदस्त प्रभावित किया है। शुरुआत हुई थी बाजार और घरों से पत्रिकाओ के लुप्त होने की और फिर गुम हुए उपन्यास। वह वाकई पढ़ने का स्वर्ण काल था। बच्चों के लिए भरपूर बाल साहित्य , युवाओ , महिलाओ और गंभीर पाठकों के लिए के लिए उनके पसंद की पत्रिकाऍ। सब कुछ इफरात से मौजूद था। आज लोगों की खरीदने की शक्ति कही अधिक है। परन्तु अब पुस्तकों पर कोई खर्च करना नहीं चाहता। खर्च तो दूर की बात है कोई पढ़ने की बात भी नहीं करता दिखाई देता। हाल में संपन्न विश्व पुस्तक मेले के आंकड़े भी इस रुझान की पुष्टि करते है। अधिकाँश स्टॉलों पर किताबों की बिक्री पिछले वर्ष की तुलना में 20 से 30 प्रतिशत तक है कम रही है।
इस निराशाजनक वातावरण को बदलने के लिए ओडिसा के दो युवाओ ने अनूठी पहल की है। अक्षत राउत और शताब्दी मिश्रा ने अपने बेहतर कॅरियर को दर किनार किया और निकल पड़े लोगों में पढ़ने की आदत जगाने के अभियान पर। दोनों ने 4000 किताबो का संग्रह एक वेन में जमा किया और अपने अभियान '' वॉकिंग बुक फेयर '' को लेकर 20 राज्यों के दौरे पर रवाना हो चुके है। ये दोनों 90 दिनों में दस हजार किलोमीटर का सफर तय करते हुए उन क्षेत्रों में जायेगे जहाँ किताबे मिलना आसान नहीं है।
शताब्दी और अक्षत के प्रयासों का क्या होता यह - शायद हम यह कभी नहीं जान पाएंगे परन्तु एक बोझिल होते समाज के लिए उनकी कोशिश स्मरणीय रहेगी।
दोनों को मेरी शुभकामनाये ,....... ठहरे पानी में कंकर फेकने के लिए ....
पहले टेलीविज़न फिर इंटरनेट और अब मोबाइल - निसंदेह , पढ़ने की आदत को इन तीनो ने ही जबरदस्त प्रभावित किया है। शुरुआत हुई थी बाजार और घरों से पत्रिकाओ के लुप्त होने की और फिर गुम हुए उपन्यास। वह वाकई पढ़ने का स्वर्ण काल था। बच्चों के लिए भरपूर बाल साहित्य , युवाओ , महिलाओ और गंभीर पाठकों के लिए के लिए उनके पसंद की पत्रिकाऍ। सब कुछ इफरात से मौजूद था। आज लोगों की खरीदने की शक्ति कही अधिक है। परन्तु अब पुस्तकों पर कोई खर्च करना नहीं चाहता। खर्च तो दूर की बात है कोई पढ़ने की बात भी नहीं करता दिखाई देता। हाल में संपन्न विश्व पुस्तक मेले के आंकड़े भी इस रुझान की पुष्टि करते है। अधिकाँश स्टॉलों पर किताबों की बिक्री पिछले वर्ष की तुलना में 20 से 30 प्रतिशत तक है कम रही है।
इस निराशाजनक वातावरण को बदलने के लिए ओडिसा के दो युवाओ ने अनूठी पहल की है। अक्षत राउत और शताब्दी मिश्रा ने अपने बेहतर कॅरियर को दर किनार किया और निकल पड़े लोगों में पढ़ने की आदत जगाने के अभियान पर। दोनों ने 4000 किताबो का संग्रह एक वेन में जमा किया और अपने अभियान '' वॉकिंग बुक फेयर '' को लेकर 20 राज्यों के दौरे पर रवाना हो चुके है। ये दोनों 90 दिनों में दस हजार किलोमीटर का सफर तय करते हुए उन क्षेत्रों में जायेगे जहाँ किताबे मिलना आसान नहीं है।
शताब्दी और अक्षत के प्रयासों का क्या होता यह - शायद हम यह कभी नहीं जान पाएंगे परन्तु एक बोझिल होते समाज के लिए उनकी कोशिश स्मरणीय रहेगी।
दोनों को मेरी शुभकामनाये ,....... ठहरे पानी में कंकर फेकने के लिए ....
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और सीमान्त गाँधी में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteआभार हर्षवर्धन जी । सम्मान के लिए शुक्रिया ।
Deleteएक छोटी सी कोशिश भी, बहुत सार्थक होती है। इनसें मिलवाने के लिए आपका हार्दिक आभार। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteनेताजी से जुड़ी 100 सीक्रेट फाइलों को भारत सरकार ने सार्वजनिक किया