लोग अपशब्दों का इस्तेमाल क्यों करते है ? सभ्य और सुसंस्कृत दिखने वाले लोग भी गाहे बगाहे बातचीत में गालियों का उपयोग क्यों कर बैठते है ? - यह प्रश्न आमजन के साथ भाषाविदों और मनोवैज्ञानिकों को भी विचलित करता रहा है। अमूमन अधिकांश लोग अपने मनोभावों को व्यक्त करते समय अपशब्दों को अलंकारों की तरह उपयोग करने की भूल कर बैठते है। ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी के जेफ बॉवेर ने इस समस्या की तह में जाकर अपने शोध में कुछ निष्कर्षों का खुलासा किया है। उनके अनुसार जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है वैसे वैसे हमारे मनोभावों में अपशब्दों के स्वर जुड़ते चले जाते है। अपशब्दों के साथ मनुष्य के सोंचने और दुनिया के प्रति उसके नजरिये में बदलाव भी होने लगता है। अन्य सर्वमान्य कारणों में वक्ता का सीमित शब्द भण्डार , बचपन की परवरिश , कुंठा , निराशा , आत्मविश्वास की कमी , तर्कों के अभाव में अपशब्दों का प्रयोग प्रमुख वजह माना गया है। शोध का एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि व्यक्ति अगर एक से अधिक भाषा का जानकार है तो भी अपशब्द वह अपनी मातृभाषा में ही प्रयोग करता है। मशहूर शायर निदा फाजली ने कभी अपनी नज्म में भी इस सामाजिक समस्या पर कुछ इस तरह से कटाक्ष किया था कि ' मेरे शहर की तालिम कहाँ तक पहुंची , जो भी गालियाँ थी बच्चों की जुबां तक पहुंची। फाजली साहब की बातों की पुष्टि फिल्मों में बढ़ते गालियों के प्रयोग से भी होती है। दो दशक पूर्व लेखिका माला सेन की पुस्तक ' इंडियास बेंडिट क्वीन : द ट्रू स्टोरी ऑफ़ फूलन देवी ' पर आधारित फिल्म ' बेंडिट क्वीन ' (1994 ) को एक समय असफल रहे अभिनेता शेखर कपूर ने निर्देशित किया था। चंबल के पिछड़े इलाकों में ऊँची जात नीची जात के संघर्ष की परिणीति ने फूलन को डाकू बना दिया था। कठोर वास्तविकता दर्शाने के लिए इस फिल्म में गालियों और बलात्कार के दृश्यों की भरमार थी। नब्बे के दशक का सिनेमा रोमांस और मारधाड़ से भरी फिल्मों के बीच कही अपनी राह तलाश रहा था। ऐसे में फूलन के संवाद दर्शकों को हतप्रभ कर रहे थे। ज्यादा समय नहीं हुआ था जब स्मिता पाटिल का महज कुछ सेकंड्स का स्नान द्रश्य ( चक्र ) राष्ट्रीय बहस बन गया था। उस समय किसी को अंदाजा नहीं था कि फूलन की गालियां फिल्मों में यथार्थ दर्शाने के बहाने का सबब बनने वाली है । बायोपिक फिल्मों में भी काल्पनिक घटनाक्रम जोड़ देने वाले चतुर फिल्मकार काल्पनिक फिल्मों में वास्तविकता का बघार लगाने के लिए गालियों की पगडंडिया तलाश ही लेते है। राम गोपाल वर्मा की आपराधिक पृष्ठ्भूमि पर कल्ट बनी 'सत्या (1998) हिंसा के अलावा शाब्दिक हिंसा का भी पड़ाव रही। शेक्सपीयर के नाटकों को भाषा का मर्म और उसकी अलंकृत सुंदरता की ऊंचाई के लिए सराहा जाता है। चार सौ वर्षों तक कोई साहित्य सम सामयिक बना रहे यह भाषा का ही कमाल है। परन्तु उनके ही नाटक ' ओथेलो ' पर आधारित ' ओंकारा (2006) अभिनेता सैफअली खान के गालिमय संवादों के लिए ज्यादा याद की जाती है। ताज्जुब की बात है कि सेंसर बोर्ड की चाकचौबंद घेराबंदी की बाद भी गालियुक्त संवादों से लबरेज फिल्मे बागड़ फलांग कर दर्शकों तक पहुँचती रही है। इश्किया (2010) देहली बेली (2011) गैंग्स ऑफ़ वासेपुर (2012 )शूटआउट एट वडाला (2013 )एन एच 10 (2015) उड़ता पंजाब (2016) जैसी कुछ फिल्मे अच्छे कथानक के बावजूद अपने संवादों के कारण अधिक चर्चित रही है।टाइटेनिक ' फिल्म से बुलंदियों पर पहुंचे लेनार्डो डी केप्रिया के प्रशंसकों को उनकी जेक निकलसन के साथ आई ' द डिपार्टेड ' और ' वुल्फ ऑफ़ वाल स्ट्रीट' बेहतर याद होगी। ये दोनों फिल्मे गालियों से इतनी भरी हुई थी कि फिल्म के अंत में दर्शक के जेहन में कहानी नहीं सिर्फ गालियां ही गूंजती रहती है। नेटफ्लिक्स पर हाल ही संपन्न हुई वेब सीरीज ' सेक्रेड गेम्स ' का कथानक दर्शक में रोमांच और उत्सुकता का वैसा संचार तो नहीं करता जैसा अनिल कपूर के 24 ( 2013 ) टीवी सीरीज ने किया था परन्तु गालियों के ओवरडोज़ से वितृष्णा का भाव जरूर जगा देता है। धीरे धीरे सामाजिक ताने बाने, संस्कृति और भाषा में विकृतियाँ घोलती इस परंपरा को रोकना ही होगा। इस दिशा में सामूहिक प्रयास करने की जरुरत है। इस समस्या का हल दर्शकों को ही तलाशना होगा। उन्हें ऐसी फिल्मों और टीवी सीरीज को को सिरे से नकारना होगा जिनके निर्माताओं को उनकी सफलता से यह ग़लतफ़हमी हो गई है कि वे जो परोस देंगे दर्शक उसे आसानी से निगल जाएगा ।अगर समय रहते पहल नहीं की गई तो सिनेमा के परदे से गालियों को घर की बैठक में आने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
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Thursday, September 27, 2018
Wednesday, September 19, 2018
' सिनेमाई फलक पर महिला फिल्मकार '
नब्बे और शताब्दी के दशक के आते आते प्रतिभाशाली महिला फिल्मकारों का सूखा हरियाली में बदल चूका था। न सिर्फ निर्देशन बल्कि कहानी और पटकथा लेखन में भी वे अपनी धाक जमा रही थी। कल्पना लाजमी ( रुदाली , दरमिया , दमन ) दीपा मेहता (फायर , अर्थ , वाटर ) मीरा नायर ( मिसिसिपी मसाला ,नेमसेक ,मानसून वेडिंग , सलाम बॉम्बे ) गुरिंदर चड्ढा ( बेंड इट लाइक बेकहम ,ब्राइड एंड प्रेजुड़ाइस , वाइसराय हाउस ) फराह खान ( मैं हूँ ना , ओम शांति ओम ,तीस मार खां , हैप्पी न्यू ईयर) तनूजा चंद्रा ( दुश्मन , संघर्ष ) किरण राव ( असिस्टेंट डाइरेक्टर -लगान , स्वदेस , डाइरेक्टर -धोबी घाट) रीमा कागती ( हनीमून ट्रेवल्स , गोल्ड ,असिस्टेंट डायरेक्टर लक्ष्य , जिंदगी ना मिलेगी दोबारा , दिल चाहता है ) अनुषा रिजवी (पीपली लाइव ) मेघना गुलजार ( फिलहाल ,जस्ट मैरिड , दस कहानियां , तलवार , राजी ) जोया अख्तर ( लक बाई चांस , जिंदगी ना मिलेगी दोबारा ) गौरी शिंदे ( इंग्लिश विंग्लिश , डिअर जिंदगी ) लीना यादव ( शब्द , तीन पत्ती , पार्चड ), अलंकृता श्रीवास्तव (टर्निंग 30 , लिपस्टिक अंडर बुरका ) , नंदिता दास ( फिराक , मंटो )आदि। अगर इसमें क्षेत्रीय भाषा की फिल्मकारों को जोड़ दिया जाए तो यह फेहरिस्त और लंबी जा सकती है। यहाँ हालिया प्रदर्शित फिल्म ' मनमर्जियां ' के एक प्रसंग का जिक्र करना जरुरी है। इस फिल्म की कहानी कनिका ढिल्लों ने लिखी है। निर्माता आनद एल राय चाहते थे कि फिल्म को कनिका ही डायरेक्ट करे क्योंकि वे फिल्म की क्रिएटिव डायरेक्टर भी थी । परन्तु अभिषेक बच्चन अपनी कमबैक फिल्म में किसी नए डायरेक्टर की जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। उन्हें अनुराग कश्यप पर ज्यादा भरोसा था , चुनांचे फिल्म इंडस्ट्री को एक बढ़िया स्टोरी राइटर तो मिला परन्तु एक बढ़िया महिला डायरेक्टर से वंचित होना पड़ा।
इन सभी फिल्मकारों में सिर्फ एक समानता है कि इन्होने बनी बनाई लीक पर चल रही कहानियों के बजाय ' रिअलिस्टिक कहानियों ' को प्राथमिकता दी। सुनने में अजीब और अविश्वसनीय लग सकता है कि फिल्म माध्यम में सदियों आगे चलने वाला हॉलीवुड इस क्षेत्र में बॉलिवुड से कही पीछे है। वहां महिलाओ को अपने उचित प्रतिनिधित्व के लिए अभी भी संघर्ष करना पड़ रहा है। सिर्फ अमेरिकन फिल्मों की ही बात की जाए तो पिछले दस वर्षों में किसी भी महिला निर्देशक ने एक से अधिक फिल्म को डाइरेक्ट नहीं किया है । प्रतिभा का ऐसा अकाल रहा है कि कैथरीन बिगेलो ( हर्ट लॉकर 2009) के बाद आज तक किसी महिला निर्देशक को ऑस्कर नहीं मिला है।
पिछले दो वर्षों में जब से वीडियो स्ट्रीमिंग साइट ' नेटफ्लिक्स ' और ' अमेज़न प्राइम ' ने भारत में अपने पैर पसारे है तब से फिल्मकारों को खासकर रचनात्मक और प्रतिभाशाली महिला फिल्मकारों को एक नया मंच मिल गया है।
Wednesday, September 12, 2018
अभिषेक बच्चन होने के मायने
अभिषेक बच्चन की ' मनमर्जिया ' के बहाने ' सौतुक डॉट कॉम sautuk.com के लिए लिखा मेरा लेख।
आज के समय में सबसे मुश्किल काम है अभिषेक बच्चन होना। जब परिवार का हरेक सदस्य अपने पीछे कई मील के पत्थर लगाता आया हो तो उम्मीदों का सागर लहलहाना स्वाभाविक है। मिलेनियम स्टार और महानायक के इकलौते वारिस ने ऐसे समय फिल्मों में प्रवेश किया था जब सारी दुनिया वाय टू के के आतंक से अपने कम्प्यूटरों को बचाने में जुटी हुई थी। इस दुविधाग्रस्त समय में मीडिया और आमजनो की बातों में सिर्फ कंप्यूटर ही था। स्वयं अमिताभ इस समय अपने जीवन के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे थे। उनकी फिल्मे लगातार फ्लॉप हो रही थी , और उनकी कंपनी ए बी सी एल लगभग दिवालिया हो चुकी थी।
' प्रतिक्षा ' के बाहर प्रशंसकों के बजाय लेनदारों का हुजूम खड़ा था। नंबर वन के सिंहासन पर बरसों रहने के बाद भी अमिताभ का प्रभाव इतना नहीं बचा था कि अभिषेक के लिए कही सिफारिश कर सके। ऐसे अनिश्चय भरे समय में देशप्रेम और युद्ध आधारित फिल्मों के लिए प्रसिद्ध जे पी दत्ता ने अभिषेक को ' रिफ्यूजी ' (2000 )में लांच किया। देश की सरहद पर बसे ग्रामीणों के शरणार्थी जीवन में प्रेम कहानी गूँथ कर फिल्म का कथानक बुना गया था। सरहद पर रहने वालों की त्रासदी को जावेद अख्तर ने शब्द दिये ' पंछी नदिया पवन के झोंके कोई सरहद ना इन्हे रोके ' । अच्छी कहानी और मधुर संगीत के बावजूद ' रिफ्यूजी ' असफल हो गई। सपनें देखने का आदी दर्शक महानायक के पुत्र को शरणार्थी के रूप में देखना सहन नहीं कर पाया। असफलता सिर्फ प्रोफेशनल लेवल पर ही नहीं आई वरन व्यक्तिगत स्तर पर भी आई। करिश्मा कपूर से सगाई के बावजूद वे विवाह के बंधन में न बंध सके।
यह जूनियर बच्चन के लिए हिचकोले भरी शुरुआत थी। अपने पिता की तरह उनकी कदकाठी शानदार थी और उन्ही की तरह वे चलन के हिसाब से रोमांटिक भूमिका में मिसफिट थे। प्रेमकहानियों के लिए मिसफिट उनका व्यक्तित्व कई फिल्मों की असफलता का कारण बना परन्तु उनकी दूसरी खूबियों की तरफ कम ही निर्देशकों का ध्यान गया। जिन्होंने इस बात को समझ लिया उनकी फिल्मों में अभिषेक ने कमाल कर दिया। राम गोपाल वर्मा की ' सरकार ( 2005 ) में उनका रोल अमिताभ से छोटा था परन्तु क्लाइमेक्स में जिस तरह अपने चेहरे पर कोई भाव लाये बगैर वे अपने दुश्मनो का सफाया करते है उस वक्त वे ' गॉडफादर ' के माइकेल कोर्लेऑन ( अल पचिनो ) के समकक्ष जा खड़े होते है। एक्टिंग की यही तीव्रता ' युवा 'के लल्लन और ' गुरु 'के गुरुकांत देसाई में भी नजर आती है।
शुरूआती दर्जन भर फिल्मों की असफलता के बाद अभिषेक को पहली सफलता ' युवा ' ( 2004 ) में मिली थी। इस फिल्म के अलावा उनकी लगातार पांच फिल्मे बैक टू बैक सफल रही धूम (2004 ) सरकार ( 2005 ) बंटी और बबली (2005 ) ब्लफ मास्टर ( 2005 ) कभी अलविदा ना कहना ( 2006 ) प्रमुख है। इतनी सफलता के बाद भी अभिषेक को वह मुकाम नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। उनकी गिनती कभी शीर्ष नायकों में नहीं हुई। इस ट्रेजेडी की एक वजह यह भी थी कि उनकी समस्त सफल फिल्मे ' मल्टी स्टारर ' थी। इन फिल्मो की सफलता का श्रेय उनके सहनायक ले गए। ठीक इसी तरह असफलता का ठीकरा उनके माथे फोड़ा गया। अभिषेक अब तक बयालीस फिल्मों में आ चुके है। इन फिल्मों में उनकी ग्यारह फिल्मे फ्लॉप रही और बारह फिल्मे सुपर फ्लॉप रही। उनकी कुछ फिल्मों को लेकर उनकी समझ पर प्रश्न चिन्ह लगता रहा है कि क्या सोंचकर उन्होंने ये फिल्मे साइन की होगी। जे पी दत्ता से वे इस कदर अनुग्रहित रहे कि उनकी ' एल ओ सी ' में छोटी सी भूमिका और ' उमराव जान ' के बकवास रीमेक में भी काम करने से मना नहीं कर पाए। इसी प्रकार ब्लॉकबस्टर हॉलिवुड फिल्म ' इटालियन जॉब ' का घनघोर कचरा हिंदी संस्करण ' प्लेयर ' उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल मानी जा सकती है। इसी तरह अच्छी कहानी परन्तु कमजोर स्क्रिप्ट ' खेले हम जी जान से ' आशुतोष ग्वारिकर के निर्देशक होने के बाद भी सांस नहीं ले सकी। अपने अठारह वर्षीय कैरियर में अब तक यह अभिनेता तीन ' बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर ' अवार्ड कमा चूका है। बतौर एक्टर -पोडूसर पिता पुत्र के संबंधों पर आधारित उनकी फिल्म ' पा ' उन्हें नॅशनल अवार्ड दिला चुकी है।
पिछले दो वर्षों से अभिषेक ने फिल्मों से दुरी बना ली थी। वे कुछ बेहतर करना चाहते थे। प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक अनुपमा चोपड़ा से बात करते हुए उन्होंने साफगोई से स्वीकार किया था कि आत्म संतुष्टि के भाव ने उनकी संघर्ष करने की क्षमता ख़त्म कर दी थी। अब वे पुनः लौटने वाले है। ख्यातनाम फिल्मकार आनंद एल राय की अनुराग कश्यप निर्देशित ' मनमर्जियां ' उनकी कमबैक फिल्म होगी। शायर गीतकार साहिर लुधियानवी और जग प्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम के संबंधों पर बायोपिक को संजय लीला भंसाली बना रहे है। फिल्मो से इतर प्रो कब्बडी लीग और इंडियन सुपर लीग फूटबाल के सहमालिक जूनियर बच्चन से दर्शक आगामी फिल्मों में भी उम्मीद लगाए बैठे है। वे ही साबित कर सकते है कि वे खुशकिस्मत है और अभिषेक होना वाकई चुनौती भरा दिलचस्प काम है।
Tuesday, September 11, 2018
ना उम्र की सीमा हो ना हो जन्म का बंधन !
पिछले बरस जब फ्रांस ने अपने नए राष्ट्रपति इमेनुएल मैक्रॉन को चुना तो वे अलग ही कारण से ख़बरों की सुर्ख़ियों में छा गए थे। वजह - उनकी पत्नी ब्रिगेट चौंसठ वर्ष की थी और वे महज उनचालीस के ही थे । हमारी आदत हो गई है पति की उम्र पत्नी से ज्यादा देखने की। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और मलेनिआ ट्रम्प में 24 वर्ष का अंतर है। पत्नी से कही अधिक उम्र का पति अमूमन सारी दुनिया में कुछ किन्तु परंतु के सहारे सामाजिक रूप से स्वीकार्य है। परन्तु इसका उल्टा होना थोड़ा चौका देता है। पिछले हफ्ते पूर्व मिस वर्ल्ड और बॉलिवुड की शीर्ष अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने अपने से ग्यारह वर्ष छोटे अमेरिकी गायक निक जोंस से सगाई की तो किसी ने उनकी उम्र के अंतर को लेकर विशेष टिका टिप्पणी नहीं की परंतु आश्चर्य जरूर व्यक्त किया । भारतीय समाज भी अब इस तरह के विवाह में उम्र के अंतर को थोड़े संशय के साथ स्वीकारने लगा है। पारम्परिक विवाह से उलट , जिसमे लड़के की उम्र हमेशा लड़की से ज्यादा रहती आयी थी , अब बड़ी उम्र की लड़कियां युवा लड़कों से ब्याही जाने लगी है। खासकर फिल्मों और सेलिब्रिटी के विवाहों में यह चलन आम होने लगा है । उम्र के इस असंतुलन पर बनी फिल्मों का सिलसिला सत्तर के दशक से हिन्दी फिल्मों में आरंभ हुआ है । 1977 में आयी फिल्म ' दूसरा आदमी ' में परिपक्व राखी और युवा ऋषि कपूर संभवतः पहले नायक नायिका थे जिन्होंने फिल्मों में इस परंपरा की शुरुआत की थी। उस दौर में इस तरह की कास्ट अपवाद थी परन्तु अब दृश्य पूरी तरह बदल गया है। आमजन की मानसिकता बदलने में निश्चित रूप से सिनेमा की कहानियों और उन्हें निभाने वाले नायक नायिकाओ ने विशेष भूमिका अदा की है। शाहरुख़ खान ने अपने कैरियर की शुरुआत में अधिक उम्र की नायिका दीपा साही के साथ ' माया मेमसाब ' (1993) और श्री देवी के साथ ' आर्मी ' ( 1996 ) की थी। 2001 में फरहान अख्तर ने अपने निर्देशन में ' दिल चाहता है ' के रूप में आधुनिक भारत के युवाओ की जीवन शैली और प्रेम को लेकर उनकी पसंद को फोकस किया था। फिल्म के तीन नायकों में से एक का झुकाव परिपक्व महिला की तरफ होता है। आमिर और प्रीति जिंटा की प्रेम कहानी के बावजूद अक्षय खन्ना और डिंपल कपाड़िया का शालीन प्रेम ' दिल चाहता है ' को एक पायदान ऊपर ले जाता है। डिम्पल कपाड़िया ने युवा नायक से प्रेम की ऐसी ही भूमिका ‘लीला’ में भी निभाई थी, जबकि ‘लीला’ में उनकी सहअभिनेत्री दीप्ति नवल ने ‘फ्रीकी चक्र’ नामक फ़िल्म में अपने से कई साल छोटे युवा नायक के साथ प्रेम करने वाली महिला का चरित्र निभाया था।
अयान मुकर्जी के निर्देशन में बनी ' वेक अप सिड ' ( 2009 ) में नायक नायिका ( रणवीर कपूर , कोंकणा सेन ) की उम्र का अंतर प्रेम में आड़े नहीं आता। जगजीत सिंह ने अपने कालजयी गीत ' ना उम्र की सीमा हो न जन्म का बंधन , जब प्यार करे कोई तो केवल देखे मन ' से जंग लगी रवायतों को सिरे से नकारते हुए फिल्मकारों और समाज को अपने दायरे से बाहर झाँकने को प्रेरित किया था । भारत के पहले शो मेन राजकपूर ने अपनी क्लासिक ' मेरा नाम जोकर ' में एक किशोर लड़के के मन मे अपनी टीचर को लेकर चल रही आसक्ति के अंतर्द्वंद्व को खूबसूरती के साथ उकेरा था । बाद में इसी विचार को विस्तार देकर उन्होंने ' बॉबी ' (1972) बनाई । एक किशोर के किसी युवती के प्रति आसक्त हो जाने को सनसनी बनाकर परोसने का प्रयास निर्देशक के शशिलाल नायर ने ' एक छोटी सी लव स्टोरी (2002) बनाकर किया । फिल्म का स्क्रीन प्ले पंकज कपूर ने लिखा था और नायिका थी मनीषा कोइराला। अच्छे सब्जेक्ट को गलत तरीके से हैंडल किया जाय तो फिल्म का कैसे कबाड़ा हो सकता है, एक छोटी सी लव स्टोरी इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण थी।
हॉलिवुड से चला यह चलन अब बॉलीवुड में भी सामान्य मान लिया गया है । गंभीर और लोकप्रिय पत्रिका ' सायकोलोजी टुडे ' के आंकड़े इस तथ्य की पुष्टि करते है । इस पत्रिका के अनुसार 1964 से 2015 तक इस तरह के विवाह में चोसठ फीसदी की बढ़ोतरी हुई है । दूल्हा वही जो दुल्हन मन भाये जैसी शादियों के उदाहरण फिल्मों से लेकर खेल और कॉरपोरेट जगत तक बहुतायत से मौजूद हैं । शकीरा , एलिजाबेथ टेलर , टीना टर्नर , डेमी मुर , पेगी कोलिन से लेकर हमारी ऐश्वर्या राय , प्रिटी जिंटा, उर्मिला मातोंडकर , फरहा खान , शिल्पा शेट्टी , अधाना अख्तर , अंजलि तेंदुलकर , बिपाशा बसु - जैसे नाम समुद्र में तैरते हिमखंड के ऊपरी भाग की तरह है । कुल मिलाकर
रिश्तो की अहमियत तभी तक है जबतक वे अच्छे बंधन में बंधे रहे , और अच्छे संबंधों में उम्र का अंतर कोई फर्क पैदा नही करता । अगर आप बालिग है , एक दूसरे से प्रेम करते है , जीवन के बहाव में कम्फ़र्टेबल है तो उम्र एक संख्या से ज्यादा मायने नही रखती ।
उपरोक्त लेख भास्कर समूह की मासिक पत्रिका ' अहा जिंदगी ' के सितम्बर अंक में प्रकाशित हुआ है।
Tuesday, September 4, 2018
सब कुछ सीखा हमने , न सीखी होशियारी !!
अखबार, टेलीविज़न और सोशल मीडिया में राजकपूर के आइकोनिक आर के स्टूडियो के बिकने की खबर अब ठंडी पड़ने लगी है। ट्विटर और फेसबुक पर उनके प्रशंसक अफ़सोस और हताशा भरी प्रतिक्रिया के बाद चुप है। यह पहला मौका नहीं है जब किंवदंती बनी विरासत को उसके वारिस सहेज नहीं पाये। भारत के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना के बंगले ' आशीर्वाद ' और किशोर कुमार के खंडवा स्थित ' गौरीकुंज ' की जो गति हुई वही सब अब इस स्टूडियो के साथ घटने जा रहा है। सत्तर बरस पुराना स्टूडियो अब कुछ ही समय में इतिहास के गलियारों में गुम हो जाएगा और उसकी जगह ले लेगी कोई बहुमंजिला इमारत या कोई हाउसिंग कॉलोनी।
हमारे देश का सामूहिक चरित्र जीवन के दो परस्पर विरोधी बिदुओ के बीच पैंडुलम की तरह डोलता रहता है। एक तरफ हम बेहद अतीतजीवी मानसिकता में जकड़े रहते है , अपने तथाकथित गौरवशाली अतीत के लिए मरने मारने पर उतारू हो जाते है। वही दूसरी तरफ अपनी इमारतों और सांस्कृतिक विरासतों के प्रति बेहद लापरवाह और गैर जिम्मेदाराना रुख अपना लेते है। व्यक्तित्व का यही भटकाव न हमें गुजरे समय से जुड़े रहने देता है न ही भविष्य के प्रति सजग बनाता है।
अंग्रेजी और अंग्रेजियत के प्रति हमारा लगाव विश्वविख्यात है। भाषा और रहन सहन के मान से हम ' गोरो ' की तरह हो जाना चाहते है। हमारे फिल्म पुरूस्कार बतर्ज़े 'ऑस्कर ' और ' बाफ्टा ' की फोटोकॉपी बनने का प्रयास करते है। परन्तु हम उनकी तरह अपनी विरासतों के प्रति संवेदनशील नहीं बन पाते। अमेरिका के पास अपनी कोई ऐतिहासिक संस्कृति नहीं है परन्तु हॉलीवुड ने जिस तरह अपनी फिल्मो और फिल्मकारों को सहेजा है वैसा हमने अभी प्रयास करना भी आरंभ नहीं किया है। सिनेमा के शुरूआती दौर में बनी भारतीय फिल्मों के प्रिंट तो दूर की बात है हमारे पास पहली सवाक फिल्म ' आलमआरा 'का पोस्टर भी सुरक्षित नहीं बचा। जबकि हॉलीवुड ने उस दौर की चालीस प्रतिशत फिल्मों को नष्ट होने से बचा लिया है। अपने फिल्मकारों की स्मृतियों को आमजन में ताजा रखने के लिए कैलिफोर्निया के रास्तो पर पीतल के सितारों को जमीन पर मढ़ा गया है। इन सितारों पर उल्लेखनीय अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के नाम उकेरे गए है। उम्रदराज और असहाय फिल्मकारों की देखरेख करने के लिए ' मूवी पिक्चर एंड टेलीविज़न फंड ' नाम की संस्था है जो उन्हें जीवन की शाम में भी सम्मान से जीने का मौका देती है। एक जमाने के सुपर स्टार भारत भूषण , भगवान् दादा की तरह उन्हें अपना जीवन झुग्गी झोपडी में नहीं गुजारना पड़ता। ए के हंगल जैसे वरिष्ठ और लोकप्रिय अभिनेता के इलाज के लिए चंदा नहीं करना पड़ता।
एक वर्ष पहले जब आर के स्टूडियो में आग लगी थी तब ही तय हो गया था कि अब इस महान विरासत पर पर्दा गिरने वाला है। राजकपूर ने अपनी फिल्म के कॉस्टयूम , जूते , स्मृतिचिन्ह ' बरसात ' का छाता , ' मेरा नाम जोकर ' का जोकर , श्री 420 का हैट , जैसी बहुत सी छोटी छोटी चीजों को स्टूडियो में सहेजा था। यह सारा इतिहास उस आग में भस्म हो गया। दूसरों की फिल्मों में काम करने वाले उनके पुत्र अपने पिता के सपनो की रखवाली नहीं कर पाये। यहाँ शशिकपूर के परिवार खासकर उनकी पुत्री संजना कपूर की तारीफ़ करना होगी जिसने विकट परिस्तिथियों में भी ' पृथ्वी थिएटर ' को चालीस वर्षों से चलायमान रखा है।
हमारे दौर के वारिसों के लिए संग्राहलय से ज्यादा उसकी जमीन का दाम महत्वपूर्ण रहा है। प्रसिद्ध फ़िल्मकार कमाल अमरोही ( पाकीजा के निर्माता ) के वारिसों ने उनकी प्रॉपर्टी के लिए कितने दांव पेच लगाए इस पर अलग से एक फिल्म बन सकती है।
केलिन गोव ने अपने उपन्यास ' बिटर फ्रॉस्ट ' में कहा है ' विरासत - इस पर गर्व हो क्योंकि आप इसकी विरासत होंगे। अपनी विरासत को सहेजने और आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी आपकी है , अन्यथा यह खो जाएगी !
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